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मिसाल-बेमिसाल: आईआईटी कानपुर के छात्रों की सोशल इंजीनियरिंग, स्कूली बच्चों के लिए बनाया एजुकेशन ब्रिज

कोरोना महामारी के इस दौर में आईआईटी इंजीनियरिंग के करीब पचास छात्र बतौर वॉलेंटियर एक समूह के जरिए अपने कैंपस के बाहर वंचित परिवारों के बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा में बनाए रखने के लिए शिक्षण का माहौल तैयार कर रहे हैं।
मिसाल-बेमिसाल: आईआईटी कानपुर के छात्रों की सोशल इंजीनियरिंग, स्कूली बच्चों के लिए बनाया एजुकेशन ब्रिज
कोरोना-काल में बच्चों के साथ उनके परिजनों को हरसंभव सहायता देने के लिए 'प्रयास' नाम के समूह के जरिए जारी है काम। फोटो साभार: प्रयास, आईआईटी-कानपुर

कोरोना वायरस से बचने के लिए जब आस-पड़ोस के कई परिवार एक-दूसरे से कट रहे हैं तब आईआईटी (दी इंडियन इंस्टीटूट्स ऑफ टेक्नोलॉजी) कानपुर के छात्रों ने अपने कैंपस से बाहर वंचित परिवारों के बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा में बनाए रखने के लिए एक सेतु तैयार किया है।

कोरोना महामारी के इस दौर में आईआईटी इंजीनियरिंग के करीब पचास छात्र बतौर वॉलेंटियर एक समूह के जरिए अपने कैंपस के बाहर नानकारी, बारासिरोही और लोधर सहित आसपास के सत्तर स्कूली बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षण का माहौल तैयार कर रहे हैं। इतना ही नहीं, लॉकडाउन में अपनी दिहाड़ी मजदूरी से हाथ धो चुके कई बच्चों के परिजनों के लिए भी ये छात्र आगे बढ़कर हर महीने किचिन का सामान जुटा रहे हैं।

बात चाहे बच्चों को उनके कोर्स की किताबें पहुंचाने की हो या स्मार्टफोन जैसे उपकरण दिलाने की, मेडिकल इमरजेंसी में उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने की हो या कोविड-19 से जुड़ी भ्रांतियां दूर करने के लिए ऑनलाइन सेमिनार के संचालन की, बच्चों के स्कूलों में उनकी फीस जमा कराने की हो या उन्हें भिन्न-भिन्न शैक्षिक गतिविधियों से कनेक्ट करने की, मुसीबत की इस घड़ी में आईआईटी के छात्र एक सामूहिक परिवार की तरह ऐसे बच्चों की देखभाल के लिए हर कदम पर उनके साथ खड़े हो रहे हैं।

महामारी में भी मिशन जारी है

दरअसल, बीस साल पहले वर्ष 2001 में आईआईटी, कानपुर के छात्रों ने 'प्रयास' नाम से जो समूह बनाया है वह वंचित समुदाय के बीच कक्षा तीसरी से बाहरवीं तक के बच्चों की शिक्षा के लिए अवसर ढूंढ़ता है। यह समूह ऐसे बच्चों को अंग्रेजी, गणित और विज्ञान से लेकर सामाजिक-विज्ञान तक के विषयों को पढ़ाता है। हालांकि, इस समूह से जुड़े छात्रों का मत है कि वे स्कूली बच्चों को पढ़ाने से ज्यादा पढ़ने का माहौल तैयार करने और उनके लिए बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने पर अधिक भरोसा करते हैं।

ऐसा इसलिए कि इंजीनियरिंग के ये छात्र मानते हैं कि उनमें और वंचित समुदाय के बच्चों के शैक्षणिक स्तर में कोई खास अंतर नहीं होता। यदि वंचित समुदाय के बच्चों को खासकर पारिवारिक समस्याओं से दूर रखते हुए पढ़ाई करने दें तो ऐसा देखने में आया है कि ऐसे बच्चे कई परंपरागत धारणाओं को तोड़ने में सफल रहे हैं। अपने बूते अपने पैरों पर खड़े होने वाले अनेक बच्चों के संघर्ष से प्रेरित होकर ही इस अनौपचारिक समूह ने अपने लिए एक ध्येय वाक्य बनाया है- 'ऐम टू केपेबल'। यानी बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनका मार्गदर्शन करना और उनके लक्ष्य को पूरा करने में आ रही हर एक बाधा को दूर करने के लिए उनका हाथ बंटाना।

लेकिन, पिछले साल जब कोरोना संक्रमण पर नियंत्रण रखने के लिए सरकार द्वारा लॉकडाउन की घोषणा हुई तो इन छात्रों के सामने अपनी शैक्षणिक गतिविधियों को जारी रखना मुश्किल हो गया। लगा कि स्कूली बच्चों के साथ उनका कनेक्शन टूट जाएगा और कुछ समय के लिए स्कूली बच्चों के साथ कनेक्शन टूटा भी।

इस बारे में आईआईटी कानपुर से डॉक्टरेट कर रहे अभिषेक सावर्ण्य हमसे बातचीत करते हुए बताते हैं, "लॉकडाउन की घोषणा होते ही आईआईटी के छात्र और स्कूली बच्चे एक-दूसरे के संपर्क से बाहर हो गए थे, क्योंकि हमारे पास एक-दूसरे के मोबाइल नंबर नहीं थे। इसलिए हमें नए सिरे से डाटा तैयार करना पड़ा। इसके बाद जब बात ऑनलाइन शिक्षा की आई तो पता चला कई बच्चों के पास स्मार्टफोन नहीं हैं। इसलिए हमने चंदा जमा करके कुछेक बच्चों के लिए स्मार्टफोन खरीदे।"

हालांकि, कुछ दिनों में ही इस समूह के वालियंटर यह समझ गए कि जिन बच्चों के साथ वे काम कर रहे हैं उनके लिए डिजीटल लर्निंग बेहतर विकल्प हो ही नहीं सकता है, क्योंकि वे यदि उनके हाथ में स्मार्टफोन दे भी दें तो उन्हें रिचार्ज कराते रहना एक अगली समस्या है। इसलिए आईआईटी के छात्रों ने कुछ बच्चों को फोन कालिंग के जरिए पढ़ाने की कोशिश की, जबकि कुछ बच्चों के लिए उन्होंने रीडिंग मटेरियल की फोटोकॉपी भी उपलब्ध कराई।"

लाइब्रेरी का माइंड-सेट तोड़ा

कोरोना लॉकडाउन के दौरान दूसरी बड़ी समस्या थी कि बच्चों तक कोर्स से बाहर की किताबों को कैसे उपलब्ध कराया जाए, क्योंकि महामारी से पहले आईआईटी कानपुर परिसर में स्कूली बच्चों के लिए बनाई गई लाइब्रेरी में आकर बच्चे अपनी मनचाही किताबों को पढ़ते थे। लेकिन, लॉकडाउन के बाद जब परिसर पूरी तरह से बंद हो गया तो बच्चों के लिए इस तरह की सामग्री मिलनी बंद हो गई। ऐसी स्थिति में इन छात्रों ने चर्चा में यह पाया कि यदि लाइब्रेरी से बच्चों को किताबें न मिलें तो ऐसी लाइब्रेरी का कोई मतलब नहीं है। इसलिए उन्होंने लाइब्रेरी में बच्चों के लिए रखीं सौ से अधिक किताबों को बाहर निकाला और उन्हें बच्चों के बीच ही बांट दिया।

यह अपनी तरह का पहला प्रयोग रहा जिसमें इस समूह के छात्रों ने बच्चों की मदद से ऐसा सिस्टम बनाया जिसका प्रबंधन खुद बच्चों के हाथों में आ गया। अब बच्चे आपस में मिलकर कई किताबों को एक-दूसरे को न सिर्फ हस्तांतरित कर रहे हैं, बल्कि इस बात की निगरानी भी रख रहे हैं कि किस बच्चे के पास कौन-सी किताब कितने दिनों से हैं और अगले बच्चे तक किसी किताब को हस्तांतरित करने के लिए क्या नियम हैं।

इस बारे में स्कूली बच्चों के लिए अंग्रेजी विषय के सत्र ले रहीं बैचलर ऑफ टेक्नोलॉजी की छात्रा अहाना विश्वास अपना अनुभव साझा करती हुईं बताती हैं, "मुझे सबसे अच्छा तो यह लग रहा है कि बच्चे आपस में एक-दूसरे की मदद बड़ी ईमानदारी से कर रहे हैं, जबकि लॉकडाउन के कारण उनके घरों में कई तरह की समस्याएं हैं, फिर भी इतनी मुश्किल में वे अपने दोस्तों की पढ़ाई का ख्याल रख रहे हैं तो इसलिए कि वे पढ़कर कुछ बनना चाहते हैं।"

इसी तरह, कक्षा दसवीं के छात्र सूरज कुरील कहते हैं, "लॉकडाउन में हमें पढ़ने में बहुत दिक्कत आ रही थी, मगर बड़े भाइयों ने हमें बहुत सहयोग दिया, उन्होंने हमें बहुत सुविधाएं दीं, ऑनलाइन क्लास के लिए मेरे पास स्मार्टफोन नहीं था, उन्होंने मुझे स्मार्टफोन खरीदकर दिया।" वहीं, लॉकडाउन में कई बच्चों के परिजनों की नौकरी चली गई थी तब निजी स्कूलों को फीस जमा करने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। अभिषेक सावर्ण्य के मुताबिक ऐसी हालत में हमने  बच्चों की फीस भरने के लिए उनके परिजनों को वित्तीय सहायता दी, क्योंकि समय रहते यदि ऐसा नहीं किया जाता तो बच्चों का एक साल खराब हो जाता।

इन कोशिशों के पीछे सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें स्कूली बच्चों का रिश्ता देश के ऐसे प्रतिभाशाली ग्रेजुएशन करने वाले छात्रों से होता है जो अपने तजुर्बों के आधार पर बच्चों की पढ़ाई से जुड़ी बाधाओं पर अच्छी तरह से कॉउंसलिंग कर सकते हैं। इसलिए इस समूह की उपलब्धियों के बारे में बात करें तो बीते दो दशकों में कई बच्चों को देश के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला मिला है। लेकिन, इस समूह की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि आईआईटी के छात्रों और स्कूली बच्चों का जबर्दस्त नेटवर्क बनता जा रहा है। यही वजह है कि सुनामी से लेकर कोरोना तक हर तरह की आपदा में यह समूह तुरंत सक्रिय हो जाता है और वित्तीय मदद से लेकर मानवीय संसाधनों को जुटाने में बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाता है।

लॉकडाउन में बदल दिया सिस्टम

लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन शिक्षा की चुनौतियों से निपटने के लिए इस समूह ने अपने सिस्टम को बदलते हुए इसे बच्चों के लिए और अधिक अनुकूल बना दिया है। इसके तहत यह निर्णय लिया गया कि सत्रों के आयोजन की योजना स्कूली बच्चे खुद बनाएंगे और उन्हें छूट है कि वे अपनी मर्जी से किसी सत्र में अनुपस्थित हो सकते हैं। जैसे कि किसी बच्चे को बॉयोलॉजी का कोई चैप्टर ही समझना है तो समय रहते वह इसकी सूचना देकर बायोलॉजी के अन्य सत्रों से अनुपस्थित रह सकता है। इसी तरह, इस समूह द्वारा समय-समय पर बड़े बच्चों की शंकाओं का समाधान करने के लिए 'डाउट सेशन' और छोटे बच्चों के लिए 'रीडिंग सेशन' संचालित किए जा रहे हैं जिनमें छोटे बच्चे बताते हैं कि उन्होंने स्टोरी बुक्स से क्या पढ़ा और उससे उन्हें क्या समझ आया।

दरअसल, बच्चों को इतनी स्वतंत्रता देने के पीछे इस समूह का अपना एक दृष्टिकोण यह है कि उसके वॉलेंटियर अपने को टीचर नहीं मानते हैं। इस बारे में अभिषेक कहते हैं, "हम फेसिलेटर हैं, कोई बच्चा हमसे अपना ड्रीम शेयर करे तो हम उसे पूरा करने में उसकी मदद करते हैं। जैसे कोई बच्चा इंजीनियर बनना चाहे तो हम इसके लिए उसे और उसके परिवार को मानसिक रुप से तैयार करते हैं, बच्चे को जरुरी नोट्स से लेकर उसके लिए टीचर, कोचिंग, फीस और अन्य सुविधाएं मुहैया कराते हैं, जिससे कि उसके रास्ते में आने वाली अड़चने दूर की जा सकें।"

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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