किसान आंदोलन : 2013 के दंगों को भुला कर मज़बूत हुआ जाट-मुस्लिम राजनीतिक गठबंधन
नई दिल्ली: “इस आंदोलन में हिन्दुस्तान है; हिंदुस्तानी बने रहो; हिंदू-मुसलमान में मत बंटना" भारतीय किसान यूनियन (BKU) के गौतमबुद्ध नगर जिला अध्यक्ष महेंद्र सिंह चौधरी ने यह अपील भारी भीड़ और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच उत्तर प्रदेश की गाजीपुर सीमा पर लगे मंच से युवाओं के आह्वान के साथ की।
गाजीपुर (जोकि गाजियाबाद के पास दिल्ली-यूपी सीमा है) राष्ट्रीय राजधानी में प्रवेश करने वाले पांच दरवाजों में से एक है, जहां किसान पिछले साल 26 नवंबर से शांतिपूर्ण धरना दे रहे हैं, ठंडी और सर्द हवा में वे आंदोलन के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हें ताकि तीन कृषि-क़ानूनों को खारिज कराया जा सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने पिछले साल सितंबर में इन कृषि कानून को पारित कराया था। किसान सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर कृषि उपज खरीदने की कानूनी गारंटी की मांग कर रहे हैं।
चौधरी ने कहा कि जाटों और मुसलमानों के बीच हुए सांप्रदायिक विभाजन ने 2013 में मुजफ्फरनगर के दंगों को अंजाम दिया था, और अब समय आ गया है कि दोनों समुदाय उस खूनी इतिहास को भुला कर आगे बढ़े जिसने उन्हें भारी आर्थिक संकट में डाल दिया था। “अब मतभेदों को एक तरफ रख आगे बढ़ने और एकजुट रहने का समय है। साथ ही हम पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति को दोबारा से ऐसा बना सकते हैं जो एक ऐसी ताकत के रूप में फिर से उभरे कि जिसे कभी नजरअंदाज नहीं किया जा सकेगा, ”चौधरी जो उनके 60 के दशक में चल रहे ने मौजूद जनता से अपील की।
अगस्त-सितंबर 2013 में पश्चिमी यूपी के मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में सांप्रदायिक दरार के कारण हुई हिंसा में कम से कम 62 लोगों की मौत (42 मुस्लिम और 20 हिंदू) हो गई थी और 50,000 से अधिक लोगों को घर छोड़ कर जाना पड़ा था। उस वक़्त गुलाम मोहम्मद जौला के नेतृत्व में मुसलमान बीकेयू से बाहर चले गए थे। इसने चौधरी चरण सिंह द्वारा स्थापित गैर-पक्षपातपूर्ण किसानों के संगठन को भी कमजोर कर दिया था- जो पूर्व प्रधान मंत्री और किसानों के मुद्दों के चैंपियन थे।
हालांकि किसानों की मांगे 74 दिनों के विरोध के बाद भी पूरी नहीं हुई है, लेकिन आंदोलन ने निश्चित रूप से जनता के बीच सामाजिक और राजनीतिक चेतना पैदा कर दी है। समाज के विभिन्न वर्ग (विशेषकर हिंदू और मुस्लिम) अपनी पुरानी प्रतिद्वंद्विता और झगड़े को भूलाते हुए एक साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। यही कारण है कि जाट, मुस्लिम, सिख और दलित मिलकर दिल्ली की सीमाओं पर और उत्तर प्रदेश और हरियाणा में आयोजित होने वाली महापंचायतों में बड़ी संख्या में भाग ले रहे हैं।
यह अहसास भारी कीमत चुकाने के बाद आया है: जिसमें गन्ने की नकदी फसलों के लिए जानी जाने वाली क्षेत्रीय कृषि अर्थव्यवस्था को कमजोर करना, और चौधरी चरण सिंह द्वारा बुने गए जाटों और मुसलमानों के दशकों पुराने महत्वपूर्ण राजनीतिक गठजोड़ को तोड़ना और सबसे महत्वपूर्ण, समाज में दरार पैदा करना और दो प्रभावशाली समुदायों के बीच सामाजिक अमिटता पैदा करना एक बड़े नुकसान की बात थी।
गन्ना उत्पादन का सबसे बड़ा क्षेत्र होने के नाते, उत्तर प्रदेश के चीनी उद्योग ने अब तक चीनी का सबसे बड़ा रिकॉर्ड उत्पादन किया है। राज्य की चीनी मिलों ने 27 मई, 2020 तक 124.92 लाख टन चीनी का उत्पादन किया था, जबकि 2017-18 के चीनी सीजन में उच्चतम उत्पादन 120.45 लाख टन था। पिछले साल इसी तारीख को राज्य ने 117.68 लाख टन चीनी का उत्पादन किया था। राष्ट्रीय संदर्भ में देखा जाए तो यह महत्वपूर्ण है, जिसने 15 मई 2020 तक 32.61 मिलियन टन से 26.36 मिलियन टन उत्पादन यानि 19 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की है।
यह भारत के बहुत कम ऐसे क्षेत्रों में से एक है जहाँ दोनों समुदायों की न केवल एक ही संस्कृति और परंपराएं हैं, बल्कि उनका रक्त भी एक ही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, गुर्जर और राजपूत समुदायों का एक समूह इस्लाम में परिवर्तित हो गया था और इसे 'मुल जाट' और 'गुर्जर मुस्लिम' के रूप में जाना जाता है। वे एक ही उपनाम (चौधरी, चौहान, राणा, त्यागी, आदि) और एक ही 'गौत्र’ साझा करते हैं। दो अलग-अलग धर्मों से आने के बावजूद, वे एक ही संस्कृति, रिवाज और परंपरा से विवाह, मृत्यु और उत्सव मनाते हैं। 2013 की सांप्रदायिक हिंसा तक, उन्होंने अपने राजनीतिक मसीहा चरण सिंह और उनके बेटे अजीत सिंह के लिए एक साथ मतदान किया था।
मुज़फ़्फ़रनगर से संसद में एक कश्मीरी नेता (दिवंगत मुफ़्ती मोहम्मद सईद, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री) को चुन कर भेजने की भी अनमोल यादें हैं। मुफ्ती ने जनता दल के टिकट पर नौवीं लोकसभा में मुजफ्फरनगर सीट से चुनाव जीता था और वीपी सिंह सरकार में पहले मुस्लिम गृह मंत्री बने थे।
लेकिन दंगों ने चौधरी अजित सिंह और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (रालोद) के राजनीतिक करियर को नष्ट कर दिया और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समाज को विभाजित कर दिया था। इसका सीधा फायदा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को हुआ, जिस पर राजनीतिक लाभ के लिए हिंसा भड़काने का आरोप थी। 2014 और 2019 के आम चुनावों और 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में भगवा पार्टी ने इस क्षेत्र में बड़ी जीत हासिल की थी।
तब से, अजीत सिंह के साथ-साथ समुदाय के कई बुजुर्ग दोनों को साथ लाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। किसान आंदोलन ने इस राजनीतिक और सामाजिक गठबंधन को दोबारा से जीवित करने की नई उम्मीद जगा दी है।
बीकेयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत के मीडियाकर्मियों से बात करते हुए रोने के बाद यानि 29 जनवरी को मुजफ्फरनगर में एक महापंचायत हुई थी, दंगों के बाद ऐसा पहली बार था जब बीकेयू के एक पूर्व मुस्लिम नेता गुलाम मोहम्मद जौला को राकेश टिकैत के बड़े भाई नरेश टिकैत के साथ मंच को साझा करते हुए देखा गया था।
“इन दंगों में कई कीमती जीवन खो गए थे। इसलिए कई परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर जाना पड़ा। अगर महेंद्र सिंह टिकैत जिंदा होते, तो दंगे कभी नहीं होते। वे एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे जो हमेशा एकता में विश्वास करते थे। उनका बड़ा सम्मान था और इस क्षेत्र में उनका प्रभाव भी काफी था, ”जौला ने न्यूज़क्लिक को बताया, दोनों समुदायों को अब पछतावा है और वे आगे बढ़ गए हैं।
जब मैंने मुजफ्फरनगर में पंचायत में कहा कि मुसलमानों को मारा गया, तो वहां चुप्पी छा गई थी। इसका मतलब है कि लोगों को पछतावा है। अब कई साल बीत चुके हैं; इसलिए, दरार के साथ जीने का कोई मतलब नहीं है। हम आगे बढ़ गए हैं। हम सबके सामने एक बड़ा मुद्दा है। चूंकि हम सभी किसान हैं और राकेश टिकैत हमारी लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं, उन्हें हमारे समुदाय का पूरा समर्थन है।
वे टिकैत के पिता महेंद्र सिंह टिकैत के करीबी सहयोगी थे, जो मुजफ्फरनगर के सिसौली गाँव के प्रसिद्ध किसान नेता थे, और उन्हें टिकैत बंधुओं के पिता के रूप में माना जाता था।
कई अन्य किसान नेताओं की तरह, जौला ने भी कहा कि वे राकेश टिकैत के आंसू देख कर खुद को रोक नहीं पाए। 28 जनवरी की शाम को, गाजीपुर सीमा पर मीडियाकर्मियों से बात करते हुए राकेश टूट गए थे, क्योंकि पुलिस कर्मी आंदोलन स्थल को खाली कराने की तैयारे कर रहे थे। इसने पश्चिमी यूपी और हरियाणा में जाने-अनजाने में विरोध की लहर पैदा कर दी। 26 जनवरी की हिंसा के बाद कमजोर पड़ते आंदोलन को जैसे नया जीवन मिल गया था।
“जब हमने राकेश टिकैत को रोते देखा, तो हमें एक अलग ही एहसास हुआ। हमें लगा जैसे उनके पिता रो रहे हैं, जिसे बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता क्योंकि टिकैत सबके पिता जैसे थे जो किसानों के लिए कुछ भी कर सकते थे, ”जौला ने कहा।
गाजीपुर की सीमा पर कैंपिंग करने वाले और पश्चिमी यूपी के सहारनपुर जिले के चौरा खुर्द गाँव के निवासी ज़िले सिंह ने बताया कि “हम इस लड़ाई में एक साथ हैं, और हमें इन कानूनों के खिलाफ आवाज़ उठाने की ज़रूरत है। यह हम सभी के लिए समय की जरूरत है, फिर चाहे चौधरी, मुस्लिम या कश्यप (दलित) हों, या तो वे किसान हैं या खेत मजदूर हैं। हम पहले किसान हैं और उसके बाद धर्म हैं।“
उन्होंने दावा किया कि इस आंदोलन से जाट-मुस्लिम विभाजन "बहुत हद तक" पट गया है। "इसका श्रेय टिकैत के आँसूओं को भी जाता है, जिसने कृषि-कानूनों के खिलाफ की लड़ाई को को 'गौरव' या किसनाओं के सम्मान की लड़ाई बना दिया।"
उन्होंने कहा कि, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसानों के लिए ये आँसू की कुछ बूँदें नहीं थीं बल्कि उनके गौरव पर हमला था।"
उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा ने युवा समुदाय को सांप्रदायिकता को दवा के रूप में पिलाया। लेकिन वे सत्ता (केंद्र और राज्य दोनों में) में आने के बाद उन्हें बेहतर भविष्य देने में विफल रहे और युवाओं को भी अब इस बात का एहसास हुआ है कि उनका इस्तेमाल किया गया था और उन्हे धोखा दिया गया है। “उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिल रही है। पुलिस और सुरक्षा बलों को छोड़कर, उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। निजी नौकरियों में उनका शोषण होता है। अब, मोदी और योगी सरकारों के प्रति युवाओं का विश्वास खो गया है। यह आंदोलन भारतीय राजनीति की एक नई पटकथा लिखेगा, “आशावादी सीमांत किसान ने कहा।
भाजपा के एक नेता प्रबल प्रताप शाही, जिन्होंने हाल ही में भगवा पार्टी से नाता तोड़ लिया और तीन कृषि-कानूनों का विरोध करते हुए कहा कि समाज सांप्रदायिक आधार पर विभाजित था, लेकिन लोकतंत्र अभी भी लोगों की रगों में मौजूद है।
“यदि किसान तथाकथित सुधारों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, तो सरकार को इन्हे वापस ले लेना चाहिए। सरकार का देश भर में व्याप्त भारी विरोध को नजरअंदाज करना और किसी भी तरह इन कानूनों को लागू करने की जिद्द किसानों के मन में उस संदेह को मजबूत करती है– कि खुली मंडी के बाद उनकी मंडियां (कृषि उपज विपणन समितियों) (एपीएमसी) समाप्त हो जाएगी और उन्हे कॉर्पोरेट्स की दया पर छोड़ दिया जाएगा। वे जानते हैं कि फसलों की खरीद रिलायंस करेगा, अडानी रसद (लोजीस्टिक) प्रदान काराएगा, और धन बैंकों के निजीकरण से आएगा,” उन्होंने कहा। “देश के युवा इस बात को समझते हैं कि क्यों 25,000 करोड़ रुपये का लाभांश देने वाली भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड जैसी सार्वजनिक उपक्रमों (सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों) को बेचा जा रहा है। उन्होने पूछा कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को कैसे बेच सकती है, जिनमें आम लोगों की हिस्सेदारी है? ”।
प्रदर्शनकारियों के बीच मुस्लिम टोपी पहने गाजियाबाद जिले के एमडी परवेज आलम भी शामिल थे। "किसानों को प्यार करना खुदा को प्यार करना है" यह उस सवाल का त्वरित जवाब था कि उनके समूह को किसानों के आंदोलन के प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने का क्या कारण था।
अमरोहा जिले के नकसा गाँव के 65 वर्षीय किसान ज़ाहिन्द अली ने कहा कि जाटों को भड़काया गया और मुसलमानों से लड़ाया, और उन्होने भाजपा को अपना रक्षक मान लिया। लेकिन हिंसा के सात साल बाद, अब वे समझ गए हैं कि उनका इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के रूप में किया गया था। इस पछतावे की अभिव्यक्ति दो समुदायों को अपनी खोई हुई एकता को फिर से पुनर्जीवित करने में मदद कर रही है। उन्होंने कहा कि बदलाव इस विरोध की समावेशी प्रकृति को देखते हुए काफी स्पष्ट है।
सहारनपुर के एक निवासी, माजिद अली खान, जो एक राजनीतिक विश्लेषक भी हैं, ने कहा कि जाट स्वभाव से बहुत संवेदनशील हैं। "वे कडक दिखते हैं, लेकिन वे दिल के नरम हैं। वे कभी सांप्रदायिक नहीं रहे; और इसलिए, वे जलालाबाद के गयूर अली खान जैसे कई मुस्लिम नेताओं के समर्थक रहे हैं। गुलाम मोहम्मद जौला ने मुज़फ़्फ़रनगर पंचायत में भाग लेकर आंदोलन का समर्थन किया और अपने समर्थकों के साथ गाजीपुर की सीमा पर आकार स्पष्ट संकेत दिया कि इस आंदोलन ने दो समुदायों के बीच पुराने संबंधों को पुनर्जीवित कर दिया है, ”उन्होंने कहा।
उन्होंने आगे कहा कि जब उस पागलपन को गुजरे साढ़े सात साल बीत चुके हैं जिसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश को घेर लिया था और दोनों समुदायों को बहुत नुकसान हुआ था। “जो लोग मारे गए और पलायन कर गए वे गरीब लोग थे जो खेत मजदूरी का काम करते थे। दंगों के परिणामस्वरूप जाटों ने अपनी सस्ती कार्य शक्ति खो दी थी। अब वे खेतों में काम के लिए दूसरे राज्यों के खेत मजदूरों पर निर्भर हैं। बड़ी संख्या में पीड़ित मुस्लिम लोहार थे जो कम कीमत पर गाँव में खेती के औजार बनाते थे। उनके जाने से इनपुट लागत में वृद्धि हुई। बीकेयू में एक विभाजन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप संगठन कमजोर हुआ। इसलिए, दोनों समुदायों के पास एक बार फिर से हाथ मिलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। और इस आंदोलन के साथ जो अब हो रहा है, वह बहुत सकारात्मक संकेत है।
कुछ स्थानीय स्तर के जाट नेता, जैसे कि विपिन सिंह बलियान ने हिंदू-मुस्लिम दरार को कम करने के प्रयास में योगदान दिया। “समूह में अब कोई विभाजन नहीं है। दोनों समुदायों ने मतभेदों को भुला दिया है। कई पीड़ितों ने आपराधिक मामलों को भी वापस ले लिया है। यह कहना गलत है कि दंगों के बाद मुसलमानों ने मुजफ्फरनगर पंचायत में पहली बार भाग लिया। हमने पहले भी कम से कम 14 पंचायतों का आयोजन किया था, जिसमें दोनों समुदायों की भागीदारी देखी गई थी। कई परिवार अपने गांवों में लौट आए हैं। जीवन काफी सामान्य है, ”बालियान ने न्यूज़क्लिक को बताया।
मुजफ्फरनगर से पत्रकार डॉ॰ रवींद्र राणा ने कहा कि जाट-मुस्लिम एकता राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण गठबंधन है और भाजपा ने महसूस किया था कि इस एकता को तोड़े बिना वह गन्ना भूमि की राजनीति में सफल नहीं हो सकती है।
“इसलिए, भाजपा ने रणनीतिक रूप से आपसी कलह के मुद्दों को उठाया, जो वास्तव में मौजूद नहीं थे। बीजेपी ने सामान्य नागरिक मसलों जैसे कि प्रेम संबंधों और खाने की आदतों को आपसी नफरत का स्रोत बना दिया। इसने हिंदू लड़कियों और मुस्लिम लड़कों के बीच प्रेम विवाह को इस्लामवादी षड्यंत्र बताया। दंगों के बाद, क्षेत्रीय दलों के गठबंधन पर निर्भर रहने के बजाय खुद के नेतृत्व को स्थापित कर दिया। लोकसभा और राज्य की विधानसभा में उनके उम्मीदवारों के चुने जाने के बाद, उन्हें केंद्र और राज्य सरकारों में महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो दिए गए ताकि पार्टी में जाटों का विश्वास मजबूत हो सके।
लेकिन किसान आंदोलन और टिकैत के आंसुओं ने सामाजिक बंधन को पुनर्जीवित कर दिया है। राणा ने कहा, “लगातार चल रही पंचायतों का आयोजन विभिन्न समुदायों की भारी भागीदारी से किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इस क्षेत्र के जाट अब 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में अजीत सिंह और जयंत चौधरी को हराने की अपनी गलतियों को स्वीकार कर रहे हैं। वर्तमान में, भगवा पार्टी के खिलाफ बहुत गुस्सा है और अगर यह अगले साल यूपी विधानसभा चुनाव तक जारी रहता है, तो पार्टी को निश्चित रूप से बहुत नुकसान होगा।”
टिकैत भाइयों के मामले में, राणा थोड़ा आशंकित दिखे। उनका अभी भी मानना है कि राकेश टिकैत आंदोलन की सबसे कमजोर कड़ी हैं। अपने तर्कों को सही ठहराते हुए, उन्होंने टिकैत की विश्वसनीयता और राज्य में अगले साल के विधानसभा चुनावों तक आंदोलन को बनाए रखने की उनकी क्षमता पर सवाल उठाया।
“टिकैत भाइयों में विश्वसनीयता का संकट है। सब जानते है कि उन्होंने बीकेयू को सत्तारूढ़ भाजपा का एक अनौपचारिक विंग बना दिया था। राकेश ने हाल ही में स्वीकार किया था कि उन्होंने भाजपा को वोट दिया था और पार्टी को सरकार बनाने में मदद की थी। उनका तर्क है कि उनके पास इस बात की जानकारी थी कि प्रतीकात्मक 'चक्का जाम' (6 फरवरी को दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक देश भर में संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा घोषित) को कुछ उपद्रवी हिंसक बना सकते थे, फिर भी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में इसका आयोजन न करना सवालिया निशान उठाता है। राणा के निष्कर्ष के मुताबिक, यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या टिकैत आंदोलन को बनाए रखने में सक्षम हैं। यह वास्तव में उनके सामने एक बड़ी चुनौती है,“।
हालाँकि, कुछ लोगों को अभी भी लगता है कि किसान आंदोलन की वजह से जाटों और मुसलमानों के बीच उभरी एकजुटता से बहुत उम्मीद करना थोड़ा जल्दबाज़ी होगी क्योंकि “भरने वाले ज़ख्म बहुत गहरे हैं।"
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