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स्मृति विशेष : शैलेंद्र के गीत ज़िंदगी को हौसला देते हैं; अपनी रचना में वंचितों को जगह दी

उनके गीत आवाम के हक़ की बात से लेकर व्यवस्था के प्रति ग़ुस्सा और ज़िंदगी जीने का हुनर सिखाते हैं।
Shailendra
फोटो साभार : दैनिक भास्‍कर

"तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!”

जीवन को हौसला देता ये गीत आधुनिक युग के कबीर कहे जाने वाले गीतकार शैलेंद्र का है। आज ही की तारीख़ 30 अगस्त, 1923 को रावलपिंडी में जन्मे शंकर दास केसरी लाल यानी शैलेंद्र महज़ 43 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए। हालांकि उनकी मौत के इतने साल बाद भी उनके गाने लोगों के दिलों में बसते हैं। उनके गीत सिर्फ फिल्मी दुनिया तक सीमित नहीं थे, बल्कि वो आवाम के हक की बात करते हैं, जुल्म से लड़ने की बात करते हैं, व्यवस्था के प्रति गुस्सा दिखाते हैं और जिंदगी जीतने का हुनर भी बताते हैं। वे एक समावेशी कवि थे, जिन्होंने तकरीबन हर भाव के गाने लिखे, जो आम इंसान के जीवन से जुड़े हैं।   

शैलेंद्र का जन्म भले ही रावलपिंडी में हुआ था लेकिन मूल रूप से उनका परिवार बिहार के भोजपुर का था। वे बेहद कमज़ोर और पिछड़े वर्ग से निकलकर कोहिनूर बने थे। उनके खून में बेशक भोजपूरी संस्कार हों, लेकिन उनके परिवार ने रावलपिंडी में उर्दू और फारसी को भी अपना बना लिया था। हालांकि शैलेंद्र को पहचान वास्तव में बृज माधुरी से मिली। आजीवन उनकी सांसों में मथुरा के मिट्टी की महक बसी रही। सरल और सहज शब्दों से जादूगरी करने वाले शैलेंद्र के ज्यादातर गीतों में आपको ये एहसास सहज ही महसूस होगा।

शैलेंद्र ने बचपन से ही अपने घर में आर्थिक तंगी देखी थी। रावलपिंडी से मथुरा के बीच बिखरे बचपन के सपनों के साथ उन्होंने पढ़ाई शुरू की। इंटरमीडिएट तक मथुरा के सरकारी स्कूल में पढ़े। वे बहुत ही मेधावी छात्र थे, उन्होंने 16 साल की आयु में पूरे उत्तर प्रदेश में हाई स्कूल की परीक्षा में तीसरा स्थान प्राप्त किया था। पढ़ाई के बाद घर चलाने के लिए उन्होंने रेलवे स्टेशन में छोटी सी नौकरी भी की। इधर, परिवार की दुश्वारियां बढ़ती जा रही थी और उधर, शैलेंद्र के दिल में कविताओं का प्रेम।

कविताओं के जरिए क्रांति

1942 में एक समय ऐसा भी आया कि रोज़गार की मजबूरी में मशीनों के शोर के बीच कविता के लिए धड़कता शैलेंद्र का दिल कई बार उदासी में डूबने लगा। लेकिन तभी अगस्त क्रांति शुरू हुई। महात्मा गांधी ने मुंबई में करो या मरो का नारा दिया और शैलेंद्र क्रांति की राह पर चल पड़े। अपने प्रगतिशील नजरिये के चलते वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़कर मजदूर-किसान की आवाज बने।

उन्होंने इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और जेल भी गए। जब जेल से बाहर निकले, तो उन्होंने तय किया कि अब कविता को क्रांति का जरिया बनाएंगे। देश में जब आज़ादी का आंदोलन तेज़ होने लगा, तो शैलेंद्र के क्रांतिकारी विचारों की फसल भी पकने लगी और गोरी हुकुमत को लेकर विद्रोह की चिंगारी उनके दिल में बेचैनी पैदा करने लगी थी। उन्होंने इंडियन पीपल्स थिएटर ज्वाइन किया और जीवनभर इसके सक्रिय सदस्य रहे। इस बीच जब देश आज़ाद हुआ और दो टुकड़ों में बंटा तो शैलेंद्र उस रात फूट-फूट कर रोए। उसी दौरान उनकी कलम से निकला 'सुन भईया सुन भईया, दोनों के आंगन एक थे भइया' गीत, जिसमें विभाजन की त्रासदी और दर्द को बखूबी बयां किया गया था। उन्होंने जलियांवाला बाग हत्याकांड और सरदार भगत सिंह को याद करते हुए 'जलता है पंजाब' कविता लिखी थी।

वे अपने कॉलेज के दिनों से ही कवि सम्मेलनों में जाते और कविता पाठ करते। उन्हें शब्दों को कविता में तब्दील करने का शौक कुछ ऐसा था कि तमाम दिक्कतों के बावजूद साधना, हंस, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, जनयुग जैसी पत्रिकाओं में उनकी कविताएं छपने लगी थीं। ये कविताएं वो शचि-पति के नाम से लिखते थे। उनका वामपंथी रूझान भी इन कविताओं में खुलकर नज़र आता। उनके घर में दो जून की रोटी भले नहीं होती लेकिन वो कविताएं लिखना कभी नहीं छोड़ते।

जातिवादी टिप्पणी से पहुंचा था बड़ा आघात

शैलेंद्र के जीवन का एक किस्सा बहुत मार्मिक भी है, जब उन्होंने अपने प्रिय खेल हॉकी को ही हमेशा के लिए छोड़ दिया था। कहा जाता है कि उन्हें हॉकी खेलने का बहुत शौक था। ये खेल उन्हें अपने भीतर जोश भरता नज़र आता था। लेकिन एक बार जब खेल-खेल में उन्हें जातिवादी टिप्पणी का सामना करना पड़ा तो, शैलेंद्र को इतना गुस्सा आया कि उन्होंंने हॉकी स्टिक के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और फिर कभी उसे हाथ नहीं लगाया।

फिल्मी दुनिया की बात करें, यहां शैलेंद्र को लाने वाले राज कपूर थे। उन्होंने ही शंकर दास केसरी लाल को शैलेंद्र का नाम दिया था। हालांकि ये भी एक मजेदार किस्सा ही है कि पहली बार जब राज कपूर साहब ने शैलेंद्र से अपनी फिल्म आग के लिए गाना लिखने को कहा, तो उन्होंने इसे साफ शब्दों में ये कहकर मना कर दिया कि वो पैसों के लिए नहीं लिखते। बाद में कुछ पारिवारिक मजबूरियां और पैसे की जरूरत शैलेंद्र को दोबारा राज कपूर के पास ले गई और यहां से उनके फिल्मी करियर की शुरुआत हुई।

वैसे ये भी दिलचस्प संयोग ही है कि शैलेंद्र का निधन उसी दिन हुआ जिस दिन राज कपूर का जन्मदिन मनाया जाता है। इस अजीब इत्तेफाक को लेकर राज कपूर ने शैलेंद्र के निधन के बाद कहा था, "मेरे दोस्त ने जाने के लिए कौन सा दिन चुना, किसी का जन्म, किसी का मरण। कवि था न, इस बात को ख़ूब समझता था।" शैलेंद्र भले ही 14 दिसंबर, 1966 को महज़ 43 की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गए लेकिन उनके 800 गीत, हमेशा उनकी याद दिलाने के लिए मौजूद हैं।

शैलेंद्र आम जन मानस की आवाज़ थे। उन्होंने अपने गीतों में नफरत, धर्मांध, बॉडी शेमिंग, वीमेन ओब्जेक्टिफिकेशन को कभी जगह नहीं दी। उन्हें हिंदी सिनेमा जगत का रैदास भी कहा जाता था। वैसे तो उनके लगभग सभी गीत मशहूर हैं लेकिन उनके कुछ गीत लोगों की जुबां से कभी नहीं उतरते। जैसे 'आवारा हूं या गर्दिश में हूं, मेरा जूता है जापानी, दोस्त-दोस्त ना रहा, किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, गाता रहे मेरा दिल, जिस देश में गंगा बहती है...।

यदि शैलेंद्र आज ज़िंदा होते तो 100 साल के होते और शायद उनके हज़ारों गीत भी हमारे बीच होते। बहरहाल, शैलेंद्र को जिंदगी भले कम मिली लेकिन वो अपने जीवन के अनुभवों को ही काग़ज़ पर कविता, गीत और नज़्मों की शक्ल में उतारते रहे। इस दौरान उन्होंने सिनेमाई मीटर की धुनों का भी ख़्याल रखा और आम लोगों के दर्द का भी। उन्होंने कभी अपनी विचारधारा से समझौता नहीं किया। उनकी लेखनी में कविताओं में बेबसी, भूख और दर्द साफ-साफ झलकता था। बावजूद इसके वो आजीवन अपने उसूलों के पक्के रहे जो उनकी पहचान भी है। ये लेखनी आज के दौर में बेहद जरूरी हो गई है क्योंकि अब गीतों में फूहड़ता, नफरत और व्यापार का भाव हावी हो गया है।

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