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स्मृति शेष: अमिय कुमार बागची एक असाधारण अर्थशास्त्री

बागची ने ऐतिहासिक रूप से भी और समकालीन दौर में भी, साम्राज्यवाद की गतिक्रिया को बेनक़ाब करने में शानदार भूमिका अदा की थी।
Amiya Kumar Bagchi economist
तस्वीर लीफ़लेट से साभार

प्रोफेसर अमिय कुमार बागची, जिनका बृहस्पतिवार, 28 नवंबर को निधन हो गया, एक असाधारण अर्थशास्त्री और हमारे समय के एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे। उन्होंने ऐतिहासिक रूप से भी और समकालीन दौर में भी, साम्राज्यवाद की गतिक्रिया को बेनकाब करने में शानदार भूमिका अदा की थी।

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में बेहरामपुर के निकट एक गांव में उनका जन्म हुआ था। वह एक प्रतिभाशाली छात्र थे, जो कोलकाता में प्रेसीडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र में मास्टर्स डिग्री हासिल करने के बाद, आगे पढ़ाई के लिए पश्चिम बंगाल सरकार की छात्रवृत्ति पर, यूके में कैंब्रिज विश्वविद्यालय गए थे। कैंब्रिज में पीएचडी के लिए उन्होंने जो थीसिस लिखी उसने दादाभाई नौरोजी और रोमेश चंद्र दत्त जैसे उन उपनिवेशवाद-विरोधी लेखकों के कार्य को आगे बढ़ाया, जिन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था के पिछड़े रहने की जड़ें, औपनिवेशिक शासन के प्रभाव में खोजी थीं। उनकी इस थीसिस को बाद में उनकी क्लासिक रचना, प्राइवेट इन्वेस्टमेंट इन इंडिया 1900-1939  में विकास मिला। 

भारत के संदर्भ साम्राज्यवाद की पड़ताल

इसमें उन्होंने दिखाया था कि विश्व युद्धों के बीच के दौर में औपनिवेशिक सरकार ने जो ‘विभेदकारी संरक्षण’ शुरू किया था, उससे निजी निवेश में सिर्फ अस्थायी रूप से तेजी आयी थी, जिसके बाद वह गिरकर फिर से नगण्य सा हो गया था। इसकी वजह यह थी कि भारतीय बाजार अपने आप में अवरुद्ध बना हुआ था क्योंकि कृषि, जो कि अधिकांश आबादी के लिए आय का मुख्य स्रोत थी, बिल्कुल बढ़ ही नहीं रही थी और इसकी वजह यह थी कि औपनिवेशिक सरकार, सिंचाई में तथा बीज की किस्मों की तथा खेती के बेहतर तरीकों की खोज में, निवेश करने के लिए तैयार ही नहीं थी।

औपनिवेशिक सरकार की यह कंजूसी, जैसा कि बागची ने बाद के अपने एक आलेख में तर्क प्रस्तुत किया था, उसके इसके आग्रह की वजह से थी कि सरकारी निवेश पर, कम से कम 5 फीसद सालाना की कमाई होनी चाहिए। निवेश पर ऐसा अर्जन बंगाल जैसे स्थायी बंदोबस्त के इलाकों में तो किसी भी तरह संभव नहीं ही था, जहां राजस्व हमेशा के लिए तय कर दिया गया था, यह तो मद्रास प्रसीडेंसी जैसे इलाकों में भी संभव नहीं था, जहां राजस्व बंदोबस्त हमेशा के लिए तो नहीं था, फिर भी दीर्घावधि के लिए जरूर था।

निजी निवेश पर उनके महाग्रंथ के बाद उनका एक निर्णायक अध्ययन आया जिसने इस सचाई की पुष्टि कर दी कि उन्नीसवीं सदी में भारतीय अर्थव्यवस्था का निरुद्योगीकरण हुआ था। उन्होंने इसे साबित किया था, स्कॉटिश डाक्टर, फ्रांंसिस बुखनन हैमिल्टन द्वारा उन्नीसवीं सदी के आरंभ में गांगेय बिहार के खास जिलों में विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में लगे लोगों की संख्या का जो विस्तृत सर्वे किया था उसकी तुलना, उन्हीं जिलों के लिए एक सदी बाद के जनगणना के आंकड़ों से करने के जरिए।

बसाहट के उपनिवेश बनाम शोषण के उपनिवेश

भारतीय संदर्भ में साम्राज्यवाद की पड़ताल करने से आगे जाकर उन्होंने एक वैश्विक परिघटना के रूप में साम्राज्यवाद की पड़ताल की और दो अलग-अलग क्षेत्रों के प्रति उसके बहुत ही अलग-अलग रुखों को रेखांकित किया। उन्होंने यह तर्क प्रस्तुत किया कि यूरोपीय बसाहट के समशीतोष्ण क्षेत्रों जैसे अमरीका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलेंड तथा दक्षिण अफ्रीका और दुनिया के ट्रापिकल तथा सबट्रोपिकल क्षेत्रों में स्थित उपनिवेशों तथा अर्द्ध-उपनिवेशों, जिन्हें विकसित दुनिया का गुलाम बनाया गया था, जैसे भारत, इंडोनेशिया, चीन आदि के प्रति, साम्राज्यवाद के रुख में जमीन-आसमान का अंतर था। 

उन्होंने यह स्थापित किया कि बाद वाली श्रेणी से जो आर्थिक अधिशेष निकालकर ले जाया जा रहा था, उसका उपयोग पहले वाली श्रेणी में निवेशों के लिए किया गया था, जिससे इंग्लेंड से औद्योगिक पूंजीवाद का भारी संचरण हुआ था, पहले यूरोप में और उसके बाद यूरोपीय बसाहट के नये इलाकों में। इस तरह पहली श्रेणी वाले क्षेत्रों में आर्थिक विकास पूरक, बाद वाली श्रेणी के क्षेत्रों का पिछड़ापन था।

इस तथ्य का कि आस्ट्रेलिया और भारत, दोनों ही ‘‘उपनिवेश’’ थे, फिर भी उनके विकास पथ बहुत ही जुदा रहे थे, साम्राज्यवाद के पैरोकारों द्वारा यह दलील देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है कि पॉल बरान जैसे मार्क्सवादी लेखकों का जो कहना था उसके विपरीत, साम्राज्यवाद को विकास को बाधित करने के लिए ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। 

बागची ने ‘उपनिवेश’ की न्यायशास्त्रीय संज्ञा से आगे जाकर, ‘बसावट के क्षेत्रों’ और ‘शोषण के क्षेत्रों’ के बीच जो विभेद किया, उसने इस मिथक को चकनाचूर कर दिया और बरान की अंतर्दृष्टि की सत्यता साबित कर दी। उन्होंने अपने इस शोध को अपने अनेक लेखों तथा पुस्तकों में प्रकाशित किया, जिनमें उल्लेखनीय हैं--द पॉलिटिकल इकॉनमी ऑफ अंडरडैवलपमेंट और पेरिलस पैसेज: मैनकाइंड एंड द ग्लोबल एसेंडेंसी ऑफ कैपिटल।

नव-उदारवाद के संदर्भ में साम्राज्यवाद की पड़ताल

लेनिन के साम्राज्यवाद के सिद्धांत पर एक लेख में बागची ने इस काउत्स्कीय परिप्रेक्ष्य की आलोचना प्रस्तुत की थी कि प्रतिद्वंद्वी साम्राज्यवादी ताकतों के बीच ‘सुलह’ से, विश्व शांति का युग आ सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में यह मानकर चला जाता है कि साम्राज्यवाद के दौर में युद्ध, केवल साम्राज्यवाद के आपसी टकरावों से ही होते हैं, जोकि पूरी तरह से गलत है। साम्राज्यवाद के आपसी युद्धों के अलावा समाजवाद के खिलाफ साम्राज्यवाद द्वारा छेड़े जाने वाले युद्ध भी होते हैं, राष्ट्रीय मुक्ति के युद्ध होते हैं और साम्राज्यवादी देशों के अंदर क्रांतिकारी गृहयुद्ध होते हैं। काउत्स्की ने जब साम्राज्यवादी सुलह के जरिए शांति आने की कल्पना की थी, उन्होंने इस सब का ध्यान नहीं किया था।

बागची, नव-उदारवाद में साम्राज्यवाद की इसकी कोशिश देखते थे कि उसने निरुपनिवेशीकरण के जरिए जिन इलाकों पर नियंत्रण खो दिया था, उन पर अपना नियंत्रण दोबारा कायम किया जाए और वह नव-उदारवाद की बौद्धिक पैरोकारी सबसे पहले आलोचकों में से एक थे। 

ओईसीडी के एक ग्रंथ में, कुछ राष्ट्र विशेषों के अध्ययन के आधार पर, नव-उदारवाद की पैरवी की गयी थी। इस ग्रंथ पर बागची ने एक समीक्षा लेख लिखा था, जिसे उन्होंने ‘‘द थ्योरी ऑफ इफीशिएंट नियो-कॉलोनियलिज्म’’ का शीर्षक दिया था और यह लेख ईपीडब्ल्यू में तब छपा था, जब हमारे देश में नव-उदारवादी निजाम का आना अभी दूर था। इसके जरिए उन्होंने इस मामले में समय से पहले और बहुत ही पैनी चेतावनी दे दी थी।

वामपंथ के प्रति प्रतिबद्धता

बागची ने, जो आजीवन वामपंथ के प्रति प्रतिबद्ध रहे थे, वर्षों तक पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के लिए काम किया था, पहले राज्य योजना बोर्ड के सदस्य के रूप में और बाद में उसके उपाध्यक्ष के रूप में। वामपंथ के भविष्य से उनका जुड़ाव इतना ज्यादा था कि वह कभी-कभी मुझे पत्र लिखकर इसके सुझाव देते थे कि वामपंथ को क्या करना चाहिए और मैं ये सुझाव तब के पार्टी के महासचिव, कामरेड सीताराम तक पहुंचा दिया करता था। उनकी पत्नी जसोधरा बागची भी, जो कि एक बहुत ही नामी अकादमिक हैं, जो जादवपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाती थीं, वामपंथ के प्रति बहुत ही प्रतिबद्ध थीं और उन्होंने वाम मोर्चा सरकार के दौर में पश्चिम बंगाल राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष के रूप में सेवा की थी।

अमिय बागची का अपनी विद्वत्ता के लिए जितना सम्मान अर्थशास्त्रियों के बीच था, उतना ही सम्मान इतिहासकारों के बीच था। वह इंडियन हिष्ट्री कांग्रेस के 80वें अधिवेशन के जनरल प्रेसीडेंट थे और दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों के विजिटिंग प्रोफेसर के पद पर थे और उनके द्वारा मानद डाक्टरेट से सम्मानित किए गए थे: यूके का कैंब्रिज विश्वविद्यालय, कोलकाता का प्रेसीडेंसी कॉलेज, कोलकाता का ही सेंटर फार स्टडी ऑफ सोशल साइंसेज (जिसके बाद में वह निर्देशक रहे थे) और कोलकाता का ही इंस्टीट्यूट ऑफ डैवलपमेंट स्टडीज, जिसके वह संस्थापक निदेशक थे और जहां वह अंतिम समय तक प्रोफेसर एमेरिटस रहे थे।

वह कोलकाता को बेतहाशा प्यार करते थे और कभी भी ज्यादा दिन के लिए कोलकाता से बाहर नहीं जाते थे। इसी वजह से उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर के पद के प्रस्ताव मिलने के बाद भी, इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया था।

कोलकाता में उन्होंने बेशुमार छात्रों को पढ़ाया था, जो उनको बहुत प्यार करते थे और उनका बहुत आदर करते थे। उनके प्रति यही भाव दुनिया भर में फैले उनके अनगिनत दोस्तों, समकालीनों और सहकर्मियों के थे। वे सभी उनकी गर्मजोशी, उदारता, जबर्दस्त विद्वत्ता और समाजवाद के प्रति भावपूर्ण प्रतिबद्धता को याद रखेंगे। उनके निधन से देश के बौद्धिक जीवन का भारी नुकसान हुआ है। 

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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