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उत्तर बंगाल को अलग राज्य बनाने की मांग क्यों है ग़लत?

उत्तर बंगाल को अलग राज्य बनाने की मांग, प्रमुखत: भाजपा सांसद जॉन बारला उठा रहे हैं। याद रहे कि इस क्षेत्र में अलग राज्य की मांग को लेकर हिंसक आंदोलनों का इतिहास रहा है।
उत्तर बंगाल को अलग राज्य बनाने की मांग क्यों है ग़लत?

कोलकाता: राज्य में भारतीय जनता पार्टी के विधायकों ने हाल ही में उत्तर बंगाल को अलग राज्य बनाने की मांग को जिस तेजी से उठाया है, बंगाल के राजनीतिक विशेषज्ञ उसे ज़रा भी हल्के में नहीं ले रहे हैं, क्योंकि अतीत में इस क्षेत्र में कामतापुरी, गोरखालैंड और ग्रेटर कूचबिहार आदि को पृथक राज्य बनाने की मांगों को लेकर बड़ी उथल-पुथल रही है। 

उत्तर बंगाल को राज्य का दर्जे देने की वर्तमान मांग को प्रमुखत भाजपा सांसद जॉन बारला ने उठाया है। उत्तर बंगाल को पृथक राज्य या केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग उठाने के तुरंत बाद, बारला को केंद्रीय कैबिनेट में मंत्री बना दिया गया। उनके साथ, कूचबिहार से भाजपा सांसद, निशीथ प्रमाणिक, एक राजबंशी नेता को भी कैबिनेट में शामिल किया गया है। 

विधानसभा चुनावों से पहले, गृहमंत्री अमित शाह ने स्पष्ट रूप से कोच राजवंशियों को लुभाने की कोशिश की थी, जो उत्तर बंगाल के विधानसभा क्षेत्रों में काफी प्रभावशाली समुदाय है। शाह ने कूचबिहार के स्वयंभू निर्वासित 'महाराजा' अनंत राय से भी मुलाकात की थी, जो पिछले साल से पश्चिम बंगाल पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए असम में रह रहे हैं। राय ग्रेटर कूच बिहार पीपुल्स एसोसिएशन (जीसीपीए) के एक गुट के प्रमुख नेता हैं, जिसने अतीत में हिंसक आंदोलनों का नेतृत्व किया था। बैठक के बाद, शाह ने कूच बिहार में सार्वजनिक रैलियां कीं, जहां उन्होंने कूच बिहार की तत्कालीन रियासत और नारायणी सेना नामक इसकी प्रसिद्ध सेना की वीरता की प्रशंसा की। उन्होंने यह भी वादा किया कि नारायणी सेना के नाम पर एक अर्धसैनिक बटालियन का नाम रखा जाएगा।

अब शाह के प्रयासों का फल नज़र आ रहा है क्योंकि भाजपा ने उत्तर बंगाल के आठ जिलों में 54 में से 30 सीटें जीती हैं, जबकि तृणमूल कांग्रेस ने राज्य की 294 सीटों में से 213 सीटें जीती थीं। 2019 के लोकसभा चुनावों में, भाजपा ने उत्तर बंगाल की आठ में से सात सीटें जीती थीं, जहाँ उसकी लोकप्रियता में लगातार वृद्धि हुई है। चुनावों में जीतने के लिए इस तरह के राजनीतिक संरक्षण ने क्षेत्र में अलग राज्य की मांग करने वाले समर्थकों को फिर से प्रोत्साहित किया है, जो कि भविष्य के लिए अशुभ संकेत है।

अलगाववाद का इतिहास

अलग राज्य बनाने की पहले की मांग समय के साथ समाप्त हो गई थी क्योंकि प्रशासनिक उपाय के जरिए सभी समूहों से निपट लिया गया था जिनकी मूल दलील इस तथ्य पर टिकी थी कि कूचबिहार रियासत भारत में अधिमिलन संधि तहत शामिल हुई थी और जो 660 रियासतों का एक हिस्सा था और जो देश में, बाद में 15 अगस्त, 1947 की स्वतंत्रता के बाद शामिल हुए थे। 

कामतापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (केएलओ), एक प्रतिबंधित राजबोंगशी संगठन है, जो 90 के दशक के अंत में पश्चिम बंगाल और असम के कुछ हिस्सों से अलग कामतापुर राष्ट्र बनाने के उद्देश्य से बनाया गया था। इसे जीबन सिंघा के नेतृत्व में चलाया गया था, जो अभी भी म्यांमार में रहते है, और असमिया उग्रवादी समूह उल्फा के साथ मिलकर, केएलओ ने उत्तर बंगाल में बंगाल-असम सीमा पर शांति भंग करने की कोशिश की थी। 2000-2002 के बाद से इस क्षेत्र में हत्याएं, जबरन वसूली और अपहरण आम बात थी। 17 अगस्त, 2002 को यह हिंसक आंदोलन तब समाप्त हुआ जब इसके हमलावरों ने धूपगुड़ी में माकपा पार्टी कार्यालय में घुस कर पांच कार्यकर्ताओं की गोली मारकर हत्या कर दी थी।

हालांकि, केएलओ, जो अब प्रतिबंधित संगठन है, काफी निष्क्रिय हो गया है। यहां तक ​​कि केएलओ की राजनीतिक शाखा कामतापुर पीपुल्स पार्टी के नेता अतुल रॉय की हाल ही में कोविड-19 के कारण मृत्यु हो गई है। अपने आखिर के दिनों में भी, वे उत्तर बंगाल को एक अलग राष्ट्र या अलग राज्य की मांग के प्रति दृढ़ थे।

इस बीच, इन जातीय समुदायों को लुभाने के लिए, ममता बनर्जी सरकार ने कामतापुरी और राजबंशी बोलियों (उन्हें अलग भाषा के रूप में मान्यता देते हुए) के दो अलग-अलग बोर्ड शुरू कर दिए, जैसे कि अघोर बरमा जैसी बोली के पंडितों ने अतीत में मांग की थी। सरकार ने इन दोनों बोलियों को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए 2018 में एक विधेयक भी पारित किया था। हालांकि, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित भाषाविज्ञान विशेषज्ञ प्रो. पबित्रा सरकार के अनुसार, उन्हें अलग-अलग भाषाओं के रूप में मान्यता देना वैज्ञानिक नहीं है।

भाषा की राजनीति

अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद् प्रो॰ पबित्रा सरकार ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए विस्तार से इस पर चर्चा की और बताया कि कैसे उन्होंने राजबंशी भाषा पर एक साहित्य सम्मेलन (साहित्यिक बैठक) में भाग लिया था, जिसका उद्देश्य भाषा के लिए अलग से व्याकरण शुरू करना था। पबित्रा सरकार ने बताया कि उन्होंने बंगाली की बोली के रूप में राजबंशोई के वैज्ञानिक मूल्यांकन को खुले तौर पर स्वीकार किया था, जो असम से भौगोलिक निकटता के कारण अहोमिया भाषा के साथ मिश्रित होने वाली भाषा है।

उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि अलग राज्य की वर्तमान मांग राजनीतिक सत्ता हासिल करने की एक चाल भर है और इसलिए राजबंशी को एक अलग भाषा का दर्जा दिया गया है। भारत में, सबसे स्वीकृत धारणा भाषा के आधार पर एक पृथक राज्य के गठन की रही है और इसलिए, वे राजबंशी को "हर किसी को मूर्ख बनाने के लिए" एक अलग भाषा के रूप में साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा, "अगर ऐसा ही चलता रहा तो देश में हजारों राज्य होंगे और इसके अलावा, जिनका अलग भाषा होने का कोई वैज्ञानिक आधार भी नहीं है।"

उत्तर बंगाल के विशेषज्ञ और सांस्कृतिक व्यक्तित्व डॉ सुखबिलास बरमा, जो एक प्रमुख आईएएस अधिकारी थे, वित्त आयोग के अध्यक्ष रहे और जलपाईगुड़ी के पूर्व विधायक थे, ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए राजबंशी को एक अलग भाषा के रूप में खारिज कर दिया और इसे राज्य के उत्तरी जिलों में बंगाली बोली जाने वाले संस्करण के रूप में वर्णित किया। 

उन्होंने कहा, “जिन लोगों ने पहले अलग राज्य का दावा किया था, वे अब सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं और ये मांग उनकी नहीं हैं। अब, जो लोग उत्तर बंगाल को अलग राज्य बनाने की मांग कर रहे हैं, वे जॉन बारला और निसिथ प्रमाणिक जैसे भाजपा सांसद हैं और यह मांग भी एक स्वाभाविक मौत ही मर जाएगी।”

सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य

उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और राज्य योजना बोर्ड के सदस्य और उत्तर बंगाल पर अन्य विशेषज्ञ जेता सांक्रियातन ने अलग राज्य की मांगों का विरोध करते हुए कहा कि लोग जानते हैं कि उत्तर बंगाल में समानांतर विकास की कमी थी और इसे अलग करके हल नहीं किया जा सकता है; यह सिर्फ एक राजनीतिक मांग है। उन्होंने कहा, “पश्चिम बंगाल में तीन अलग-अलग क्षेत्र हैं - पश्चिमांचल, गंगा का मैदान और उत्तरी बंगाल। कोलकाता और आसपास के क्षेत्रों ने ऐतिहासिक और भौगोलिक कारणों से अधिकतम निवेश को आकर्षित किया था। यदि भविष्य में अलीपुरद्वार को विकास की धुरी बनाया जाता है तो इस क्षेत्र का भी विकास होगा। विकास में असमानता सभी राज्यों में मौजूद है चाहे फिर वह कितना भी उन्नत क्यों न हो। महाराष्ट्र में पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्र के विकास में काफी अंतर है।”

उत्तर बंगाल में, बहुत सारी जमीन निजी चाय बागानों द्वारा ले ली जाती है, न कि वन विभाग द्वारा और बागानों में रहने वाले जातीय जनजातियों समुदाय ढेर सारे हैं। उन्होंने कहा, "हमें अलगाव के बजाय क्षेत्रीय एकीकरण की जरूरत है। उन्होने कहा कि हमें राजनीतिक समाधान नहीं बल्कि विकास रूपी समाधान चाहिए जो उत्तर बंगाल के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।”

यह पूछे जाने पर कि क्या अलग राज्य की मांग केवल प्रशासनिक समस्याएं हैं, पूर्व पुलिस महानिदेशक, गौतम मोहन चक्रवर्ती और राज कनौजिया इस विषय पर चुप्पी साधे गए, उन्होंने कहा कि हाल ही यह घटना उनकी सेवाएं समाप्त होने के बाद हुई है।

सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षक और इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन के एक कार्यकर्ता, निरुपम दत्ता ने बताया कि उत्तर बंगाल के प्रवासी बंगाली लोग जो 1947 में राज्य के विभाजन के बाद आए थे, जिन्हें भटिआ के नाम से जाना जाता है, वे 48 प्रतिशत है, जबकि उनमें से 51 प्रतिशत अनुसूचित जाति से हैं जहां से राजबोंगशी भी संबंध रखते हैं, इस वर्ग के लोग भी बंगाली बोलते हैं और खुद को अलग राज्य के गठन के समर्थक के रूप में नहीं देखते हैं। साथ ही उत्तर बंगाल की मुख्य उपज चावल, जूट और तंबाकू हैं, इस आधार पर कोई अलग राज्य नहीं बन सकता है। तत्कालीन आंदोलन के नेताओं में निखिल रॉय, मृतक अतुल रॉय और बंगशिबदान बर्मन, बंगाल में सत्ताधारी पार्टी के साथ मिल गए थे और अपनी मांगों को दफन कर दिया था। 

ऐतिहासिक दृष्टिकोण

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए, कलकत्ता विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर सौविक मुखर्जी ने बताया कि कुछ ऐसे कारक हैं, जो इस विशेष क्षेत्र को अलग करते हैं। प्रत्येक क्षेत्र, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, एक अलग सांस्कृतिक क्षेत्र हो सकता है, जो प्रकृति में व्यापक हो सकता है। प्रत्येक जिले में कुछ बोलियाँ होती हैं। बीरभूम में, लोग एक निश्चित बोली में बोलते हैं जो गंगा के मैदान से अलग है। मुखर्जी ने कहा, “यह राज्य के विभाजन या कई विभाजनों का आधार नहीं हो सकता है। यहां तक कि उन लोगों के लिए भी जो इसके इच्छुक हैं, इससे उनका कोई भला नहीं होगा।”

मुखर्जी ने कहा कि कभी-कभी स्वायत्त क्षेत्रों की वैध मांगें उठती रही हैं, लेकिन बोड़ो स्वायत्त क्षेत्र जैसे क्षेत्रों की सफलता भी संदिग्ध रही है। मुखर्जी ने कहा, “आखिरकार, इस तरह के विभाजन के बिना भी क्षेत्रीय विशिष्टताओं को बरकरार रखा जा सकता है। पश्चिम बंगाल के मामले में, जिसने 1947 में एक दर्दनाक विभाजन देखा था, अब किसी भी किस्म के विभाजन का कोई औचित्य नहीं है। इस तरह का विभाजन स्वस्थ हालात पैदा नहीं करेगा। राजबंशी मुख्य रूप से बंगाली बोली जैसी है जो बीरभूम में मौजूद है, या नादिया में, जहां कृष्णानगरी बोली या इसी तरह की बोली बोली जाती है। किसी भी भाषा के विकास की प्रक्रिया लंबी होती है और बंगाल में अब तक एक भी नई भाषा का उदय नहीं हुआ है।”

मुखर्जी ने आगे कहा कि कूचबिहार में वंचित रह जाने की भावना हो सकती है, जो पहले एक रियासत थी, लेकिन यह पूर्ण राज्य की मांग को उचित नहीं ठहराती है। उन्होंने कहा, "उनका एक लंबा इतिहास है, और असम के साथ सीमा होने से, यह एक सांस्कृतिक चौराहे की तरह है जिसे वर्तमान बंगाल के ढांचे के भीतर संरक्षित किया जाना चाहिए।”

आर्थिक परिप्रेक्ष्य

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए, कलकत्ता विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की वरिष्ठ प्रोफेसर, इशिता मुखोपाध्याय ने कहा कि उत्तर-बंगाल की अर्थव्यवस्था सभी आर्थिक गतिविधियों के मामले में सिलीगुड़ी है जो उनका एक व्यापारिक केंद्र है, साथ ही वह अन्य सीमावर्ती राज्यों पर अत्यधिक निर्भर है। उन्होंने कहा,  “चाय बागानों की समस्याएं लंबे समय से चली आ रही हैं और मजदूर परेशान हैं, लेकिन न तो राज्य और न ही केंद्र सरकार कोई समाधान पेश कर रही है। मजदूर कूचबिहार और दिनाजपुर से देश के अन्य हिस्सों में पलायन कर रहे हैं। ये राज्य के आर्थिक रूप से कमजोर क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों में पहचान की राजनीति का करना मतलब वहाँ की वंचित आबादी का आर्थिक बहिष्कार करना है।”

मुखोपाध्याय ने कहा, “एक अलग राज्य, आर्थिक गतिविधियों की मुख्यधारा से वंचित आबादी को और अधिक अलग-थलग कर देगा। ऐसा छत्तीसगढ़ और झारखंड में हो चुका है जब इन नए राज्यों का गठन हुआ था। हमारे पास आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों को नए राज्य बनाने का अच्छा आर्थिक अनुभव नहीं है। राज्य का विभाजन होने पर यहां भी ऐसा ही होगा। इस क्षेत्र को पहले ही कोविड काल में आर्थिक रूप से मुख्यधारा से दूर कर दिया गया है।” उन्होंने कहा कि सवाल यह था कि पश्चिम बंगाल के ऐसे विभाजन से किसे फायदा होगा। "यह कॉर्पोरेट पूंजी है जिसे एक मातहत बाजार की जरूरत है और इस प्रकार, वह क्षेत्रीय बाजारों को केवल कब्जा करने और लाभ कमाने के लिए विभाजित करना चाहता है। अलग राज्य के बनाने से क्षेत्र के लोग आर्थिक रूप से लाभान्वित होने वाले अंतिम व्यक्ति होंगे।"

विफल राजनीतिक हस्तक्षेप

सिलीगुड़ी के पूर्व मेयर अशोक भट्टाचार्य ने उत्तर-बंगाल को राज्य का दर्जा देने की मांग का कड़ा विरोध किया और कहा कि विभाजन से क्षेत्र की समस्याएं और बढ़ेंगी। उन्होंने कहा, "क्षेत्र में पिछड़ेपन के कारण अलग होने भावना पैदा हुई है और इस समस्या से सामाजिक-आर्थिक समस्या रूप से निपटा जाना चाहिए।"

हालांकि, एक अन्य विशेषज्ञ ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि कोलकाता के बाद, दार्जिलिंग जिला सबसे उन्नत ज़िला था और राज्य के घरेलू उत्पाद में सबसे अधिक योगदान देता था। तो, दार्जिलिंग जैसे उत्तरी क्षेत्रों में पिछड़ेपन का तर्क लागू नहीं होता है। उन्होंने कहा, “दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल या गोरखा क्षेत्रीय प्रशासन, जिसे इस क्षेत्र पर थोपने के लिए मजबूर किया गया था, वह समस्याओं का हल करने में सक्षम नहीं है। क्षेत्र में समस्याएं, जो मुख्य रूप से विकास में समानता की तलाश से उपजी हैं, जैसे पड़ोसी राज्य सिक्किम ने राज्य के गठन के बाद प्रगति की, लेकिन वे ऐसी तरक्की नहीं कर पाए। हालांकि, कई सूचकांकों में, दार्जिलिंग सिक्किम या कोलकाता के अलावा बंगाल के बाकी हिस्सों की तुलना में कहीं अधिक उन्नत है।”

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Separate State for North Bengal an Ill-founded Demand, Say Experts

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