GST की कुछ ख़ामियां उसे बुरे टैक्स प्रणाली में तब्दील करती है

पांच साल पहले जब GST लागू किया जा रहा था, तब सरकार की तरफ से किये जाने वाले कुछ ऐलानों को देखिये। इसमें कहा गया था कि इससे भारत की कुल जीडीपी में एक से दो प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी, राज्यों की जीडीपी में एक से दो प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी, सामान और सेवाओं की कीमतों में दस प्रतिशत की दर से कमी आएगी। लेकिन पांच साल में क्या हुआ? अर्थव्यवस्था का हाल लचर है। राज्यों का राजस्व पहले से कम हुआ है। महंगाई 7 फीसदी के आस पास बनी हुई है। उसके ऊपर से सरकार ने रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़ी जरूरी चीजों पर GST लगा दिया है।
आटा, दही, दूध, पनीर, चावल जैसे रोजाना इस्तेमाल होने वाले खाद्य पदार्थ जिन्हें पैक करके बेचा जाता है, उन पर भी 5 प्रतिशत का टैक्स लगाया जा रहा है। सरकार का कहना है कि खुले सामानों पर टैक्स नहीं लगेगा। मतलब सरकार कह रही है कि खुले सामान गरीब खरीदते हैं, उन पर असर नहीं पड़ेगा। अमीरों पर असर पड़ेगा। जबकि हकीकत यह है कि 25 हजार से कम कमाने वाले भारत में 90 प्रतिशत हैं। इनमें ज्यादातर पैकेट वाले सामान के उपभोक्ता हैं। तकरीबन ज्यादातर किराने के दुकान पर पैकेट वाले सामान ही मिलते हैं। यानी असर सब पर पड़ेगा। सरकारी प्रपत्र भी यही कहते हैं कि जीएसटी के जरिए मिलने वाला राजस्व उम्मीद से कम हो रहा है, इसलिए सरकार ने GST का दायरा बढ़ाया है।
GST के पांच साल के लेखाजोख का अंदाजा सबसे पहले इस बात से लगेगा कि GST की वजह से कितना कर संग्रह हुआ? केंद्र के स्तर पर कर संग्रह का क्या हाल है और राज्य के स्तर पर कर संग्रह का क्या हाल है?
GST का डिजाइन सिंगल टैक्स पर निर्भर है। पहले केंद्र और राज्य दोनों टैक्स लगा सकते थे लेकिन सिंगल टैक्स की नीति अपनाने की वजह से राज्यों को यह अधिकार छोड़ना पड़ा। राज्यों को सेल्स टैक्स छोड़ना पड़ा। इससे राज्यों को अपने कुल राजस्व का दो तिहाई मिलता था। राज्यों को राजस्व के इस हिस्से को छोड़ना पड़ा। केंद्र को उत्पादन शुल्क छोड़ना पड़ा। लेकिन यहां समझने वाली बात यह है कि केंद्र के टैक्स उत्पादन पर लगते थे और राज्य के टैक्स उपभोक्ता पर लगते थे। इस तरह से राज्य ज्यादातर चीजों पर टैक्स लगा सकता था और केंद्र कम चीजों पर। मतलब जब सिंगल टैक्स की बात आई तो राज्य को अपने हिस्से का ज्यादा टैक्स छोड़ना पड़ा और केंद्र को कम।
यह बात सही है कि केंद्र को GST के तौर पर मिले राजस्व को 50:50 यानी आधा-आधा बांटना होता है। लेकिन जिस तरह का टैक्स रेट तय करने का ढांचा है, उसमें केंद्र सरकार को रेट तय करने का ज्यादा हक है और राज्य ने अपना अधिकार छोड़ दिया है। कई अध्ययन बताते हैं कि GST लगने के बाद राज्य और केंद्र का जीडीपी के हिसाब से राजस्व कम हुआ है।
साल 2014 से लेकर 2021 तक राज्यों का टैक्स राजस्व राज्यों के कुल जीडीपी में औसतन 6.6 फीसदी के आस पास रहा है। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात जैसे राज्य भारत के औधोगिक राज्य हैं। इनका भी कर राजस्व जीडीपी के अनुपात में पहले से कम है। यानी GST की टैक्स प्रणाली से फायदा नहीं हुआ है।
केंद्र सरकार पेट्रोल-डिजल जैसी चीजों पर टैक्स लगाती है। इससे अपने कम होते खज़ाने की भरपाई कर लेती है। राज्यों के साथ इस राजस्व का बंटवारा भी नहीं होता है।
जीएसटी के जरिये टैक्स कलेक्शन भारत के कुल जीडीपी के 5.5 और 6.5 प्रतिशत के आस-पास रहा है। भारत की जीडीपी मौजूदा बाज़ार मूल्य के आधार पर 236 लाख करोड़ के आस-पास है। साल 2005 से लेकर 2017 तक टोटल रेवेन्यू रिसीट यानि कुल राजस्व आगत में कभी भी कुल जीडीपी से 10 फीसदी से कमी नहीं हुई। लेकिन जब साल 2017 में टैक्स कलेक्शन का ढांचा पूरी तरह बदलकर जीएसटी आया तो कुल जीडीपी में कुल राजस्व आगत का हिस्सा 10% से कम होने लगा। साल 2017 के बाद कभी भी भारत का कुल राजस्व आगत यानी टोटल रिवेन्यू भारत के कुल जीडीपी के 10% से अधिक नहीं रहा।
इनपुट क्रेडिट की व्यवस्था पूरी तरह से बिलिंग पर डिपेंड है। इस पर डिपेंड है कि कौन बिल लेता है या कौन बिल नहीं लेता है? कौन इंटीग्रेटेड मार्किट का हिस्सा है और कौन नहीं? इनपुट क्रेडिट का फायदा भी उसे मिलता है जिसका GST में रजिस्ट्रेशन होता है। जिनका रजिस्ट्रेशन नहीं होता है, उसे GST क्रेडिट का फायदा नहीं मिलता है।
मान लीजिए कि मोबाइल के पूरे इनपुट पर 1000 रुपए का खर्च आया। इस पर 18 प्रतिशत की दर से टैक्स लगता है। यानी 1180 रुपए में मोबाइल बिका। इस पर कुछ वैल्यू एडिशन कर दुकानदार ने इसे 1500 रूपए में बेचा। इस तरह से मोबाइल के दुकानदार पर 1500 का 18 प्रतिशत यानी 270 रुपए का टैक्स बना। लेकिन दुकानदार ने पहले ही 180 रुपए का टैक्स दे दिया है। मतलब अगर 1500 रूपये में बेचने का और 1180 रूपये खरीदने का बिल दुकानदार दिखाता है तो दुकानदार को महज 270 -180 यानि 90 रूपये का टैक्स देना होगा। यह इनपुट क्रेडिट होता है।
मगर मान लीजिये कि अगर बिल न हो या बिल को घटा बढ़ाकर दिखाया जाए तो क्या होगा? ऐसी स्थिति में धांधली की संभावना पनपती है। और यही पर धांधली होती है। जो बड़े व्यवसायी होते हैं, उनका काम सुचारु तौर पर होता है। इंटीग्रेटड होता है। इसलिए वह तो आसानी से इनपुट क्रेडिट का फायदा उठा लेते हैं। मगर जो आटा व्यवसायी है और जिसका व्यापार अच्छी तरह से इंटीग्रेटेड नहीं होता है। उसके बारे में सोचिये? क्या वह इनपुट क्रेडिट का फायदा सही ढंग से उठा पायेगा। इसका जवाब नहीं में मिलेगा।
कहने का मतलब यह है कि GST का ढांचा ही ऐसा है कि इससे बड़े व्यवसायियों को फायदा पहुंचता है, मगर छोटे व्यवसायी को नहीं। इसलिए मझोले और छोटे व्यवसायियों को इससे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। आंकड़ें भी यही बताते हैं कि छोटे व्यवसायियों के लिए यह बहुत ज्यादा नुकसानदेह साबित हुआ है।
जहां तक पेट्रोल-डीजल की बात है तो यह हर सामान और सेवा के इनपुट के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए इसे भी GST के दायरे में आना चाहिए। लेकिन यह GST के दायरे में नहीं है। क्यों नहीं है? इसका जवाब केंद्र सरकार की वह आर्थिक नीतियां बताती हैं, जिसके तहत पेट्रोल-डीजल पर टैक्स लगाकर केंद्र सरकार ने अपने राजस्व की कमी को पूरा किया। कुल मिला-जुलाकर यह कहा जाए तो GST की प्रवृत्ति केंद्रीयकरण वाली है। हर तरह से राज्यों को नुकसान पहुंच रहा है और अर्थव्यवस्था को भी अभी तक नुकसान पहुंचने के ही साक्ष्य मिले हैं।
यह पूरा आलेख एक इंटरव्यू का संक्षेप है जिसका लिंक नीचे दिया गया है
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