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ताजमहल किसे चाहिए— ऐ नफ़रत तू ज़िंदाबाद!

सत्तर साल हुआ सो हुआ, कम से कम आजादी के अमृतकाल में इसे मछली मिलने की उम्मीद में कांटा डालकर बैठने का मामला नहीं माना जाना चाहिए।
Taj Mahal

भई डॉ. रजनीश सिंह के साथ तो बड़ी नाइंसाफी हुई है। मोदी जी, स्मृति ईरानी जी आदि, आदि की डिग्रियों के कागज अभी तक नहीं दिखाए गए हैं, तो इसे अव्वल तो उनकी डिग्री नकली होने का सबूत नहीं माना जा सकता है। कागज नहीं दिखाएंगे को भूल गए क्या? सीएए के विरोधी कागज नहीं दिखाएं तो सवाब का काम और सीएए कानून बनाने वाले कागज नहीं दिखाएं तो गुनाह, यह तो कोई बात नहीं हुई। और मान लो मोदी जी आदि, आदि की डिग्री फर्जी है और अपने कुनबे के बड़ों की तरह, रजनीश सिंह के नाम के आगे लगा डॉ. भी फर्जी है, तब भी इलाहाबाद हाई कोर्ट को बेचारे के साथ कत्तई बेपढ़ों वाला सलूक करने का अधिकार नहीं था।


बेचारे ने मांगी तो थी ताजमहल के बाईस बंद कमरों की जांच करने की इजाजत और अदालत से मिली कुछ पढ़ने-लिखने की, किसी कॉलेज-यूनिवर्सिटी में दाखिला लेकर एमए-पीएचडी करने की नसीहत। ये कहां का न्याय हुआ? सत्तर साल तक जो हुआ सो हुआ, पर अब और नहीं। स्वतंत्रता के अमृतकाल में तो हर्गिज नहीं। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की पढ़ाई को उसका उचित सम्मान मिलना ही चाहिए और उसके एमए-पीएचडी को बाकी न सही कम से कम इतिहास, अर्थशास्त्र आदि का विशेषज्ञ तो माना ही जाना चाहिए।

और अगर डॉ. रजनीश सिंह को कत्तई बेपढ़ा ही मान लिया जाए तब भी, इसीलिए क्या उन्हें ताजमहल की असलियत जानने से और सारी दुनिया को बताने से रोका जाएगा? यह तो डैमोक्रेसी नहीं हुई। नाम के आगे डॉ. लगाने का अधिकार हो न हो, पर रजनीश सिंह को सिर्फ ताजमहल ही क्यों मुसलमान बादशाहों, नवाबों आदि की बनवाई हरेक इमारत का सच देखने का और सारी दुनिया को दिखाने का, इतिहास में एमए-पीएचडी करने वालों से ज्यादा न सही, उनके बराबर अधिकार तो जरूर है। और यह सिर्फ कागजी अधिकार की बात भी नहीं है। पुरानी इमारतें खोद-खोदकर उनका सच देखने और सारी दुनिया को दिखाने का सबका मौलिक अधिकार नहीं होता तो क्या अदालत के आदेश पर काशी में ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर सर्वे हो रहा होता? मौलिक अधिकार नहीं होता तो क्या मथुरा में जन्मभूमि मस्जिद के मामले में अदालत सोच-विचार कर रही होती। मौलिक अधिकार नहीं होता तो क्या उद्धव ठाकरे के घर के बाहर न सही, कुतुबमीनार के सामने हनुमान चालीसा का पाठ नहीं हो रहा होता। बेशक, मौलिक अधिकार है और पढ़े-लिखों-बेपढ़ों सब का एक-एक मस्जिद, एक-एक गिरजे को खोदकर देखने का मौलिक अधिकार है। फिर डॉ. रजनीश को ताजमहल से बाईस बंद कमरों को देखने से क्यों रोका जा रहा है?

सत्तर साल हुआ सो हुआ, कम से कम आजादी के अमृतकाल में इसे मछली मिलने की उम्मीद में कांटा डालकर बैठने का मामला नहीं माना जाना चाहिए। अदालतों को भी असली भारतीय संस्कृति के लिए, पहले से ज्यादा संवेदनशीलता दिखानी चाहिए। वैसे भी ताजमहल के रहस्यभरे बंद कमरों की संख्या 22 होना तो अपने आप में इसका सूचक है कि इन दरवाजों के पीछे क्या सच छुपा हुआ है? 22 की कुल संख्या भी, दो बार ग्यारह का योगफल है। 11 कमरे दक्षिण की ओर हैं और 11 उत्तर की ओर। और 11 की संख्या भारतीय परंपरा में कितनी शुभ मानी जाती है और इस्लामी परंपरा में अशुभ न सही, पर शुभ तो नहीं ही मानी जाती है, कम ये कम यह तो अदालत से भी छुपा हुआ नहीं था। फिर ताजमहल के नीचे हिंदू मंदिर होने के दावे को बिना साक्ष्यों की परीक्षा के हाई कोर्ट का खारिज कर देना कैसे न्यायसंगत माना जा सकता है?

फिर सिर्फ कमरों की संख्या का ही सवाल थोड़े ही है। सबूत और भी हैं, कमरों की संख्या के सिवा। जयपुर के राजघराने की राजकुमारी ने बता तो दिया कि ताजमहल तो तेजो महल पैलेस है, उनके राजपरिवार की प्रापर्टी। राजपरिवार के पोथी खाने में तो इस प्रापर्टी के सारे कागजात भी मौजूद हैं, जो जरूरत पड़ी तो वह अदालत को दिखा भी देंगी। ताजमहल शब्द का तो वैसे भी कोई अर्थ नहीं होता है। शाहजहां कम से कम इतना पढ़ा लिखा तो था ही कि अगर महलों का ताज कहना होता, तो महलताज कहता ताजमहल नहीं। वैसे भी इसे शाहजहां की बनायी इमारत कहने वाले तो इसे मकबरा ही बताते हैं। मकबरे के नाम के साथ महल शब्द कौन लगाता है? राजकुमारी दिया कुमारी की बात का सबसे बड़ा सबूत तो खुद ताजमहल के नाम में जुड़ा महल यानी पैलेस शब्द है। तेजो महल नाम इसलिए रखा गया होगा कि 22 बंद कमरों वाला यह महल किन्हीं तेजो महाराज ने बनवाया होगा। शाहजहां ने उस महल पर कब्जा कर के, उसके 22 कमरे बंद करा दिए और ऊपर से अपनी बीवी का मकबरा बनवा दिया। और सेकुलर भाइयों ने उसके मोहब्बत का प्रतीक होने का शोर मचा दिया। हिंदू अब और मोहब्बत के प्रतीकों या विश्व धरोहर के ऐसे भुलावों में आने वाला नहीं है। उसे अपनी धरती पर सब अपना ही चाहिए, चाहे मंदिर हो या महल उर्फ पैलेस हो या फिर गांव-कस्बे-शहर या गली-सडक़ का नाम। ताजमहल की जगह पर हिंदू मंदिर/ महल अगर हिंदुस्तान में नहीं बनेगा तो क्या पाकिस्तान में बनेगा; वहां तो ताजमहल ही नहीं है।

वैसे पाकिस्तान की बात से याद आया कि सुनते हैं कि जब देश का बंटावारा हुआ, पाकिस्तान के अतिवादी, अतिवादियों की ही बोली में, ताजमहल को पत्थर-पत्थर तोडक़र पाकिस्तान ले जाने की मांग कर रहे थे। तब तक बाबरी मस्जिद को गिराने के टैम की रीलोकेशन यानी हटाकर दूसरी जगह ले जाने की शब्दावली चलन में नहीं आयी थी। मोदी जी अब रीलोकेशन के जरिए ताजमहल को पाकिस्तान भिजवा सकते हैं और तेजो महल पैलेस में हैरीटेज होटल बनवा सकते हैं। पाकिस्तान भी खुश। जयपुर राजघराना भी खुश। और हैरीटेज होटल की कमाई से देश तथा प्रदेश की अर्थव्यवस्था भी खुश। वैसे भी अब जब हिंदू जाग चुका है, उसे ताजमहल हो या कोई (और) मोहब्बत के किसी प्रतीक की क्या जरूरत है? ताजमहल के नीचे छुपा तेजो महल हम सारी दुनिया को दिखाएंगे और उसे दुनिया का नफरत का सबसे बड़ा प्रतीक बनाएंगे। आखिर, विश्व गुरु के आसन का सवाल है। ए नफरत, तू जिंदाबाद!

(इस व्यंग्य स्तंभ कटाक्ष के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

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