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क्या हम बिहार के इन 16 ग़रीबों की ख़ुदकुशी पर भी बात करेंगे?  

लॉकडाउन की अवधि में गरीबी, बेरोज़गारी, आर्थिक संकट और दूसरे मानसिक दबाव की वजह से बिहार के 16 लोगों ने ख़ुदकुशी कर ली है। इनमें से ज्यादातर निम्न आय वर्ग के लोग थे। इन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस तरह के संकट से कैसे मुकाबला करें।
क्या हम बिहार के इन 16 ग़रीबों की ख़ुदकुशी पर भी बात करेंगे?   

जिस रोज़ फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत द्वारा ख़ुदकुशी किये जाने की दु:खद ख़बर आयी, उसी की बीती रात को बिहार की राजधानी पटना में एक ऑटो चालक ने भी ख़ुदकुशी कर ली। वह ढाई महीने लंबे चले लॉकडाउन में बेरोजगार और तंगहाल हो गया था। कोरोना और लॉकडाउन की वजह से उत्पन्न संकट में ख़ुदकुशी की यह इकलौती घटना नहीं है। इस दौरान बिहार के कम से कम 16 लोगों ने नाउम्मीद होकर जान दे दी है। यह सामान्य संख्या नहीं है। ऐसे में आज जब हम सुशांत सिंह की दुखद मृत्यु के बाद डिप्रेशन, बॉलीवुड में फैले नेपोटिज्म आदि मसलों पर लगातार बहस कर रहे हैं, जो ज़रूरी भी है। मगर इसके साथ ही क्या हमें इन 16 लोगों की मौत के कारणों को भी समझने की ज़रूरत नहीं हैक्या हमारी सरकारें इन मज़दूरों और ग़रीब लोगों के जीवन में बढ़ रही नाउम्मीदी पर विचार करेगी, इसका समाधान निकालने का प्रयास करेंगी?

यह अब सर्वविदित तथ्य है कि लगभग ढाई महीने चले लॉकडाउन ने देश के मज़दूरों और छोटे कामगार की कमर तोड़ दी है। उन्हें अब समझ नहीं आ रहा कि अपना जीवन फिर से कैसे शुरू करें। बिहार में लॉकडाउन के पहले चरण से ही ग़रीब कामगारों की ख़ुदकुशी का सिलसिला शुरू हो गया था। 10 अप्रैल, 2020 को लखीसराय के एक चाय दुकानदार ने ख़ुदकुशी कर ली, क्योंकि वह पिछले 14 दिनों से अपनी चाय की दुकान को खोल नहीं पाया था, जो उसकी आजीविका का इकलौता साधन था। वह तंगहाली में अपने परिवार को देख नहीं पाया।

ठीक एक हफ्ते बाद, 17 अप्रैल को एक दिहाड़ी मजदूर ने गुड़गांव में ख़ुदकुशी कर ली। वह दीवार पेंट करने का काम करता था। लॉकडाउन की वजह से बेरोजगार हो गया था। मोबाइल बेचकर उसने कुछ दिनों का राशन खरीदा, फिर वह नाउम्मीद होकर ख़ुदकुशी कर बैठा। 20 अप्रैल, 2020 को इसी तरह बिहार के डालमिया नगर में एक गोलगप्पा बेचने वाले ने फंदे पर झूलने की कोशिश की। हालांकि खुशकिस्मती से उसे बचा लिया गया और उसके सहृदय पड़ोसियों ने चंदा करके उसे 12 हजार रुपये दिये, ताकि वह तंगहाली का मुकाबला कर सके।

28 अप्रैल को पहली दफा बिहार में एक मध्यम वर्गीय नौकरी पेशा व्यक्ति ने ख़ुदकुशी कर ली। दानापुर में रहने वाला वह व्यक्ति एक प्राइवेट कंपनी में प्रोजेक्ट मैनेजर था। उसकी नौकरी छूट गयी थी। इस सदमे को वह झेल नहीं पाया। तीन मई, 2020 को वैशाली जिले के सराय के रहने वाले एक दंपति ने बेरोजगारी, आमदनी ठप होने और कर्ज बढ़ने की वजह से ख़ुदकुशी कर ली। उन्होंने एक ट्रक लोन लेकर खरीदा था, मगर लॉकडाउन की वजह से उनकी आमदनी बंद हो गयी थी। वे लोन चुका नहीं पा रहे थे।

हालांकि ख़ुदकुशी करने वालों में ज्यादातर लॉकडाउन की वजह से अचानक ग़रीब हुए लोग थे, मगर कई लोगों ने इस दौरान घर पहुंचने में नाउम्मीद होने की वजह से और कुछ लोगों ने बीमारी के भय से भी ख़ुदकुशी की। 11 मई को मुज़फ़्फ़रपुर के एक युवक ने मध्यप्रदेश के मंदसौर में इसलिए ख़ुदकुशी कर ली, क्योंकि वह चाह कर भी अपने घर नहीं लौट पा रहा था। इसी तरह 20 मई को बिहार के एक परिवार के चार लोगों ने ख़ुदकुशी कर ली, वे भी घर लौटना चाहते थे। राजधानी पटना में मेडिकल की तैयारी करने वाली एक छात्रा ने भी 17 मई को इसी वजह से ख़ुदकुशी कर ली, क्योंकि वह चाह कर भी घर नहीं जा पा रही थी।

20 मई, 2020 को वैशाली के एक क्वारंटीन सेंटर में एक व्यक्ति ने ख़ुदकुशी कर ली, उसे भय था कि उसे कोरोना हो गया है। मौत के बाद हुई उसकी जांच में उसका भय सही साबित हुआ। इसी तरह 25 मई को राजधानी पटना के सबसे बड़े अस्पताल पीएमसीएच के कोरोना आइसोलेशन वार्ड में एक मरीज ने ख़ुदकुशी कर ली। उसका कोरोना का सैंपल लिया गया था, तभी से वह परेशान था। उस वार्ड में उसकी काउंसिलिंग और निगरानी करने वाला भी कोई नहीं था। रोहतास में इसी दौरान एक प्रेमी युगल की ख़ुदकुशी की भी खबरें आयी हैं।

इस तरह लॉकडाउन की अवधि में गरीबी, बेरोज़गारी, आर्थिक संकट और दूसरे मानसिक दबाव की वजह से बिहार के 16 लोगों ने ख़ुदकुशी कर ली है। इनमें से ज्यादातर निम्न आय वर्ग के लोग थे। इन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इस तरह के संकट से कैसे मुकाबला करें।

दुःखद तथ्य यह है कि आसन्न चुनाव की तैयारियों में जुटी बिहार की सरकार भी इन लोगों की समस्या को लेकर बहुत गंभीर नहीं है। शनिवार की रात ख़ुदकुशी करने वाले ऑटोचालक के घर जाकर डीएम रवि कुमार ने 25 किलो चावल पहुंचा दिया और मान लिया कि सरकार का फ़र्ज़ पूरा हो गया है।

लॉकडाउन में बेरोजगार हुए लाखों लोगों के लिए बिहार सरकार के पास एक ही योजना है, मनरेगा। मगर मनरेगा के तहत सिर्फ ग्रामीण क्षेत्र में अकुशल मजदूरों को ही काम मिल सकता है। जो अर्ध कुशल या कुशल मजदूर हैं, छोटे पेशेवर या दुकानदार हैं। उन पर भी यह विपदा कम बड़ी नहीं है। प्राइवेट कंपनियों में हो रही छटनी से मध्यम वर्ग भी परेशानी में है। इन तमाम लोगों की बेरोजगारी का समाधान मनरेगा से नहीं हो सकता। मगर इनकी समस्या का समाधान तो दूर सरकार इन्हें मानसिक संबल देने के लिए भी कुछ नहीं कर रही।  

बिहार में भोजन का अधिकार अभियान से जुड़े रूपेश कहते हैं कि सरकार अभी समझ नहीं पा रही है, मगर यह संकट काफी बड़ा है। ज्यादातर छोटे कामगारों की पूंजी खत्म हो चुकी है, वे अब समझ नहीं पा रहे कि जिंदगी कहां से शुरू करें। उन्हें छोटी ही सही, मगर तत्काल कुछ पूंजी चाहिए। सरकार अगर सर्वे करवा कर इस दिशा में कुछ कर सके, तो उनके लिए मददगार होगा।

इसके अलावा गांव और शहर दोनों जगह गरिमापूर्ण पीडीएस सिस्टम लागू कराने की जरूरत है। ताकि इन लोगों को सिर्फ चावल नहीं, दूसरे अनाज भी उपलब्ध हो। यह सही वक्त है, शहरी रोज़गार गारंटी कानून को बनाकर लागू करने का। नहीं तो ये छोटे कामगार एक ऐसे ट्रैप में फंस जायेंगे, जिससे वे कभी उबर नहीं पायेंगे। हो सकता है, हर कोई ख़ुदकुशी न करे। मगर मानसिक तनाव तो उनके जीवन का हिस्सा बन ही जायेगा। रूपेश राज्य की ग़रीब आबादी के लिए अलग से साइकोलॉजिकल काउंसिलिगं की भी बात करते हैं। हालांकि वे कहते हैं कि सबसे जरूरी है सरकार की तरफ कोई ऐसा फ़ैसला किया जाना, जिससे हाल के दिनों में राज्य में ग़रीबों के लिए जो नाउम्मीदी का माहौल बना है, वह ठीक हो सके। उनमें फिर से जीना का हौसला और उम्मीद जाग सके। जो अभी दिखायी नहीं दे रहा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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