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ईरान की इस संकटग्रस्त यात्रा के दौरान शाहनामा के साथ एक बार फिर से भेंट 

भारत के लोग ईरान के साथ सहानुभूति रखते हैं, क्योंकि इसका इतिहास भी उनकी तरह ही शानदार और अशांत रहा है।
Shahnama Revisited

ईरान के इन अशांत और मुश्किल भरे दिनों में उसके लोगों ने प्रेरणा के लिए अपने अतीत की ओर मुड़ कर देखा है। खुशनुमा दिनों की इन यादों की यह शुरुआत 11 वीं शताब्दी में ईरान के महानतम कवि फिरदौसी ने अपने प्रसिद्ध शाहनामा से शुरू की थी, जो विश्व साहित्य के महानतम राष्ट्रीय महाकाव्यों में से एक है। महाकाव्य में प्राचीन ईरान के नायकों और इतिहास का जश्न मनाया गया है और इस तथ्य को प्रतिबिंबित किया गया है कि ईरान की शास्त्रीय विरासत और इस्लाम मूल रूप से एक दूसरे से अपरिचित थे।

फिरदौसी विलाप सा करते हैं:

हे ईरान! वे सारे राजे-महाराजे अब कहाँ हैं

जिन्होंने तुझे सुशोभित किया था

न्याय, समानता और अपनी दरियादिली से /

जिन्होंने तुझे सजाया था कभी 

सजधज और भव्यता के साथ?

भारत की तरह ही ईरान का इतिहास भी किंवदंतियों और तथ्यों के साथ गुंथा हुआ है और इसकी जडें तीन सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक जाती हैं। फिरदौसी प्राचीन शक्तिशाली अचेमेनिद राजवंश का जश्न मनाते हैं, जिसके राजा साइरस, डेरियस और जेरेक्सेस ने अपने साम्राज्य को फारस (पर्सिया) से अफगानिस्तान, मध्य एशिया, दक्षिणपूर्वी भूमध्यसागरीय और अंत में ग्रीस तक को अपने घेरे के अन्दर तक में लाकर विस्तारित किया था। बदले में मकदूनिया के अलेक्सान्दर ने फारसियों को परास्त कर ग्रीक शासन को पूर्ववर्ती ईरानी सीमाओं तक विस्तारित कर लिया, जिसे सेलयूसिड साम्राज्य के रूप में जाना गया। ईरान की शास्त्रीय विरासत ग़ज़नवी और मंगोल आक्रमणों के समय भी बरकारार रही।

तस्मानियाई शासकों के तहत भी ईरान एक विश्व शक्ति के रूप में बना रहा, जिन्होंने क्टेसिफान को अपनी राजधानी बनाया था। इस उथल-पुथल के बीच में बगदाद के उमैयद खलीफा ने सन 655 ईस्वी में ईरान के शाह याजदेगेर्द तृतीय को परास्त कर दिया था। इसके बावजूद शास्त्रीय ईरानी संस्कृति को बुझा पाने में इस्लाम सक्षम नहीं हो पाया, बल्कि नए शासकों ने खुद को फ़ारसी तौर तरीकों में ढाल लिया और उसे अपनाने का ही काम किया, विशेष तौर पर शासन चलाने की कला के सम्बन्ध में।

लेकिन ईरान की शास्त्रीय विरासत और इस्लामी परंपराओं के बीच जो संघर्ष तब से शुरू हुआ वह आजतक जारी है। ढेर सारे राजवंशों ने अलग-अलग प्रभावों के साथ ईरान पर राज किया। लेकिन यह सफाविद वंश था, जिसके अधीन ईरान की प्रसिद्धि एक बार फिर से निखरकर दुनिया के सामने प्रकट हुई, विशेषकर 16 वीं शताब्दी में शाह अब्बास द ग्रेट के शासनकाल के दौरान। इस शानदार युग के बाद अफशरीद  और फिर क़ाज़र राजवंशों ने ईरान पर राज किया। उन्नीसवीं शताब्दी तक ईरान अराजकता, गरीबी और कमजोरी की गर्त में डूब चुका था।

राष्ट्रों के अपने अस्तित्व में भी कई घुमाव आते हैं, जब उनकी किस्मत का फैसला तय किया जाता है। ईरानी इतिहास में भी ऐसा ही एक गंभीर मोड़ 1908 में तब देखने को मिला, जब विलियम डार्सी की देख-रेख में एक ब्रितानी भूविज्ञानी जॉर्ज रेनॉल्ड्स ने तेल की खोज कर डाली। इस एंग्लो-अमेरिकन ऑयल कंपनी ने यूरोप को "तेल की विशाल लहरों" से सरोबार कर डाला और इसकी बिक्री के जरिये लाखों-लाख पाउंड स्टर्लिंग भेजने का प्रबंध किया।

अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस कुख्यात कंपनी ने काजर राजा को मयूर राजसिंहासन से पदच्युत करने के लिए सैन्य तख्तापलट की साजिश रची और उस पर कर्नल रेजा शाह को बिठा दिया। रेज़ा ने ईरान के आधुनिकीकरण के प्रयास शुरू किये और एक संविधान निर्मित करने की अनुमति प्रदान की। एंग्लो-अमेरिकन तेल के बैरन्स के लिए अगर कोई सबसे बुरी चीज हो सकती थी तो वह था एक आधुनिक ईरान का उभरकर सामने आना, नतीजे के तौर पर उन्होंने रेज़ा को अपदस्थ कर उसकी जगह उसके कमजोर और अक्षम बेटे को बिठा दिया, जिसने एंग्लो-अमेरिकन तेल हितों की जमकर तरफदारी की।

इस प्रकार से अकूत धनसंपदा की खोज का किसी देश में होना वहाँ के लोगों के कष्टों के अग्रदूत होने का सूचक भी हो सकता है, यह इतिहास की दुखद विसंगतियों में से एक कटु सच्चाई है। तटस्थ पश्चिमी पर्यवेक्षकों ने बड़े तेल शहर अबादान में ईरानी कामगारों के बेहद ख़राब हालातों में जीवन गुजारने कि कथा को दर्ज किया है। एक संप्रभु राज्य के नागरिकों को विदेशियों के हाथों अपने ही देश में भारी कष्ट और अन्याय सहने को मजबूर होना पड़ा।

1953 तक पश्चिम एशिया तेल समृद्ध अरब राष्ट्रों का एक समूह बन चुका था जो पश्चिम के हितों की देखभाल में लगा था। लेकिन मिस्र के गमाल अब्देल नासर के उदय ने और इराकी किंग फैसल की हत्या ने पश्चिम को गहरी चिंता में डाल दिया था।

ईरान के इतिहास में एक और मोड़ तब देखने को मिला जब लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित होकर मोहम्मद मोसादेग देश के प्रधानमंत्री बनाये गए। विदेशी लूट-खसोट से गुस्से में पागल होकर उन्होंने ईरानी लोगों की कीमत पर की जानी वाली ब्रिटिश और अमेरिकी लूट को रोकने की कार्यवाही शुरू कर दी थी।

राष्ट्रपति ट्रूमैन ने मोसादेग का समर्थन किया; क्योंकि वे तर्कशक्ति और प्रगति की आवाज के बतौर उभर कर सामने आये थे, जिसका इरादा लोकतांत्रिक संस्थानों और प्रथाओं को मजबूत करने का था और जो आधुनिकता के साथ इस्लाम को समाहित करा सकने की क्षमता रखते थे। ट्रूमैन ने उस विघटन का पूर्वाभास कर लिया था जो मोसादेग के खिलाफ तख्तापलट करने वाला था, और अपने यहाँ के हमवतनों को एक भविष्यदर्शी के रूप में चेतावनी दी थी: "ईरान संकट के साथ गलत तौर पर निपटने का परिणाम स्वतन्त्र विश्व के लिए एक आपदा के रूप में होने वाला सिद्ध होगा।"

उस समय ईरान एक चौराहे पर खड़ा था;  जहाँ से वह एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में आगे बढ़ सकता था, या गरीबी और उत्पीड़न के गर्त में एक बार फिर से खुद को डूब सकता था। लेकिन अंधकारमय किस्मत घात लगाये उसके इंतजार में थी।

राष्ट्रपति आइजनहावर ने मोसादेग को पदच्युत कराने को मंजूरी दे दी। 1953 में ऑपरेशन अजाक्स नामक एंग्लो-अमेरिकन तख्तापलट के माध्यम से एक वैध और बेहद देशभक्त ईरानी प्रधान मंत्री को उखाड़ फेंका गया, क्योंकि मोसादेग ने ईरान की धन-सम्पदा के निर्मम शोषण के समर्थन से इनकार कर दिया था - जैसा कि बीस साल बाद चिली के सल्वाडोर अलेंदे को भी ठीक इन्हीं कारणों के चलते अपदस्थ कर दिया गया था।

सत्तर के दशक के शुरुआती दिनों में तेल में आई तेजी ने अरब के ताकतवर तबकों को और धनाड्य बनाने में भूमिका निभाई जो पश्चिमी संरक्षकों के द्वारा समर्थित थे। इस बीच पगलाए से शाह ने जिसने अपने पिता को अपदस्थ होते देखा था और अपने लिए वह ऐसा हश्र नहीं चाहता था, ने अपने ही देश के लोगों की कीमत पर पश्चिमी तेल हितों के साथ समझौतावादी रुख अपनाने में ही अपनी भलाई समझी। बदले में उसे मजबूत अमेरिकी समर्थन प्राप्त होने लगा। उसने और उसके परिवार के सदस्यों ने अकूत धन-संपत्ति बटोरी और शानदार विलासितापूर्ण जीवन भोगने लगे। सत्ताधारी ईरानी कुलीन वर्ग भी इस दौरान खूब फला-फूला। जबकि दूसरी ओर अधिकांश ईरानियों के भाग्य में गरीबी ही लिखी थी, अल्प शिक्षा और पहले से कम अवसरों के चलते उनके पास खुद को इस भयानक कष्टों से बाहर निकालने के मौके बेहद कम मौजूद थे।

इस बीच शाह की तानाशाही को अपना समर्थन देकर संयुक्त राज्य अमेरिका ने उदारवादी ईरानी समूह से खुद को अलग-थलग कर लिया था, जिन्हें आशा थी कि ईरान के आधुनिकीकरण में वह उनकी मदद करेगा। इस अलगाव ने सत्तर के शुरुआती दशक में अमेरिकी नागरिकों और प्रतिष्ठानों पर हमलों को उकसाने का काम किया। तब तक अमेरिका, शाह के उत्पीड़न, आर्थिक विषमताओं और सामाजिक अन्याय का पर्याय बन चुका था। लोगों को इस बात का अफ़सोस होता था कि एक ऐसा देश जिसके पास अपनी समृद्ध बौद्धिक विरासत थी, आज एक पुलस राज में तब्दील हो चुका था, जहाँ पर शाह के खिलाफ विरोध की एक फुसफुसाहट ही जेलों में ठूंस दिए जाने या रहस्यमयी ढंग से गायब हो जाने के लिए काफी थी।

असंतुष्ट आबादी को उसकी आजादी के हनन और कठोर कानूनों के जरिये नियंत्रित किया जा रहा था। पीपल्स मुजाहिदीन ऑफ़ ईरान, तुदेह कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टियों जैसे राजनैतिक दलों पर कड़ी निगरानी रखी जा रही थी। उनके सदस्यों द्वारा किसी भी प्रकार के उल्लंघन, चाहे उसे गलत तरीके से ही क्यों न समझा गया हो, बिना किसी मुकदमे के उन्हें जेलों में ठूंसने के लिए काफी था, या बिना किसी जवाबदेही के उनके गायब कर दिए जाने में इसका अंत होने लगा था।

अतीत पुरुषों और राष्ट्रों दोनों पर ही अपनी लंबी छाया डालने का काम करता रहा है, लेकिन ईरान का अतीत वर्तमान को युगांतरकारी परिवर्तनों के साथ पकड़ने वाला साबित हुआ।

विद्रोह की आग अक्टूबर 1977 में भडकी, जब निर्वासित धर्मगुरु अयातुल्ला खुमैनी के बेटे मुस्तफा की मौत हो गई। इस मौत के लिए खूंखार ख़ुफ़िया पुलिस सावक को दोषी ठहराया गया था। जब व्यापक पैमाने पर प्रदर्शन फूट पड़े तो भीड़ को तितर-बितर करने के लिए सावक ने गोला बारूद का सहारा लिया। उदारवादी नेताओं और प्रदर्शनकारियों की आगामी मौतें भी सावक और निर्मम मिलिशिया के नाम ही मढ़ दी गई थीं। ऐसा अनुमान लगाया गया था कि पाशविक बल प्रदर्शन के आगे विरोध प्रदर्शन ठन्डे पड़ जायेंगे। लेकिन इसने आबादी को और आग-बबूला करने का ही काम किया।

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चित्र मात्र प्रतिनिधित्वीय उपयोग के लिए। चित्र सौजन्य: एफटी

विरोध के सुर शहरी शिक्षित मध्यम वर्ग की ओर से आने लगे थे, जिन्हें आम लोगों की ओर से समर्थन मिल रहा था, जो चाहते थे कि 1906 के संविधान के ढांचे के अनुरूप आधुनिक शासन को चलाया जाये। इस्लामिक पादरी या उलेमा,  जिनका शाह ने दमन कर रखा था, वे न तो अपने उद्येश्यों को लेकर एकमत थे और न ही उनका कोई गठबंधन बन सका था। कभी वे इस्लामवादियों के साथ, तो कभी उदारवादियों और कभी-कभी तो प्रतिबंधित तुदेह पार्टी के मार्क्सवादियों के साथ भी घुल-मिल जाते थे।

कई लोगों का ऐसा मानना था कि विरोध प्रदर्शन एक प्रकार से अलग थलग गुस्सों का ही इजहार मात्र है और इन तरीकों से शाह को अपदस्थ नहीं किया जा सकता। शाह के पास 4,00,000 लोगों कि आधुनिक सेना मौजूद थी, और उसे अमेरिकी सेना का वरदहस्त भी प्राप्त था। ऐसे में सफल क्रांति को घटित करने के लिए शासकीय सेना की निश्चित हार, सेना और पुलिस बल में विद्रोह की झलक, किसान और सर्वहारा की ओर से विद्रोह, और एक वित्तीय संकट जैसे आवश्यक तत्व गायब थे।

इन सबके बावजूद शाह के खिलाफ अन्दर ही अंदर आक्रोश बुलबुला बनना शुरू हो चुका था। आगामी महीनों में विद्रोह का मूड तीव्र हो चुका था। सड़कों पर विरोध प्रदर्शनों की संख्या बढ़ चुकी थी, गर्मजोशी और गुप्त बैठकों में असंतोष के स्वर फ़ैल चुके थे। सभी लोग एकमत से शासकों और शासितों के बीच बढती असमानताओं पर क्रुद्ध थे। वे इस बात को लेकर नाराज थे कि 1970 के दशक में तेल में आये उछाल का फायदा आम लोगों को मिलने के बजाय शासकों को ही मिला। आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतों के कारण मुद्रास्फीति में गंभीर इजाफ़ा हो चुका था और लोगों की क्रय शक्ति में गिरावट के चलते ईरानी और अधिक गरीब हो चले थे।

ईरानियों को आशा थी कि इस आन्दोलन का नेत्रत्व उदारवादी और समाजवादियों के हाथ में होगा जो समान अधिकारों, अवसरों और आय में समानता और देश को पश्चिमी शैली वाली क्रांति में ले जाने में सहायक सिद्ध होंगे। लेकिन विद्रोह के लिए विचारधारा धार्मिक नेताओं द्वारा प्रदान की गई थी जिन्होंने शाह को पश्चिमी देशों की कठपुतली होने और ईरान की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं को कमतर करने के लिए जिम्मेदार ठहराया था। ईरानियों को जहाँ कड़े प्रतिबंधों के मसल कर रख दिया गया था, वहीँ पश्चिमी लोगों ने अपने विशेषाधिकारों का आनंद उठाया, जिसकी ईरानी जनता को मनाही थी। शाह की मूर्खताओं में से एक मूर्खता यह थी कि उसने भ्रष्ट रस्ताखिज पार्टी के रूप में एकदलीय राजनीतिक एकाधिकार बनाकर खुद को ईरान के व्यवसायिक वर्गों से अलग-थलग कर लिया था।

जनवरी 1978 में विद्रोह के अशुभ संकेत कम्युनिस्टों और समाजवादियों द्वारा कारखानों में आयोजित की जाने वाली हडतालें, और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन के रूप में नजर आने लगी थीं। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए अपनाये जाने वाले प्लेक्सीग्लास ढालों, वाटर-कैनन और और आंसू गैस जैसे सामान्य पुलिसिया तौर-तरीकों के बजाय पुलिस ने गोला बारूद का ईस्तेमाल किया और सैकड़ों प्रदर्शनकारियों को मौत के घाट उतार डाला। इस आतंक के शासन ने लोगों को और अधिक गुस्से में ला खड़ा कर दिया। लाड़-प्यार से पाली पोसी गई पुलिस बल और मिलिशिया को कानून और व्यवस्था बनाए रखने या राष्ट्र की रक्षा के लिए तो कभी प्रशिक्षित किया ही नहीं गया था। उनका तो एकमात्र उद्देश्य था, शक्ति प्रदर्शन के जरिये किसी भी तरह शाह के एकछत्र राज्य को कायम रखने की जिम्मेदारी का पालन करते रहने का।

हालाँकि उलेमाओं का प्रभाव बढ़ता जा रहा था, लेकिन बुद्धिजीवियों को यकीन था कि मौलवियों की भूमिका कुछ ख़ास नहीं होने जा रही है, क्योंकि उन्हें न तो आधुनिक शासन चलाने का कोई अनुभव था और ना ही आर्थिक सुधारों और सामाजिक सुधारों को लेकर उनका कोई ठोस विचार देखने को मिला था। शिक्षित ईरानियों ने इस्लामवादी मौलानाओं की खिल्ली उड़ाई, उन्हें तो अपने जोरोस्ट्रियन (पारसी) अतीत, अपने अचमेनिद और सफाविद शासकों पर गर्व था, जिन्होंने महान सभ्यताओं के फलने फूलने का मौका दिया था।

जैसा कि फ्रांसीसी राजनीतिक दार्शनिक एलेक्सिस डी टोकेविले ने अपने विचार रखे हैं: "... जब ऐसे लोगों को जिन्हें लम्बे समय से दमनात्मक शासन के तहत जीने पर मजबूर रखा जाता है, जहाँ पर विरोध की कोई गुंजाईश मौजूद न हो, अचानक से अगर वह यह पाती है कि सरकार ने अपने दबाव को कम कर दिया है तो वे उसके खिलाफ हथियार उठा लेते हैं।"

जो गुस्सा अन्दर ही अंदर सुलग रहा था वह 1978 के अंत में बड़े पैमाने पर जन आंदोलन के रूप में फूट पड़ा। लेकिन विपक्ष का नेतृत्व मौलानाओं के हाथों में जा चुका था। पहले पहल तो यह सोचना ही उटपटांग लग रहा था कि एक मध्ययुगीन मौलवी किस प्रकार से एक आधुनिक राष्ट्र पर शासन करने की कोशिश करेगा। लेकिन बीसवीं शताब्दी में धर्मतंत्र की विचित्र परिघटना, पवित्र शहर क़ोम के मुस्लिम धर्मगुरु अयातुल्ला रूहुल्लाह खुमैनी के माध्यम से संभव हो सकी।

1963 में खुमैनी ने शाह की प्रस्तावित श्वेत क्रांति के खिलाफ आंदोलन संगठित किया था। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था कि उस समय शाह वास्तव में ईरान का आधुनिकीकरण करना चाह रहा था। उसका इरादा सामाजिक और भूमि सुधारों को लागू करने का था, और वह मुस्लिम मौलानाओं की ताकत को कम करना चाहता था, जैसा कि नेपोलियन ने कैथोलिक चर्च की ताकत को कम करके किया था। इस डर से कि कहीं इन सुधारों के माध्यम से उलेमा की शक्ति ही न कम जो जाये, खुमैनी ने घोषणा की कि शाह ने ईरान में इस्लाम के खात्मे की शुरुआत कर दी है। दंगे होने शुरू हो गए, और खुमैनी को गिरफ्तार कर लिया गया और 1964 में निर्वासित कर दिया गया। फ्रांस के निपुले-ले-चेटो की सुरक्षा में रहते हुए, खुमैनी ने खुद की शहादत के लिए तैयार रहने की घोषणा कर दी पूँजीवाद को, कम्युनिस्टों, पश्चिमी आदतों और रिवाजों और आर्थिक और सामाजिक प्रगति के आधुनिक विचारों के खिलाफ जमकर आलोचना करने की शुरुआत कर दी।

इसी बीच असंतोष बढ़ता चला गया। प्रदर्शनों और विरोधों के 1978 में और तेज होने के चलते पुलिस की ओर से हिंसात्मक कार्यवाही हुई। शाह के शासन की खिलाफत में अब आबादी के सभी वर्ग एकजुट हो चुके थे। अक्टूबर 1978 में ईरानी शहरों में हुए एक आम हड़ताल और विशाल विरोध प्रदर्शन ने देश की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर डालने का काम किया था। उलेमाओं ने खुद को संगठित किया। इस हकीकत को जानते हुए भी कि उन्हें एक शातिर मिलिशिया द्वारा बुरी तरह कुचल दिया जा सकता है, लाखों की संख्या में सड़कों पर उतरकर ईरानियों ने विरोध प्रदर्शनों में खुलकर भागेदारी की। हालाँकि नए प्रधान मंत्री जफ़र शरीफ-इमामी ने कुछ छूट देने की कोशिश की थी, लेकिन ईरान अब कठोरता से क्रांति की ओर कूच कर चुका था।

आसन्न परिवर्तन को देखने में असमर्थ, अमेरिकी सुरक्षा सलाहकार ज़बीग्निएव ब्रेज्ज़ेन्सकी ने नवंबर 1978 में शाह को आश्वस्त किया कि अमेरिका उसके शासन को बरक़रार रखेगा।

क्रांति की आहट को भांपते हुए अवसरवादी ईरानी सेना और सावक ने इसे छिपे तौर पर मदद पहुँचाने का काम किया। जब अमेरिकी राजदूत विलियम सुलिवन ने सेना के हाथों में बागडोर ले लेने का सुझाव दिया तो उसे फटकार लगाई गई और कहा गया कि अगर ईरान के मामले में अमेरिकियों ने इस समय हस्तक्षेप करने की पहल की तो वहाँ पर रह रहे अमेरिकी खतरे में पड़ जाएंगे। शाह के शासन के खिलाफ देशव्यापी विरोध को देखते हुए, उसके सबसे कट्टर सहयोगी मित्र संयुक्त राज्य अमेरिका ने शाह से साफ़ कह दिया कि उसे अब जाना ही होगा। कैंसर से मरते, हताश शाह और उसके परिवार ने जनवरी 1979 में ईरान से अपनी विदाई ले ली।

तेहरान जैसे किसी उत्सव की उमंग में ख़ुशी से झूम उठा था। लोग सड़कों पर झण्डे लेकर निकल पड़े जिसमें घोषणा की गई थी कि अंधे युग की समाप्ति हो चुकी है।

ऐसे में 1 फरवरी 1979 के दिन अयातुल्ला खुमैनी का इतिहास में प्रवेश होता है। अपने फ्रांसीसी निर्वासन को त्याग वह एक चार्टर्ड एयर फ्रांस की उड़ान से तेहरान पहुचंते हैं। एक उफनती हुई भीड़ ने अयातुल्ला खुमैनी का करतल ध्वनि के साथ स्वागत किया, उनके प्रति अपनी वफादारी और सम्मान का इजहार करते हुए।

सत्ता के प्रति अपने तिरस्कार भाव का प्रदर्शन करने के लिए खोमैनी ने किसी भी पद पर आसीन होने से इनकार कर दिया, लेकिन साथ ही शाह के शासन की हर विशेषताओं को भी तेजी से नष्ट कर डाला। विपक्षी दल के प्रमुख सदस्य होने के नाते उन्होंने मेहदी बाजारगन को फिर से प्रधान मंत्री पद पर नियुक्त किया। जल्द ही खुमैनी ने अपने एजेंडा का खुलासा इस कड़ी चेतावनी को जारी करते हुए किया कि अब शरिया पर आधारित सरकार कायम होगी: “इस सरकार का विरोध करने का मतलब होगा, इस्लाम की शरीयत का विरोध करना। ईश्वर की सरकार के खिलाफ विद्रोह का मतलब है ईश्वर के खिलाफ विद्रोह। और ईश्वर के खिलाफ विद्रोह ईशनिन्दा है। ”

10 फरवरी 1979 तक एंहअलाबी इस्लामी शासन ईरान में कायम हो चुका था।

हालांकि पिछले एक शताब्दी से ईरान में एंग्लो-अमेरिकी शोषण के खिलाफ एक सार्वभौमिक गुस्सा मौजूद था, लेकिन आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए उदारवादी और पेशेवर लोग संगठित न हो सके। धर्मनिरपेक्ष ताकतों की विफलता ने अयातुल्ला के धार्मिकतंत्र के शासन को लाने का काम किया, जिसने ईरान को बदल कर रख दिया और इस्लाम के पुनरुत्थान की शुरुआत की।

ईरान के ये नए शासक पश्चिम-विरोधी थे और इन्होने अमेरिका के साथ अपने सैन्य गठबंधन को खत्म कर दिया था। वामपंथी सरकार की स्थापना की संभावना को देखते हुए सोवियत संघ ने नई सरकार के लिए पटकथा लिखने का काम किया। इस प्रकार के किसी भी भ्रम को इस्लामिक रिपब्लिक ने उदारवादियों, समाजवादियों और अल्पसंख्यकों के प्रति अपनी कठोरता से कुछ ही समय बाद चकनाचूर कर दिया। जिस ईरान ने कई सहस्राब्दियों तक गणित, विज्ञान, वास्तुकला और साहित्य में अपना योगदान दिया था और जिन्होंने विभिन्न संस्कृतियों को अपने भीतर आत्मसात किया था, उस उदारवादी ईरानी जनता पर मध्ययुगीन विचारधारा को थोप दिया गया था।

ईरान में क्रांति एक द्वंद्वात्मक परिघटना के रूप में प्रतीत हो रही थी - शाह द्वारा पश्चिम की अधीनता के प्रतिक्रियास्वरूप एक सफाई प्रक्रिया की शुरुआत। जहाँ अमेरिका को अपने तेल और एक ग्राहक देश के खोने का डर सता रहा था, वहीँ रूस को इस्लामी क्रांति के व्यापक निहितार्थ दिखाई पड़ने लगे थे, कि इसने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को चुनौती देनी शुरू कर दी थी और सीमा पार धार्मिक बुखार को उकसाना शुरू कर दिया था।

एक बार फिर से ईरान इतिहास के चौराहे पर खड़ा नजर आ रहा था। यदि धार्मिकतन्त्र ने सामाजिक-आर्थिक प्रगति को बढ़ावा दिया होता, तो घटनाएँ कहीं भिन्न होतीं। लेकिन इस्लामी कट्टरवाद की अपनी ही अलग आचार संहिता और मूल्य थे। धर्म पर जोर दिए जाने को पुनर्जीवित किया गया था। जिस सामाजिक और बौद्धिक स्वतंत्रता के लिए हजारों लोगों ने विरोध प्रदर्शनों और धरना-प्रदर्शनों के दौरान अपनी जानें कुर्बान की थीं, वे बेनतीजा साबित हुईं।

ईसाई धर्मोपदेशकों की तरह ही मुस्लिम मौलवियों में भी धार्मिक विचारों को अपनी सीमाओं से पार फैलाने की चाहत थी। मुल्लाओं ने भी एक समय के धर्मनिरपेक्ष अफगानिस्तान में इस्लामी कट्टरवाद को उकसाने की और समाजवादी सरकार को अपदस्थ करने में कोई मामूली भूमिका नहीं निभाई। विरोधाभासी तौर पर ईरान और अमेरिका का इस मामले में एक समान उद्देश्य था;  उलेमाओं ने जिन्होंने समाजवाद और अमेरिका की खिल्ली बराबर उड़ाई थी, वे रूस समर्थक सरकार को कमज़ोर होते देखना चाहते थे। तथाकथित मुजाहिदीन के संरक्षक ईरान और अमेरिका दोनों ही थे।

एक लचीले ईरान को दंडित करने और उसकी ताकत को कमजोर करने के लिए अमेरिका ने इराक को आठ साल के भयंकर युद्ध में भरपूर मदद पहुँचाई, जिसने दोनों देशों को बर्बाद कर डाला। लेकिन जैसे ही राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने अपनी स्वतंत्र भूमिका का प्रदर्शन करना शुरू किया- बुश-ब्लेयर की जोड़ी ने इराक पर धावा बोल दिया और उसे पूरी तरह से तबाह कर डाला, इसके बावजूद कि संयुक्त राष्ट्र ने इस कदम का विरोध किया था और लाखों की संख्या में अमेरिकी, ब्रिटिश, फ्रेंच और जर्मन इस कदम के खिलाफ सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे।

यहाँ तक कि इस घटना को सत्रह साल बीत चुके हैं, लेकिन इसके बाद भी इराक से सामूहिक विनाश का कोई हथियार नहीं मिल सका है। लेकिन उसका तेल तो अभी भी बह रहा है। बुश और ब्लेयर इराक में लोकतंत्र तो नहीं ला सके, अलबत्ता उन्होंने एक स्थिर धर्मनिरपेक्ष इराक को अवश्य ही एक युद्ध-ग्रस्त राज्य में बदलने का काम किया है, जहां सद्दाम हुसैन की सेना के उग्र अवशेषों ने आईएसआईएस का गठन कर डाला है। और कब्जे वाली एक सेना इराक में मौजूद है।

शायद यह वह परिदृश्य था जिसने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को रूस, ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी और चीन के साथ मिलकर ईरान परमाणु समझौते की रूपरेखा तैयार करके ईरान के साथ संबंधों के और बिगड़ने से रोकने की पहल को प्रेरित करने का काम किया। ये देश ईरान से प्रतिबंधों को हटाने को उत्सुक थे ताकि ईरान एक स्थिर राज्य बन सके और संभावित खतरनाक दुश्मन न बन जाये। इन राष्ट्रों के नेताओं को इस बात का एहसास था कि परमाणु हथियारों से लैस कई युद्धरत गुटों के साथ पश्चिम एशिया एक अशांत क्षेत्र है, और कोई एक प्रकरण न केवल पश्चिम एशिया को खतरे में डाल सकता है, बल्कि दुनिया के लिए विनाशकारी परिणामों के साथ अपनी सीमाओं से परे भी जा सकता है।

अमेरिका के नवनियुक्त राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बिना बाकी के हस्ताक्षरकर्ताओं की सहमति या स्वीकृति के ईरान के साथ हुए उस समझौते को रद्द कर डाला। उत्तर कोरिया के रॉकेट मैन के साथ आंखमिचौनी खेलते हुए उसने ईरान के खिलाफ दंडात्मक उपाय अपनाने शुरू कर दिए। ईरान पर कई प्रतिबंध लगाए गए, जिसका उसके नागरिकों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इस बीच प्राचीन सभ्यताओं की विरासत के होने और अपने शक्तिशाली चरित्र के बूते ईरान पश्चिम एशिया पर अपना प्रभाव बढाने में सफल रहा है।

जैसे ही ईरान का प्रभाव क्षेत्र में बढ़ने लगा, ट्रम्प ने ईरान के नायक और ईरानी रिवोल्यूशनरी गार्ड के कमांडर मेजर जनरल कासेम सोलेमानी की हत्या का आदेश दे डाला। यह आईआरजी के दिल में तीर मारने जैसा था। जनरल सोलेमानी और उनकी सेना ने इराक और सीरिया में इस्लामिक राज्य को खत्म कर दिया था। कई अमेरिकियों ने इस अन्यायपूर्ण हत्या की भर्त्सना की। अब ईरान की नियति पर जो गुस्से की बाढ़ आई हुई प्रतीत होती है, उसने लगता है तय किया हुआ है कि यह झटका उसके लिए पर्याप्त नहीं था। कुछ और की जरूरत थी। इसलिए यात्रियों को ले जा रहे एक यूक्रेनी नागरिक विमान को मार गिराकर एक विनाशकारी गलती कर दी गई है। शुरुआती दौर में जिसे छुपाने की कोशिश की गई, उसने ईरानियों को आगबबूला कर दिया है, परिणाम स्वरूप व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए हैं।

राष्ट्रपति ट्रम्प लपटों को हवा देने का काम कर रहे हैं और प्रदर्शनकारियों को अपने समर्थन की पेशकश की है। कई ईरानियों ने उन्हें अपने देश पर लगाए गए प्रतिबंधों की याद दिलाते हुए जवाब दिया है, जिसके चलते उन्हें तीव्र आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। जबकि कई अन्य ने जनरल सोलेमानी की तस्वीरों को फाड़ डाला है।

ईरान के भविष्य को लेकर भविष्यवाणी करना बेहद कठिन है, जो हाल-फिलहाल आर्थिक तनाव के साथ-साथ एक महाशक्ति से दुश्मनी का मुकाबला कर रहा है। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने अब विवाद सुलझाने वाले तंत्र की शुरुआत की है, जो स्थिति को और जटिल बना रहा है। इन सब का सामना करते हुए, अयातुल्ला खमेनी ने अपनी एक दुर्लभ सार्वजनिक उपस्थिति दर्ज कराई है, और शुक्रवार 17 जनवरी की अपनी प्रार्थना में कुछ परिवर्तनों की जरूरत को स्वीकार किया है, लेकिन साथ ही ईरानियों को यह भी सलाह दी है कि वे अपने देश के प्रति वफादार बने रहें।

महान सभ्यताओं के वारिसों में से एक भारतीयों को  ईरान से सहानुभूति है, जिसका इतिहास हमारे जैसा ही शानदार और अशांत रहा है। ईरानियों की शांति और समृद्धि की कामना करते हुए, सभी की यह आशा है कि यह महान राष्ट्र उपलब्धियों में आगे रहे और अतीत के प्रतिबंधात्मक बोझ तले दबकर पीछे की ओर न चला जाये।

शायद फिरदौसी इस बात से सहमत हों।

(लेखिका एक सेवानिवृत्त प्रशासनिक सेवाधिकारी रही हैं और अंतर्राष्ट्रीय इतिहास लेखन से जुड़ी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Shahnama Revisited: Iran’s Turbulent Journey to this Moment

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