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शहीद उधम सिंह: सिर्फ़ जलियांवाला बाग़ हत्याकांड का बदला लेना उनका मक़सद नहीं था!

शहादत दिवस पर विशेष: सवाल ये उठता है कि अगर (जैसा कि आम तौर पर माना जाता है) उधम सिंह के जीवन का एक मात्र मक़सद जलियांवाला बाग़ हत्याकांड का बदला लेना था, जिसके तहत उन्होंने माइकल ओ डायर पर गोलियां चलाई तो उन्होंने उसी सभा में मौजूद तीन और लोगों पर गोलियाँ क्यों चलाई?
शहीद उधम सिंह
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

भारतीय जनमानस में उधम सिंह को आम तौर पर 'जलियांवाला बाग हत्याकांड’ का बदला लेने वाले व्यक्ति के रूप में जाना जाता है. लेकिन जब हम उनके राजनीतिक जीवन को गहराई से टटोलते है तो उनकी एक अलग ही तस्वीर सामने आती है.

वे साम्राज्यवाद विरोधी अंतर्राष्ट्रीय ग़दर आंदोलन के एक अहम हिस्सा थे. उनके इस अंतरराष्ट्रीय क्रांतिकारी जीवनगाथा - जो उनको चार महाद्वीपों और बीस से ज्यादा देशों में ले कर गई - की शुरुआत सन 1919 में प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति और 'जालियांवाला बाग हत्याकांड' के बाद होती है.

21 साल के क्रांतिकारी जीवन में  उनको कई नामों से जाना गया जैसे, 'उदे सिंह', 'फ्रैंक ब्राज़ील' और 'मुहम्मद सिंह आज़ाद' -  ये सब सांप्रदायिक सौहार्द्र और साम्राज्यवाद विरोध के प्रतीक थे.  उन्होंने दो फिल्मों में भी छोटी-छोटी भूमिकाएं भी निभाई थीं.

उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर सन 1899 में पंजाब के संगरुर जिले में एक दलित परिवार में हुआ था. बचपन में ही उनके माता-पिता का देहांत हो गया जिसके बाद वो एक अनाथालय में पले-बढ़े. वहीं रहते हुए उन्होंने अपनी दसवीं की परीक्षा पास की और आजीविका के लिए ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हो गए.

अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस वादे के साथ सेना भर्ती अभियान चलाया था कि युद्ध समाप्त होने के बाद  सभी जवानों को जमीन और आर्थिक मुआवजे दिए जाएंगे. लेकिन युद्ध समाप्ति के बाद अंग्रज़ी सरकार अपने वादों से मुकर गई.उधम सिंह जब युद्ध खत्म होने के बाद सन् 1919 में  मेसोपाटामिया (आज का इराक) से भारत वापिस लौटे तो उनकी जेब में मात्र दो सौ रुपए थे; न तो वादा अनुसार जमीन मिली न ही कोई आर्थिक मुआवजा.  उनको ये अपने साथ विश्वासघात लगा.

उसी समय कर्नल रेजिनाल्ड डायर के अधीन एक सैनिक टुकड़ी ने रौलेट एक्ट के विरोध में पंजाब के अमृतसर के जलियांवाला बाग में हो रही एक शांतिप्रिय सभा में गोलियाँ  चलवाईं  जिसमे सैकड़ों लोगों की जान गयी और हज़ारों घायल हुए. इस  के बाद पूरे भारत और खास कर पंजाब में जन रोष फ़ैल गया। इससे उधम सिंह भी अछूते नहीं रहे और उपनिवेशवाद विरोधी राजनीति की ओर उन्मुख हुए.

उसी वक़्त ग़दर पार्टी पंजाब में अपना प्रचार-प्रसार  कर रही थी.उधम सिंह इससे जुड़ गए और गदरी पर्चो का पंजाब के गांव कस्बों में वितरण किया.कुछ समय बाद वो अफ्रीकी देश युगांडा में बन रहे रेलवे लाइन के लिए बतौर मजदूर काम करने चले गए और पूर्वी अफ़्रीका में सक्रिय ग़दर पार्टी की शाखा से जुड़ गए. 1922 में जब वो वहां से वापस पंजाब आये तो उन्होंने अमृतसर में एक दुकान खोली जो वास्तव में क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र था| इसी दौरान वे कुछ समय के लिये बब्बर अकाली आंदोलन के साथ भी जुड़े.
       
जब बब्बर अकाली आंदोलन पर पुलिस का शिकंजा कसने लगा तो उधम सिंह ने एक बार फिर देश छोड़ने का फैसला किया और इसी सिलसिले में वे पुनः पूर्वी अफ़्रीका पहुंचे और फिर अपने पुराने  गदरी साथियों  की मदद से मेक्सिको होते हुए सन 1924 में संयुक्त राज्य अमरीका में प्रवेश किया. उसके गदर आंदोलन के गढ़ सैन फ्रांसिस्को में कुछ समय के लिए बस गए.  

अमेरिका में उधम सिंह गदर पार्टी के एक महत्त्वपूर्ण कार्यकर्ता के तौर पर उभरे। वहां रहते हुए उन्होंने गदर साहित्य के अध्ययन किया। उनको पार्टी की ओर नए सदस्य भर्ती करने  और चंदा इकठ्ठा करने की ज़िम्मेदारी दी गई जिसको उन्होंने बखूबी निभाया। इतिहासकार नवतेज सिंह के अनुसार, "उधम सिंह को केंद्र में रखते हुए गदर पार्टी ने अमेरिका के कई मुख्य शहरों में सभाएं कीं। इनमें वे जलियांवाला बाग हत्याकांड का प्रत्यक्ष विवरण देते थे जिससे पार्टी की स्थानीय शाखाओं के विस्तार में सहायता मिलती और धन भी इकठ्ठा होता। ग़दर पार्टी से अपने जुड़ाव के अलावा उधम सिंह ने एक अलग 'आज़ाद पार्टी' भी बनाई थी जिसके दो उद्देश्य थे - अमेरिका में  भारत के आज़ादी के लिए अभियान व भारत में क्रांतिकारियों के लिए चंदा इकठ्ठा करना।

चूंकि अमेरिका में वे एक गैरकानूनी अप्रवासी थे और साथ ही साथ गदरी क्रांतिकारी,  इसलिए वे हमेशा ही पुलिस के निशाने पर रहते थे| इससे  बचने के लिए उनको कई बार नौकरियां, रहने का स्थान और अपना नाम बदलना पड़ा। इसी सिलसिले में वो  'फ्रैंक ब्राज़ील' के नाम से  पोर्टो रिका की एक जहाज़ कंपनी में नाविक और बढ़ई का काम करने लगे।इस काम के दौरान उन्होंने यूरोप, एशिया और भूमध्य - सागर के कई देशों यात्राएं की और उन देशों में ग़दर पार्टी से लोगो से सम्पर्क बनाया। उधम सिंह ग़दर आंदोलन के उस धारा से जुड़े थे जो कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से व्यावहारिक-वैचारिक रिश्ते रखता था और भारत में सशस्त्र जनक्रांति करने की ओर प्रयासरत था।   

दुनिया भर की यात्रा करते हुए उधम सिंह जुलाई 1927 में भारत आए। 30 अगस्त 1927 को उनको अमृतसर में आर्म्स एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। उनके पास से दो रिवाल्वर, एक पिस्तौल और कुछ गोलियाँ और साथ - साथ ग़दर पार्टी से जुड़ा प्रतिबंधित साहित्य, 'ग़दर दी गूँज', 'ग़दर दी धुरी ', 'देश भगत दी जान' (शहीदों का जीवन), और 'गुलामी दा जहर' आदि बरामद हुए। पुलिसिया पूछ-ताछ के दौरान उन्होंने ने बताया कि वो, “भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए अमेरिका से आए है और बोलशेविकों से पूरी सहानुभूति रखते है।“ इसके बाद उनको को पांच वर्ष की सज़ा हुई।

जेल में भी उधम सिंह ने अपना राजनीतिक अभियान जारी रखा। वो अपने साथी कैदियों के बीच में ग़दर पार्टी का प्रचार करते रहे जिसकी वजह से उनको कई बार बेंतो की सजा हुई और एकान्त कारावास में डाला  गया। सिंह के इस रवैये से परेशान हो कर पंजाब सरकार उनको एक जेल से दूसरे जेल स्थानान्तरित करती रहती। ऐसे ही एक स्थानान्तरण के दौरान उनको लाहौर के मियांवाला जेल में कुछ दिन रखा गया जहां उनकी मुलाकात भगत सिंह और उनके साथियों से हुई जो उस वक़्त  वहां लाहौर षडयंत्र मुक़दमे में बंद थे।

उधम सिंह भगत सिंह और उनके साथियों के विचारों से काफी प्रभावित हुए। आगे आगे चल कर वे भगत सिंह को अपना 'दोस्त' और 'गुरु' कहते थे और उनकी एक फोटो हमेशा अपनी जेब में रखते थे। जब वे लंदन में काक्सटन हॉल में शूटिंग  के बाद जेल में बंद थे तब उन्होंने एक पत्र में लिखा, “मुझे मौत से डर नहीं लगता...मेरा दोस्त दस साल पहले इस दुनिया से चला गया...उसको 23 तारीख को फँसी हुई थी और मुझे उम्मीद है कि मुझे भी 23 को ही फांसी होगी|” भगत सिंह की तरह ही उधम सिंह ने अदालत के में साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का विरोध किया और अनीश्वरवाद की तरफ उन्मुख होते हुए अपने बाल कटा लिए।

1931 के अंत में जेल से रिहा होने के तीन साल बाद उधम सिंह अंग्रेजी ख़ुफ़िया विभाग से नज़र बचा कर 1934 के अंत में लंदन पहुंचे। वहां रहते हुए उन्होंने ने बतौर ग़दर पार्टी के  कार्यकर्ता  इटली, पोलैंड, हॉलैंड, फ्रांस, हंगरी और जर्मनी आदि देशों की यात्रा की| जर्मनी से हो वो सोवियत रूस भी गए। लंदन में रहते हुए उन्होंने  कई जगहों पर मजदूरी भी क। वहीं वे इलेक्ट्रिकल वर्कर्स यूनियन के कार्यकर्ता के नाते स्थानीय ट्रेड यूनियन समिति में प्रतिनिधि भी चुने गए। इसके अलावा वे लंदन में भारतीय प्रवासी मजदूरों का प्रतिनिधित्व करने वाले मज़दूर संगठन 'इंडियन वर्कर्स एसोसिएशन' के सक्रिय सदस्य भी रहे| इस संगठन की स्थापना सूरत अली नाम के एक शख़्स ने की थी जिनका उदेश्य लंदन में रह रहे प्रवासी भारतीय मज़दूरों के हक़ के लिए लड़ना और भारत में अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ अभियान चलाना था। यह संगठन ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध था| लंदन में करीबन छह साल रहने के बाद उन्होने ने वो कार्य करने का फैसला किया जिसके लिए उनको आज तक  जाना जाता है।

13 अप्रैल 1940 लंदन के कैक्सटन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और सेंट्रल एशियन सोसाइटी की एक संयुक्त सभा चल रही है। एक किताब में रिवाल्वर छुपाए उधम सिंह हॉल में मौजूद हैं। जैसे ही सभा समाप्ति की घोषणा करने के लिए माइकल ओ डायर उठता है, उधम सिंह उस पर दो गोलियां देते हैं। डायर वहीं ढ़ेर हो जाता है| लेकिन उधम सिंह यहीं नहीं रुकते। अपने रिवाल्वर की बची हुई गोलियां  वो लार्ड जीटलैण्ड (ब्रिटिश भारत के राज्य सचिव और बंगाल प्रेसीडेंसी के पूर्व गवर्नर),लार्ड लैमिंगटन (बॉम्बे प्रेसीडेंसी के पूर्व गवर्नर) और सर लुइस डेन (पंजाब प्रान्त के पूर्व लेफ्टिनेंट-गवर्नर) पर खाली करते हुए आत्मसमर्पण कर देते हैं।

सवाल ये उठता है कि अगर (जैसा कि आम तौर पर माना जाता है) उधम सिंह के जीवन का एक मात्र मकसद `जलियांवाला बाग हत्याकांड’ का बदला लेना था, जिसके तहत उन्होंने माइकल ओ डायर पर गोलियां चलाई तो उन्होंने उसी सभा में मौजूद तीन और लोगों पर गोलियाँ क्यों चलाई? इसके अलावा एक और सवाल उठता है कि अगर वे सिर्फ़ डायर को मारने के मकसद से लंदन गए थे तो उन्होंने ये  करने के लिए छह साल लम्बा इंतज़ार क्यों किया? वे तो लंदन में 1934 से रह रहे थे!   

दरअसल उधम सिंह का डायर के अलावा बाकी अंग्रेजों पर गोली चलना एक संयोग मात्र नहीं था। उनकी गिरफ़्तारी के बाद पुलिस को उनके पास से दो डायरियां बरामद हुई जिनसे ये पता चला कि वे डायर के अलावा लार्ड जीटलैण्ड और लार्ड लेमिंगटन पर भी बराबर नज़र रखे हुए थे! उनका का इन सभी लोगों पर गोली चलना सिर्फ मौके को भुनाना भर नहीं था वरन एक सोची समझी योजना थी|

सभा में मौजूद जिन लोगों पर उधम सिंह ने गोलियाँ चलायीं थी वे सब भारत में ब्रिटिश शासन के उच्च अधिकारी रह चुके थे|  उधम सिंह ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रतिनिधियों पर हमला किया था| उनका ये कार्य मात्र एक घटना का बदला न हो कर ब्रिटिश शासन द्वारा भारत में किए गए असंख्य जुल्मों का उसी भाषा में राजनैतिक जवाब था| कैक्सटन हॉल में हुए इस कांड का ये पहलू उधम सिंह के अदालत में दिए निम्नलिखित वक्तव्य से साफ़ हो जाता है… 

“मैंने अपना विरोध जताने के लिए गोली चलाई थी…मैंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद  के दौरान भारत में लोगों को भूख से मरते हुए देखा है...भारत की सड़कों पर मशीनगनें हजारों छात्र-युवाओं को मार देती है.... मैं इस ब्रिटिश साम्राज्य से त्रस्त हूँ...मुझे ब्रिटिश लोगों से कोई रंजिश नहीं है। मेरे तो भारतीयों की अपेक्षा  अंग्रेज़ मित्र यहां ज्यादा हैं। मुझे इंग्लैंड के मज़दूरों से सहानुभूति है। मैं इस साम्राज्यवादी सरकार के ख़िलाफ़ हूँ...आप लोग तो स्वयं पीड़ित हैं, जो मज़दूर हैं...भारत में सिर्फ़ ग़ुलामी है। क़त्लेआम, लाशों के टुकड़े करना, तबाही फैलाना, यही ब्रिटिश साम्राज्यवाद है।“

उधम सिंह 31 जुलाई सन 1940 को फांसी दी गई|

उधम सिंह को अगर हम मात्र बदला लेने वाले व्यक्ति के तौर पर देखते रहेंगे तो वो  उनके साथ नाइंसाफी होगी। वो एक दलित परिवार से आते थे; इक्कीस साल के जीवन में उन्होंने अलग अलग देशों में मजदूरी की और श्रमिक आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता रहे| उनका साम्राज्यवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय ग़दर आंदोलन में एक अहम् योगदान था।

उधम सिंह का ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रतिनिधियों पर गोली चलाना उनके राजनीतिक-वैचारिक सोच का परिणाम था जो उनके ग़दर पार्टी की क्रांतिकारी राजनीति और वैश्विक कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ उनके गहरे और लंबे जुड़ाव का नतीजा था।   

(हर्षवर्धन एक शोधार्थी हैं)

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