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शिरोमणि अकाली दल: क्या यह कभी गौरवशाली रहे अतीत पर पर्दा डालने का वक़्त है?

पार्टी को इस बरे में आत्ममंथन करने की जरूरत है, क्योंकि अकाली दल पर बादल परिवार की ‘तानाशाही’ जकड़ के चलते आगामी पंजाब चुनावों में उसे एक बार फिर से शर्मिंदगी का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा।
Shiromani Akali Dal

आम तौर पर सारे पंजाब वासियों और विशेष तौर पर सिखों की सबसे पुरानी पार्टी कही जाने वाली शिरोमणि अकाली दल (एसएडी), वर्तमान दौर में अपने राजनीतिक अस्तित्व के सबसे संकटग्रस्त दौर से गुजर रही है। पंजाब में राजनीति के कई जानकारों के विचार में हालाँकि पार्टी ने 1920 में अपनी स्थापना के बाद से कई उथल-पुथल के दौर देखे हैं, लेकिन मौजूदा समय में जिस प्रकार का संकट है वह अपने आप में अभूतपूर्व है।

मौजूदा पार्टी नेतृत्व (मुख्यतया बादल परिवार) के सामने एक गंभीर चुनौती आन पड़ी है, जिसके बारे में कई लोगों का मानना है कि फिलवक्त इस संकट से निपटने के लिए वे मजबूत स्थिति में नहीं दिखते हैं। अकाली दल का सांगठनिक ढांचा अपेक्षाकृत कमजोर हुआ है और उसकी नेतृत्व वैधता दांव पर लगी हुई है। यह घटनाक्रम पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं की नेतृत्व करने की क्षमता पर गंभीर सवाल खड़े करती है।

अकाली दल के साथ यह प्रकिया 2017 के पंजाब विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनावों, विधानसभा उप-चुनावों के साथ-साथ शहरी एवं अर्ध-शहरी नगर निकायों, समिति और ज़िला परिषद के चुनावों में उसके खराब प्रदर्शन के साथ शुरू हो चुकी थी, भले ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ इसका गठबंधन रहा हो।

अकाली दल के धूमिल प्रदर्शन ने इसके शीर्ष नेतृत्व के बदतर प्रबंधन कौशल की कलई खोलकर रख दी है। इसके साथ-साथ हाल के वर्षों में, संसद के भीतर तीन केंद्रीय कृषि कानूनों पर इसके समर्थन के चलते पार्टी की समस्याएं और भी अधिक बढ़ गई हैं।

पहले पहल, अकाली दल ने केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा होने के नाते इस विधेयक की वकालत की और समर्थन किया था। बाद में, नरेंद्र मोदी सरकार में इसकी एकमात्र प्रतिनिधि, हरसिमरत कौर बादल को इस्तीफ़ा देना पड़ा और किसानों के विरोध प्रदर्शनों के बढ़ते दबाव को देखते हुए पार्टी ने एनडीए से अपना समर्थन वापस ले लिया।

इस बात को याद किया जा सकता है कि अकाली दल जनसंघ और बाद में भाजपा के सबसे पुराने सहयोगियों में से एक रही है। लेकिन आज के दिन हालात एक ऐसे दौर में पहुँच गए हैं कि अन्य पारंपरिक दलों के नेताओं की तरह ही अब अकाली नेता भी किसानों एवं अन्य लोगों के गुस्से के डर से आगामी विधानसभा चुनावों में समर्थन हासिल करने के लिए ग्रामीण एवं अर्ध-शहरी इलाकों का दौरा करने से बचते दिख रहे हैं।

अकाली दल को गंभीर झटका तब लगा जब सुखदेव सिंह ढींढसा, मनजिंदर सिंह सिरसा, सेवा सिंह सेखवां, रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा सहित कई अन्य प्रमुख नेताओं ने या तो अपनी खुद की पार्टी बनाने या अन्य दलों में शामिल होने के लिए पार्टी छोड़ दी। नेताओं के इस तरह लगातार पलायन ने शीर्ष नेतृत्व के सामने मुसीबतों का अंबार खड़ा कर दिया है।

अकाली दल में वर्तमान संकट की शुरुआत को जानने के लिए 2007 से इसे देखा जा सकता है जब पार्टी के कई वरिष्ठ और टकसाली (लंबे समय से प्रमाणित) नेताओं की अनदेखी करते हुए पार्टी अध्यक्ष, सुखबीर सिंह बादल को उनके पिता प्रकाश सिंह बादल के द्वारा पार्टी नेतृत्व की कमान सौंप दी गई थी। इस घटनाक्रम ने रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा, रतन सिंह अजनाला (पूर्व लोकसभा सदस्यों), सुखबीर बादल के चचेरे भाई और बादल सरकार में तत्कालीन वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल और राज्यसभा सांसद सुखदेव सिंह ढींडसा जैसे कई पार्टी के दिग्गजों को नाराज कर दिया था।

इन नेताओं के पार्टी से नाता तोड़ने के बाद कई मध्य-क्रम के नेताओं के इस्तीफों का दौर शुरू हो गया। इनमें से अधिकाँश नेता हाल के दिनों में भाजपा में शामिल हो गए हैं। हालाँकि कुछ पुराने नेताओं ने सक्रिय राजनीतिक जीवन से सन्यास लेने के पीछे स्वास्थ्य एवं वृद्धावस्था का हवाला दिया है, लेकिन असल बात तो कुछ और ही थी। उनमें से अधिकांश को आने वाले दिनों में अकाली दल में कोई भविष्य नहीं दिख रहा था क्योंकि 2017 विधानसभा चुनावों और उसके बाद हुए कई चुनावों में लोगों ने पार्टी को बुरी तरह से खारिज कर दिया गया था। यह सिर्फ 15 सीटें ही जीत सकी थी और इसकी जगह आम आदमी पार्टी (आप) ने सदन में मुख्य विपक्षी पार्टी का स्थान ग्रहण कर लिया था।  

अकाली दल में इस निरंतर पतन और इसकी संरचना सभी स्तरों पर पूरी तरह से उजागर हो चुकी है। पार्टी के 100 वर्षों के इतिहास में यह बात भी अपनेआप में अभूतपूर्व है कि एक बेटे को उसके पिता के द्वारा ही पार्टी की कमान सौंपी गई हो।

कई वर्षों से बादल परिवार के द्वारा बड़े पैमाने पर उन नए लोगों को भर्ती करके पार्टी और सरकार पर अपनी पकड़ को मजबूत करने का काम किया गया है, जो शीर्ष नेतृत्व के प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा भाव रखते हैं। यह सब टकसाली नेतृत्व को हाशिये पर रखने के लिए किया गया था। युवा ब्रिगेड की कमान सुखबीर सिंह बादल के बहनोई बिक्रमजीत सिंह मजीठिया के हाथों सुपुर्द कर दी गई, जो खुद 2007 चुनावों के दौरान ही सक्रिय हुए थे। 

इस प्रक्रिया का नतीजा यह हुआ कि पार्टी के भीतर वरिष्ठ नेताओं सहित समझदार कार्यकर्ताओं को पूरी तरह से हाशिए पर डाल दिया गया, और उनकी जगह संदिग्ध साख रखने वाले लोगों ने ले ली। असल में देखें तो 2012 विधानसभा चुनावों में अकालियों की जीत ने नेतृत्व के संकट को टालने का ही काम किया, और जिसके परिणामस्वरूप नए नेतृत्त्व को उन चुनावों में जीत और पार्टी प्रबंधन दोनों ही मामलों में प्रबंधन कौशल का श्रेय दिया गया। उस जीत ने सरकारी मशीनरी और पार्टी के उपर बादलों के पूर्ण नियंत्रण की ओर उन्मुख किया, जिसके चलते अंततः पार्टी के भीतर कुछ ही हाथों में सत्ता का पूर्ण केन्द्रीयकरण हो गया, और पार्टी में भर्ती हुये नए रंगरूटों के द्वारा सभी स्तरों पर आतंक का विकेंद्रीकरण कर दिया गया। 

सादगी के स्थान पर गुंडागर्दी की एक नई संस्कृति ने पार्टी की मूल भावना को कुम्हला दिया। अकाली दल कभी सिद्धांतों पर चलने वाली पार्टी हुआ करती थी जिसका बलिदानों का गौरवशाली इतिहास रहा है। यह भारत के सबसे पुराने क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में से एक है जो 1920 में अस्तित्व में आ गई थी। पार्टी की मूल उत्पत्ति ही स्वतंत्रता-पूर्व भारत में दमनकारी एवं निरंकुश बर्तानवी शासन और इसी तरह की रियासतों के खिलाफ संघर्ष में हुई थी। 1975 में आपातकाल के दौरान इंदिरा गाँधी के दमनकारी शासनकाल के खिलाफ पार्टी का मोर्चा समकालीन दौर में अतुलनीय रहा है।

वर्तमान अकाली नेतृत्व लोगों के सामने किस प्रकार की छवि पेश कर रहा है?

10 वर्षों के अकाली दल के शासन (2007-2017) के परिणामस्वरूप किसानों की विनाशकारी स्थिति, बिगडती राजकीय अर्थव्यवस्था और बढ़ते कर्ज, बढ़ते ड्रग नेटवर्क, भ्रष्टाचार के स्तरों में लगातार वृद्धि, सर्वोच्च नयायालय में हरियाणा के खिलाफ सतलुज-यमुना लिंक मामले में मिली हार, गुंडागर्दी और कुछ स्थानीय अकाली नेताओं का अहंकार, राज्य परिवहन, शराब, रेत और बजरी माफिया पर एकछत्र राज, विभिन्न स्थानों पर गुरु ग्रंथ साहिब (सिखों की पवित्र पुस्तक) की बे-अदबी (अपमान) के रूप में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता ने वर्तमान दौर में अकाली दल की स्थिति को बद से बदतर बना डाला है।

आगामी विधान सभा चुनावों (20 फरवरी को) में अकाली दल के और भी हाशिये पर चले जाने के आसार साफ़-साफ़ नजर आ रहे हैं। पंजाब के आम लोगों का दृढ मत था और यकीन है कि शक्तिशाली बादल परिवार और उसके करीबी रिश्तेदार कथित तौर पर मादक पदार्थों की तस्करी, खनन और शराब माफिया, जन-विरोधी गतिविधियों, राजनीतिक प्रतिशोध इत्यादि में हाथ था। 2017 में लोकनीति द्वारा किये गये चुनावोपरांत सर्वेक्षण में भी यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो गई थी। यह पहली बार था कि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर प्रकाश सिंह बादल की लोकप्रियता 1997 के बाद से सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई थी। 

दमनकारी शासन के खिलाफ आम लोगों के मूक विद्रोह की वजह से एक दशक तक सत्ता में बने रहने के बाद अकालियों को जबर्दस्त सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा था। यह सत्तारूढ़ बादल कुल और उन लोगों के खिलाफ एक निजी दुश्मनी की लहर थी, जो हर स्तर पर गुंडागर्दी में शामिल थे। उन्हें ऐसे धूर्त तिकड़मबाज राजनीतिज्ञों के तौर पर देखा जाने लगा जिन्होंने अपने तुच्छ निजी स्वार्थों के लिए समूची राजनीतिक प्रक्रिया को अपहृत कर लिया था।   

आम लोगों के बीच में यह धारणा घर कर गई थी कि शिरोमणि अकाली दल ने कार्यकाल की लूट को साझा करने के लिए करीबियों और विस्तारित परिवार के लोगों और मित्रों के एक निजी क्लब में तब्दील कर दिया है। संभवतः यही वजह थी जिसके चलते बादलों और वरिष्ठ अकाली नेताओं पर पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान कई दफा शारीरिक हमले भी हुए। 

सबसे चौंका देने वाला उदाहरण उनके अपने खुद के निर्वाचन क्षेत्र लाम्बी थाट में मुख्यमंत्री जूते से हमला था, जिसमें कुछ रिपोर्टों के मुताबिक उनका चश्मा टूट गया था। इसी तरह उनके बेटे और तत्कालीन उप—मुख्यमंत्री (सुखबीर) के लाव-लश्कर पर उनके विधानसभा क्षेत्र में पथराव की घटना हुई थी।

एक अन्य घटना में, अकाली दल के एक वरिष्ठ नेता और तत्कालीन सांसद की पगड़ी निकाल दी गई थी, और तख़्त दमदमा साहिब के बाहर एक मंत्री और उनके बेटे का एक भौंडे शोरगुल में घेराव किया गया था जहाँ से उन्हें पुलिस के द्वारा बचाया गया था। ये सभी चीजें पार्टी के भविष्य के शुरूआती संकेत थे।

अकालियों, जिन्होंने हमेशा से अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के मकसद से सिख धर्म का बेहद चतुराई से इस्तेमाल किया है, वे भी भरोसा करने वालों की नजरों में गिर गये और उन्हें गुरु ग्रंथ साहिब को अपवित्र करने और अन्य घटनाओं जिनसे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है। सिखों के बीच में आम लोगों को लगता है कि अकाली नेतृत्व वाली सरकार बे—अदबी मुद्दे को संबोधित न करने के लिए जिम्मेदार थी और सिख धर्म की भावनाओं का आदर करने में विफल रही है। इस वजह से, पंजाब के लोगों के बीच में अकालियों ने अपना धार्मिक आधार खो दिया है।

बेअदबी का मुद्दा कांग्रेस के काम आया, जिसने इसका इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए अकाली नेतृत्व को और भी अधिक हतोत्साहित करने के लिए किया। बाद में, विधानसभा के विशेष सत्र के दौरान बेअदबी के मुद्दे पर अकाली विधायकों का न्यायाधीश रंजीत सिंह की रिपोर्ट पर चर्चा से भाग खड़े होना, सदन की कार्यवाही तक का सामना न कर पाने की स्थिति ने सार्वजनिक तौर पर इसके नेतृत्व की कमजोरी को उघाड़कर रख दिया था।

अकाली दल के शीर्ष नेतृत्व के द्वारा एक के बाद भारी भूल की जाती रही। सबसे पहले, इसने ग्रंथी को सिरसा के डेरा सच्चा सौदा प्रमुख को क्षमादान देने के लिए मजबूर किया, और बाद में आम लोगों के आक्रोश को देखते हुए अपने फैसले को रद्द कर दिया, जिसके चलते पार्टी और इसके नेतृत्व की छवि को बट्टा लगा, जिनकी आलोचना ऐसे अहम धार्मिक मुद्दों से निपटने के लिए की गई थी।

इन घटनाओं ने दिखा दिया कि अकाली नेतृत्व के द्वारा न सिर्फ अपरिपक्वता का परिचय दिया गया, बल्कि इसमें गुरुचरण सिंह तोहड़ा, जगदेव सिंह तलवंडी, लोंगोवाल आदि जैसे परिपक्व नेताओं के विचारशील सलाह का भी अभाव था।

लगता है मोदी ब्रांड वाली राजनीति के साथ अकालियों के गठबंधन ने भी हाल के दिनों में उनकी अलोकप्रियता में बढोत्तरी करने का काम किया है।

अकाली दल में मौजूदा संकट और इसके नेतृत्व के खिलाफ गुस्सा इसलिए भी गहरा गया है क्योंकि पिछले कई वर्षों से बादलों ने मनमाने तरीके से संगठन के भीतर लोकतांत्रिक प्रकिया को ताक पर रख दिया है। पार्टी और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के भीतर हर एक फैसले को नियंत्रित करके बादल परिवार ने पार्टी में किसी भी अन्य नेता के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है।

बादलों की तानाशाही के खिलाफ पार्टी के भीतर के लोगों में भारी गुस्सा बना हुआ है। भाजपा के साथ अकाली दल के घनिष्ठ संबंधों को देखते हुए अभी भी इसे संदेहा की नजरों से देखा जाता है। तीन कृषि कानूनों के मद्दे पर पार्टी के द्वारा मोदी सरकार से किनारा कर लेने के बाद भी इसे अपन खोई हुई राजनीतिक जमीन को वापस पाने में मदद नहीं मिल सकी है। धार्मिक बेअदबी, पवित्र ग्रंथ के पन्नों को फाड़ने आदि की विभिन्न घटनाओं के चलते इसने अपने मूल पंथिक (सामुदायिक नेतृत्व) के समर्थन आधार को भी खो दिया है। 

हालिया घटनाक्रम, जैसे कि बिक्रमजीत सिंह मजीठिया के खिलाफ मादक पदार्थों वाले मुद्दे से संबंधित मामला भी अकाली नेतृत्व के लिए शर्मिंदगी की स्थिति पैदा कर रहा है और कार्यकर्ताओं पर इसका मनोबल गिराने वाला प्रभाव पड़ रहा है।

कुलमिलाकर देखें तो पंजाब के मौजूदा हालात इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि आने वाले चुनावों में पार्टी को एक बार फिर से बड़ी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ सकता है। अकाली नेतृत्व को पार्टी के पतन पर आत्ममंथन करने की जरूरत है, जिसका गौरवशाली अतीत रहा है, और एक वो समय भी था जब इसके द्वारा भारत में सभी क्षेत्रीय दलों का नेतृत्त्व कर राज्यों को अधिक स्वायत्तता सुनिश्चित करने, केंद्र-राज्य संबंधों के पुनर्गठन और भारत में लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को मजबूत करने में अग्रणी भूमिका हुआ करती थी।

लेखक गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर (पंजाब) के राजनीति विज्ञान के पूर्व प्रोफेसर रहे हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Shiromani Akali Dal: Is it Curtains Down on a Once Glorious Past ?

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