Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

कटाक्ष: मदर ब्रांड डेमोक्रेसी

मोदी जी के राज में प्रेस/ मीडिया एकदम स्वतंत्र है। हम भूल नहीं सकते कि पहले मीडिया के पांवों में तथ्यों की कैसी भारी-भारी बेड़ियां पड़ी रहती थीं। आज मीडिया तथ्यों की बेड़ियो से बिल्कुल आज़ाद है। जो व्हाट्सएप में है, वही मीडिया में है।
Cartoon
केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य के X हैंडिल से साभार

 

यारब न पश्चिम वाले समझे हैं, न समझेंगे मोदी जी की मदर ब्रांड डेमोक्रेसी की बात। वर्ना एक बार फिर इसके ताने नहीं मारे जा रहे होते कि क्या यही डेमोक्रेसी है? प्रेस की स्वतंत्रता कहां हैं? अगर पत्रकारों के पब्लिक के सवालों पर लिखने/ बोलने को जुर्म बनाया जाएगा, तो डेमोक्रेसी का चौथा खंभा कैसे खड़ा रह पाएगा, वगैरह, वगैरह। और इतनी सब बक-झक किसलिए? दो, जी हां फकत दो खबरनवीसों की यूएपीए में गिरफ्तारी के लिए! माना कि खबरिया वेबसाइट की शरारती, मगर छुटकी सी मक्खी पर शाह जी की पुलिस ने जरा ज्यादा ही बड़ा हथौड़ा चला दिया। कई सौ पुलिस वाले। सौ के करीब जगहों पर छापे। थोक में लिखने-पढऩे वालों के लैपटॉप, सेलफोन वगैरह की जब्ती। दफ्तर पर पुलिस सील। गोदी भोंपुओं से एंटी-नेशनल, एंटी-नेशनल का प्रचार ऊपर से। क्या हुआ कि मक्खी फिर भी नहीं मरी। रुक-रुककर ही सही, राजी जी की नाक के पास जाकर उसका भिन-भिन करना अब भी जारी है। फिर भी बाकी सब के लिए सबक तो हो गया कि राजा जी की ऊंघ में गलती से भी खलल नहीं पडऩा चाहिए, वर्ना...।

खैर बाकी सब ठीक है, पर गिरफ्तारियां तो फिर भी सिर्फ दो हैं। एक सौ चालीस करोड़ के देश में सिर्फ दो पत्रकारों की गिरफ्तारी। जी हां सत्तर करोड़ पर सिर्फ एक पत्रकार की गिरफ्तारी। सिर्फ पत्रकारों को ही हिसाब में लें तो भी लाख से ऊपर में से सिर्फ दो की गिरफ्तारी। पर शोर ऐसा हो रहा है जैसे मोदी जी ने डेमोक्रेसी  को ही जेल में डाल दिया हो।

हम तो कहते हैं कि इस सब में डेमोक्रेसी को घसीटना ही ज्यादती है। बहुत खींचेंगे तब भी प्रेस का या मीडिया का मामला तो शायद बन भी जाए, पर डेमोक्रेसी का इससे क्या लेना-देना है? वैसे मीडिया का भी मामला सिर्फ इसीलिए बन सकता है कि जिन पर छापा पड़ा, जिन्हें पकड़ा गया, जिस दफ्तर पर सील जड़ी गयी, सब मीडिया वाले हैं। बस इतना ही। वर्ना ये प्रेस या मीडिया वाले हैं कहां? ये तो एंटी-नेशनल हैं। दुश्मनों के दोस्त और दोस्तों के दुश्मन। भारत का गौरव बढ़े, यह इन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाता है। देखा नहीं कैसे, भारत की जगह झट इंडिया के पीछे जाकर खड़े हो गए। जब आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री ने मोदी जी को बॉस कहा, तो इन्होंने गर्व किया? नहीं किया। जब अमेरिका में एनआरआई लोगों ने मोदी-मोदी किया, तो इन्होंने मोदी-मोदी किया? अमरीका में एनआरआई छोड़ो, खुद भारत में जगह-जगह मोदी-मोदी होने के बाद भी, मजाल है जो इन्होंने एक बार भी मोदी-मोदी किया हो। इन्हें तो अमृतकाल को अमृतकाल कहने तक में शर्म आती है। पड़ोसियों को दुश्मन कहने में तो खैर इनकी ही नानी मर जाती है--ये कहां के प्रेस/ मीडिया हैं?

हम तो कहते हैं कि जो देशभक्त नहीं है, जो राष्ट्र का गौरव नहीं करता, उसका मीडिया-वीडिया होना छोड़ो, उसका तो होना ही क्या? उसके तो होने को ही धिक्कार है? मोदी जी की मेहरबानी है कि ऐसों को भी, जेल में ही सही, पर इस पवित्र देश में रहने तो दे रहे हैं। इस पवित्र धरती पर तो रहना ही परम सौभाग्य है, जिसके बाद किसी और अधिकार वगैरह की बात सोचना ही ज्यादा लालच करना है। और लालच का फल हमेशा कड़ुआ होता है। लालच पाप जो है। पर ये तो यही पाप बार-बार करते हैं।
 
मसलन यह नहीं देखा कि कोरोना में एक सौ तीस करोड़ बच गए, पांच हो कि पचास, कुछ लाख के मरने का शोर मचाते रहे और आक्सीजन-आक्सीजन चिल्लाते रहे, सो ऊपर से।
 
इसी तरह यह नहीं देखा कि लाखों किसान साल भर बाद भी दिल्ली के बार्डरों से सही-सलामत अपने गांव पहुंच गए, जो सात सौ गुजर गए उनका शोर मचाते हैं। या दिल्ली के दंगे...। वैसे भी, अगर यह भी मीडिया है तो वह क्या है जो सुंदर-सुशील शिशु बनकर, मोदी जी की गोदी जी में अठखेलियां कर रहा है!

और जो प्रेस/ मीडिया ही नहीं है, उसके खिलाफ कार्रवाई को, प्रेस की स्वतंत्रता से कैसे जोड़ा जा सकता है। मोदी जी के राज में प्रेस/ मीडिया एकदम स्वतंत्र है। मीडिया इतना स्वतंत्र है जितना स्वतंत्र पहले कभी नहीं था। हम भूल नहीं सकते कि पहले मीडिया के पांवों में तथ्यों की कैसी भारी-भारी बेड़ियां पड़ी रहती थीं। बेचारी कल्पना की बुलबुल इन भारी बेड़ियों के नीचे दबकर मर ही जाती थी। आज मीडिया तथ्यों की बेड़ियो से बिल्कुल आजाद है। जो व्हाट्सएप में है, वही मीडिया में है। पहले मीडिया पर हजार तरह की बंदिशें थीं--सांप्रदायिक नहीं होना है, ब्राह्मणवादी  नहीं दीखना है, मर्दवादी नहीं रहना है, गरीबों से हमदर्दी दिखानी है। और तो और शिष्टाचार की कैद भी। गोडसे जिंदाबाद तक नहीं कर सकते थे। अब जब से गोदी के मंच पर चढ़ा है, तब से मीडिया का एक-एक बंधन खुल गया है। पहले वर्जित हर क्षेत्र में मीडिया अब खुलकर खेल रहा है। यह तो मीडिया की आजादी का स्वर्णकाल है। जरूर पश्चिम वाले पैमानों में ही बुनियादी गड़बड़ी है जो प्रेस की स्वतंत्रता का माप करने वाले, अमृतकाल में भारत को और भी तेजी से नीचे से नीचे खिसकाते जा रहे हैं। पिछले एक साल में 150 वें स्थान से खिसकाकर 161वें स्थान पर पहुंचा दिया है; तालिबानी अफगानिस्तान से भी नीचे।

शुक्र है कि अपनी डेमोक्रेसी प्रेस-व्रेस की स्वतंत्रता के भरोसे नहीं है। प्रेस की स्वतंत्रता हो तब भी ठीक है। पर प्रेस की स्वतंत्रता नहीं हो, तब भी हमारी डेमोक्रेसी की सेहत पर जरा सा भी असर पडऩे वाला नहीं है। मोदी जी ने ऐसे ही थोड़े ही भारत को मदर ऑफ डेमोक्रेसी बनाने की मुहिम छेड़ रखी है। जहां बेटा-बेटी ब्रांड की डेमोक्रेसी है, उनके यहां होती होगी डेमोक्रेसी प्रेस की स्वतंत्रता के भरोसे। हमारे यहां नहीं। हमारे यहां मदर ब्रांड डेमोक्रेसी है। मदर ब्रांड डेमोक्रेसी को किसी चौथे-पांचवे खंभे की जरूरत नहीं है। चौथे क्या, अपनी मदर ब्रांड डेमोक्रेसी तो तीसरे और दूसरे खंभों के भी आसरे नहीं है। मदर ब्रांड डेमोक्रेसी को टिकाने लिए तो एक ही खंभा काफी है! सो अब एक देश, एक खंभा भी--राजाजी का सेंगोल है ना!      
 
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।) 
 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest