विशेष: क्या संदेश देते हैं पंजाब के चुनाव परिणाम
इस बार पंजाब के लोकसभा परिणामों से राजनीतिक जानकार अलग-अलग निष्कर्ष निकाल रहे हैं| पंजाब में इस बार लोकसभा में 62.80 फीसद मतदान हुआ जो कि 2022 की विधानसभा से करीब 10 फीसद कम है| उस समय राज्य में आम आदमी पार्टी की आंधी में 72.15 फीसद मतदान हुआ था | 2019 के लोकसभा चुनाव में 65.77 फीसद और 2014 में जब आम आदमी पार्टी ने लोकसभा में पंजाब से चार सीटें जीती थी तब 70.60 फीसद मतदान हुआ था|
भले ही इस चुनाव में कांग्रेस ने सबसे अधिक 7 सीटें जीतीं, राज्य की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी को तीन सीटों से ही सब्र करना पड़ा| पंजाब की पुरानी और ऐतिहासिक पार्टी होने का दावा करने वाली अकाली दल को सिर्फ हरसिमरत कौर बादल की बठिंडा सीट ही नसीब हुई| दो सीटें उग्र सिख विचारधारा वाले आज़ाद उम्मीदवार अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा जीतने में कामयाब हुए|
लेकिन यदि हम इन सीटों को विधानसभा क्षेत्रों से मिलाएं या वोट फीसद के हिसाब से देखें तो ये नतीजे सभी पार्टियों को आईना दिखाने का काम करते हैं|
यह परिणाम बताते हैं कि सबसे अधिक सीट लाने वाली कांग्रेस 117 विधान सभा क्षेत्रों में सिर्फ 37 में आगे रही है उसका वोट फीसद 26.3 फीसद रहा| कांग्रेस के लिए तसल्ली वाली बात यह है कि उसने 2022 के विधान सभा चुनाव में 23 फीसद वोट के साथ 18 सीटें जीती थी| जबकि 2022 विधान सभा चुनाव में 92 सीटें और 44 फीसद वोट लेकर सत्ता में आई ‘आप’ इस चुनाव में सिर्फ 33 विधान सभा क्षेत्रों में आगे है और उसका वोट कम हो कर 26.2 रह गया है|
वहीं इस लोक सभा चुनाव में सिर्फ एक सीट निकालने वाला अकाली दल 9 विधान सभा क्षेत्रों में ज्यादा वोट प्राप्त कर सका लेकिन उसका वोट फीसद कम हो कर केवल 13.42 फीसद रह गया (2022 के विधान सभा में अकाली दल ने मात्र 3 सीटें जीती थी और 18 फीसद वोट लिए थे)|
भाजपा इस बार सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही थी, वह कोई सीट तो नहीं जीत सकी पर उसने अपना वोट बढ़ा कर 9 से 18 फीसद कर लिया और 23 विधान सभा क्षेत्रों में आगे रही है|
आज़ाद उम्मीदवारों ने इस लोकसभा चुनाव में 12 फीसद वोट हासिल किए और 15 विधानसभा क्षेत्रों से आगे रहे हैं| खडूर साहिब से जहाँ अमृतपाल सिंह जीता है उसमें पड़ने वाली 9 विधानसभा सीटों में अमृतपाल ने 8 पर लीड की है| फरीदकोट लोकसभा जहाँ से सरबजीत सिंह खालसा जीते हैं वहां पड़ने वाले 9 विधानसभा सीटों में उन्होंने 7 से लीड की है|
गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर जगरूप सिंह सेखों ने इस पत्रकार से बात करते हुए कहा, “इस चुनाव में पंजाब के लोगों का उत्साह कम ही रहा| इसीलिए पहले के चुनावों से कम मतदान हुआ| इसका कारण यह है कि सभी पार्टियों ने लोगों के बुनियादी मुद्दों को नज़र अंदाज़ किया | इन चुनावों में भी राजनैतिक पार्टियों ने लोगों के मुद्दे उठाने की जगह निजी दोषारोपण पर ज्यादा जोर दिया| पंजाबियों ने बारी-बारी सभी पार्टियों को मौका दिया पर कोई भी उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सका| यह चुनाव पंजाबियों की राजनैतिक पार्टियों के प्रति नाराजगी को भी दिखाता है| जब आपके पास सही बदल नहीं दिखाई देता तो इस हालत में कई बार समाज को पीछे ले जाने वाली ताकतें भी अपनी स्पेस बना लेती हैं| इस चुनाव में पंजाब के लोगों ने केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के विरुद्ध फतवा दिया है|”
दो साल पहले बेमिसाल बहुमत लेकर आई आम आदमी पार्टी से पंजाब के लोगों की सख्त नाराजगी झलकती हुई नज़र आई| चुनाव के दौरान बठिंडा में मिले बजुर्ग हरी सिंह ने भगवंत मान सरकार से अपनी नाराजगी ज़ाहिर करते हुए हमें कहा, “बेटा यह आए तो बड़ी-बड़ी बातें करके थे लेकिन काम कोई खास नहीं किया| राज्य में किसान, नौजवान अभी भी परेशान है| नशे उसी तरह बिक रहे हैं, रिश्वत कम नहीं हुई, राज्य में चोरी लूट-पाट के मामले कम नहीं हुए, नाजायज माइनिंग उसी तरह चल रही है| बदलाव का नाम लेकर आई पार्टी ने कोई बदलाव तो नहीं लाया?”
पंजाब के नामवर समाज व शिक्षाशास्त्री प्रोफेसर बावा सिंह का मानना है, “पंजाब एक संघर्ष और जन आंदोलनों वाला राज्य है| इन आंदोलनों से पंजाब ने बहुत कुछ सीखा है| किसान आंदोलन ने पंजाबियों को सवाल करना, अपने हकों और मुद्दों के बारे सुचेत होना सिखाया| वहां से ही सीख लेकर इस चुनाव में पंजाब के लोगों खास कर गाँव के लोगों ने पंजाब की सत्ताधारी पार्टी ‘आप’ व केंद्र की सत्ताधारी भाजपा के उम्मीदवारों से सवाल पूछे भाजपा के उम्मीदवारों को तो ज्यादातर गांवों में घुसने भी नहीं दिया| इसी चेतना से पंजाबियों ने सभी पार्टियों को नकारा| पर अब दिक्कत यह है कि पंजाब के लोगों को कोई सही बदल नहीं दिख रहा| दूसरी तरफ किसानों के बड़े संगठन चुनावों में भाग नहीं लेते हैं| आम आदमी पार्टी ने अपने दो सालों में पंजाबियों का दिल तोड़ा है| इस पार्टी में अब पुरानी पार्टियों जैसे ही लक्षण दिखायी देने लगे हैं| यदि इसने अपने आप को न सुधारा तो 2027 की विधान सभा में इसको और भी चुनौती का सामना करना पड़ेगा|”
अंग्रेजों की सरपरस्ती प्राप्त महंतों के विरुद्ध चले गुरुद्वारा सुधार आंदोलन और आज़ादी आंदोलन से निकला अकाली दल, जिसने ‘पंजाबी सूबा आंदोलन’ और इमरजेंसी के विरुद्ध अहम भूमिका निभाई थी, पंजाब में लगातार अपनी राजनैतिक जमीन खोता जा रहा है| अकाली दल अपने आप को पंजाब की जमीन से जुड़ी पार्टी होने का दावा करता रहा है| अकाली दल पंथक पार्टी के साथ-साथ अपने आप को पंजाबी पार्टी के रूप में भी पेश करता है|
अकाली दल पंजाब के पानी का मुद्दा, चंडीगढ़ को पंजाब को देने, पंजाब से बाहर रह गए पंजाबी बोलते इलाकों को पंजाब में शामिल करने, देश में फ़ेडरल ढांचे को मज़बूत करने के पक्ष में रहा है| सिख राजनीति में शिरोमणी अकाली दल लिबरल माना जाता है पर समय-समय पर ‘पंथ खतरे में है’ का राग अलाप कर अपने राजनैतिक हितों की पूर्ती भी करता रहा है| अकाली दल पर काबिज़ बादल परिवार पर आरोप लगता रहा है कि शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के अध्यक्ष और अकाल तख्त के जत्थेदार बादल परिवार की इच्छा से ही नियुक्त होते हैं|
1997 में अकाली दल, भाजपा के साथ गठबंधन कर और इसे हिन्दू-सिख एकता का नाम देकर सत्ता में आया| इस समय में अकाली दल ने एक नया राजनीतिक मोड़ लिया| उसने अपने आप को पंथक पार्टी के साथ-साथ पंजाबी पार्टी भी कहलाना शुरू किया| इस गठबंधन ने विधान सभा की 117 में से 93 सीटें जीतीं (अकाली दल 75, भाजपा 18)| उस चुनाव के दौरान फर्जी पुलिस मुकाबलों की जाँच करवाये जाने का वायदा अकाली दल ने सत्ता मिलते ही ठंडे बस्ते में डाल दिया| सत्ता के शुरूआती दिनों में भ्रष्टाचार विरोधी होने का जो नाटक किया गया था वही भ्रष्टाचार अकाली विधायकों और मंत्रियों से होता हुआ प्रकाश सिंह बादल के घर तक जा पहुंचा था|
अकाली दल-भाजपा के बाद वाले दस सालों के राज (2007 से 2017) में हुई नशों की तस्करी, गैर-कानूनी माइनिंग, गैंगस्टरों का बढ़ना, स्थानीय अकाली नेताओं की गुंडागर्दी, बादल परिवार का ट्रांसपोर्ट पर कब्जा, गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी और बरगाड़ी गोलीकांड ने अकाली दल का जनाधार खत्म कर दिया और 2017 के विधानसभा चुनावों में अकाली दल को महज 15 सीटों के साथ ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा| लोगों का आरोप है कि बादल परिवार ने भाजपा के साथ गठजोड़ करते हुए और मोदी सरकार में सत्ता का सुख भोगते हुए अपने सारे सिद्धांत रद्दी की टोकरी में फेंक दिए हैं| भाजपा के साथ गठबंधन में रहते अकाली दल ने कभी भी मुसलमानों व दलितों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई| अनुच्छेद 370 को खत्म करने पर जब सारा पंजाब कश्मीरियों के हक में आवाज़ बुलंद कर रहा था तो अकाली दल ने मोदी सरकार का साथ दिया| इमरजेंसी विरुद्ध लड़ाई लड़ने के दावे करने वाला अकाली दल मोदी सरकार के तानाशाही रवैये के बारे में चुप रहा| केंद्र सरकार ने जब खेती बिल पास किये तो शुरू में अकाली दल ने इसका समर्थन किया| 2022 के विधान सभा चुनावों में अकाली दल को सबसे ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा उसे महज़ 3 सीटें मिली यहाँ तक कि प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर बादल भी अपनी सीट बड़े मतों के फर्क से हार गए|
इस लोकसभा चुनाव में अकाली दल ने सिर्फ एक सीट हासिल की और 10 सीटों पर उनके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुयी| इस हार के बाद अकाली दल में बगावती सुर भी उठने लगे हैं| सुखदेव सिंह ढींडसा जैसे नेता सीधे तौर पर इस हार के लिए सुखबीर बादल को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं|
राजनीतिक टिप्पणीकार परमजीत जज कहते है, “अकाली दल अपने पुराने ‘गुनाहों’ से ही नहीं उभर सका| मुझे नहीं लगता कि अकाली दल का आगे कोई भविष्य है| पंजाब के सियासी नक्शे पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के ही ज्यादा रहने की सम्भावना दिख रही है|”
पंजाब यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रो. मनजीत सिंह का विचार है, “मेरा मानना है कि इस समय जब केंद्र द्वारा राज्यों के हकों को छीनने की कोशिश हो रही है उस हालत में पंजाब में एक मज़बूत क्षेत्रीय पार्टी का होना ज़रूरी है| दुःख की बात यह है कि अकाली दल का जिस किसानी वर्ग और देहात में मुख्य आधार होता था वहां अकाली दल का सफाया हो गया है| इसका कारण साफ है भाजपा के साथ मिल कर सत्ता सुख भोगने के चक्कर में अकाली दल ने अपने पुराने आदर्शों को त्याग दिया है| यदि अकाली दल को फिर से जीवित होना है तो उसे फिर अतीत की तरफ जाना पड़ेगा|”
इस लोकसभा चुनाव में उग्र सिख विचारधारा वाले दो आजाद उम्मीदवार अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा की जीत ने राष्ट्रीय स्तर पर नई चर्चा छेड़ दी है| खडूर साहिब से 1,97,120 मतों से कांग्रेसी उम्मीदवार कुलवीर सिंह जीरा को हराने वाले (यह जीत पंजाब में इस लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा मार्जिन वाली जीत है) अमृतपाल सिंह ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन के मुखिया हैं और वह एनएसए के तहत असम की डिब्रूगढ़ जेल में बंद है| अमृतसर की बाबा बकाला तहसील में पड़ने वाले गाँव जल्लुपुर खेड़ा से सम्बन्ध रखने वाले अमृतपाल 2012 में अपने पिता के साथ काम के सिलसिले में दुबई जाता है और 10 साल बाद जब वह दीप सिद्धू की मौत के बाद अमृतधारी स्वरूप में वापस पंजाब आकर अपने आप को दीप सिद्धू द्वारा बनाये ‘वारिस पंजाब दे’ संगठन का मुखिया घोषित करता है तभी से उसे शक की निगाह से देखा जाने लगा| अमृतपाल से अलग हुए इस संगठन का एक गुट यह भी आरोप लगाता रहा है कि अमृतपाल ने दीप सिद्धू के संगठन पर जबरी कब्जा कर लिया है| जरनैल सिंह भिंडरावाले के स्टाइल की नक़ल करता हुआ अमृतपाल भड़काऊ भाषण देता है, खालिस्तान की मांग उठाता हुआ कहता है कि मुझे हिन्दू राष्ट्र से कोई दिक्कत नहीं हिंदुस्तान सरकार हमें खालिस्तान दे दे| ईसाइयों पर शाब्दिक हमले करता है और उसके समर्थक ईसाईयों की सभाओं में जाकर हुडदंग मचाते हैं| अमृतपाल ईसाई पादरियों द्वारा दलित सिखों को ईसाई बनाये जाने का मुद्दा उछालता है| उसके समर्थक गुरुद्वारों से मेज कुर्सियों को यह तर्क देकर बाहर निकालते हैं कि ये गुरु ग्रन्थ साहिब की तौहीन है| बीड़ी-गुटके की रेहड़ियों-दुकानों को उसके समर्थक निशाना बनाते हैं| जब यह सब कुछ पंजाब में हो रहा था तो सरकारों ने इस तरफ से आँखे बंद किये हुई थी और अमृतपाल और उसके समर्थकों को मनमानी करने दे रही थीं| जब अमृतपाल ने गुरु ग्रन्थ साहिब की आड़ लेकर अजनाला थाने का घेराव किया तो सिख समुदाय में उसका बड़े स्तर पर विरोध हुआ| कई सिख विद्वान् दबी आवाज़ में कहते थे कि वह गुरुबाणी की गलत व्याख्या कर रहा है| एक-दो बार तो उसने खुद भी यह स्वीकार करते हुए माफ़ी मांगी और कहा कि उसने गुरुबाणी पढ़ी नहीं बल्कि यू-ट्यूब व पॉडकास्ट से सुनी है| इसके साथ ही अमृतपाल नशों के खिलाफ भी बात करते हुए कहता है कि गुरुवाला बनकर (अमृत छक कर) ही नशों से मुक्ति होगी |
अमृतपाल का पुलिस से ‘बच’ कर निकलना, ‘लुकाछिपी का खेल’ और उसकी ‘गिरफ्तारी’ किसी धारावाहिक नाटक से कम नहीं थी| ऐसे लग रहा था कि यह इतनी लंबी गेम उसका कद बढ़ाने के लिए ही हो रही हो| उसके चुनाव लड़ने का ऐलान करने वाले उसके वकील राजदेव सिंह सिंह खालसा (पूर्व सांसद) 2015 में राष्ट्रीय सिख संगत से जुड़ गये थे फिर थोड़े समय बाद बाहर आ गए थे, दिसंबर 2021 में उन्होंने भाजपा ज्वाइन की थी और नरेन्द्र मोदी की उस समय बड़ी तारीफ की थी|
अमृतपाल के चुनाव प्रचार की मुहिम उसके माँ-बाप और समर्थकों ने संभाली थी| मानव अधिकार कार्यकर्ता दिवंगत जसवंत सिंह खालड़ा की पत्नी परमजीत कौर खालड़ा ने अमृतपाल को समर्थन दिया था | इस चुनाव प्रचार में खालिस्तान का कोई ज़िक्र तक नहीं था| पूरा चुनाव नशों के मुद्दे, अमृतपाल और उसके साथियों और सिख कैदीयों की रिहाई के मुद्दे पर फोक्सड था| यह प्रचार भी खूब हुआ कि ‘भाई साहिब को’ बड़े मतों के फर्क से जिताया जाये ताकि वह जेल से बाहर आ सकें| याद रहे कि अमृतपाल चुनाव लड़ने के हक़ में नहीं था और वह अपने आप को भारतीय नागरिक भी नहीं मानता था और उसका कहना था कि भारतीय पासपोर्ट सिर्फ उसके सफ़र करने का एक जरिया है| अमृतपाल के चुनाव प्रचार में जेलों में बंद सिख कैदियों की रिहाई के मुद्दे को मुख्य मुद्दा बनाया गया पर जब अमृतपाल जेल से बाहर था तो कहता था कि यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है जब स्टेट के साथ संघर्ष चलता है तो ‘बंदी सिंह’ तो बनते रहते हैं| वह अक्सर ही नौजवानों को ‘सिर देने के लिए’ (जान कुर्बान करना) कहता|
खडूर साहिब में चुनाव के दौरान अमृतपाल के दफ्तर में मिले अमृतपाल के समर्थक गुरप्रीत सिंह ने मुझसे कहा, “भाई साहिब को बदनाम करने करने की कोशिश की जा रही है वे तो नौजवानों को नशे से हटाते हैं और गुरु से जोड़ते हैं|” गाँव की पंचायतों द्वारा अमृतपाल के हक़ में प्रस्ताव पास करके वोट डालने को कहा गया| लोगों में बेअदबी जैसे मसलों पर इंसाफ न मिलने के कारण पारम्परिक पार्टियों के प्रति गुस्सा दिख रहा था| एक गाँव के सरपंच ने अपना नाम उजागर न करने की शर्त पर बताया कि “कुछ नौजवान गाँव के गुरुद्वारे में अमृतपाल के पक्ष का पोस्टर लगा गये और हमारी पंचायत को उन्होंने कहा कि आप अमृतपाल को वोट देने के लिए पंचायत से प्रस्ताव पास करवाएं, उनके पक्ष में हमारे गाँव के नौजवान भी आ गये थे सो पंचायत द्वारा प्रस्ताव पास किया गया|” इस चुनाव प्रचार में अकाली दल के उम्मीदवार को छोड़कर बाकी पार्टियों के उम्मीदवार अमृतपाल की आलोचना करने से डरते रहे|
फरीदकोट से 70,053 मतों से आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार कर्मजीत सिंह अनमोल को हराने वाले सरबजीत सिंह खालसा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के कातिल बेअंत सिंह के पुत्र हैं| 1989 में उनके दादा और माँ भी आज़ाद उम्मीदवार के तौर पर लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं| सरबजीत सिंह खालसा भी पहले भी दो बार लोकसभा और एक बार विधानसभा का चुनाव लड़ चुका है| सरबजीत सिंह की चुनाव मुहीम को आखिरी दिनों में ज्यादा समर्थन मिला, उसने अपने चुनाव प्रचार में भावुक भाषण दिए कि उसके सारे परिवार ने पंथ के लिए अपनी जिन्दगी लगाई है|
सरबजीत सिंह को लोगों को समर्थन मिलने का अप्रत्यक्ष रूप में एक और कारण यह भी है कि पंजाब में चुनाव 1 जून को था जोकि ब्लूस्टार ऑपरेशन की बरसी के दिन होते हैं| फरीदकोट जिला में पड़ते गाँव बुर्ज जवाहरसिंह वाला में गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी का मामला भी 1 जून 2015 को घटा था और इसने अभी भी पंजाब की राजनीति को प्रभावित किया हुआ है| लोगों को पारम्परिक पार्टियों के प्रति गुस्सा है कि वे बेअदबी मामले में इंसाफ दिलाने में नाकाम रही हैं| ब्लू-स्टार ऑपरेशन का भी लोकसभा फरीदकोट क्षेत्र से गहरा रिश्ता है| जरनैल सिंह भिंडरावाला फरीदकोट लोकसभा क्षेत्र से ही सम्बन्धित थे| दरबार साहिब काम्प्लेक्स को फौज के हवाले न करने का फैसला करने वाले आई.ए.एस अधिकारी गुरुदेव सिंह भी फरीदकोट क्षेत्र से सम्बन्ध रखते थे| दरबार साहिब पर फौजी हमला करने वाले फौजी अफसर के.एस. बरार और उस समय के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह का सम्बन्ध भी लोकसभा फरीदकोट क्षेत्र के साथ है|
भारत के राष्ट्रीय मीडिया का एक हिस्सा इन दो उम्मीदवारों की जीत को पंजाब में खालिस्तान के सम्भावित खतरे के तौर पर पेश कर रहा है| पंजाब के सीनियर पत्रकार हमीर सिंह का मानना है, “सिर्फ इन दोनों की जीत को ही खालिस्तान के हौवे के तौर पर पेश करना गलत है, इस तरह की विचारधारा वालों ने सात-आठ जगहों से अपने उम्मीदवार खड़े किये थे जोकि बुरी तरह हारे हैं| लम्बे समय से खालिस्तान की बात करने वाले सिमरनजीत सिंह मान भी चुनाव नहीं जीत पाए| असल में इनकी जीत के और कारण हैं कि पंजाब के लोगों का सारी पार्टियों से विश्वास उठ चुका है| पंजाब इस समय गम्भीर आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक संकट से जूझ रहा है| किसानी, नौजवानी का संकट गहरा होता जा रहा है| पंजाब से जुड़े हुए संवेदनशील मुद्दे जैसे कि नशे का मुद्दा, बेअदबी का मुद्दा, सजा पूरी कर चुके सिख कैदियों की रिहाई का मुद्दा अभी भी हल नहीं हुए हैं| 2022 के विधानसभा चुनाव में ‘आप’ को लोगों ने बेमिसाल बहुमत दिया था लेकिन वह भी लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई| सियासी खला के कारण ही ये दोनों जीत पाए| मुझे नहीं लगता इनके पास पंजाब के मुद्दों बारे कोई स्पष्ट अप्रोच है| पंजाबी भावुकता में एकाधि बार बेशक जिता दें पर पंजाब में इस तरह की सोच लम्बे समय तक नहीं चलती|
भारतीय जनता पार्टी बेशक इन चुनावों में कोई सीट नहीं ले जा पाई पर उसने अपना वोट शेयर 9 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर लिया है| तीन लोकसभा हलकों में बीजेपी दूसरे नंबर पर आई है| उसके 5 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई है| भले ही पंजाब में भाजपा का व्यापक विरोध रहा हो, कई गांवों में भाजपा उम्मीदवारों को घुसने नहीं दिया गया, किसानों द्वारा काले झंडे दिखाए गये, कुछ जगह टकराव तीखा भी हुआ (हालाँकि हिंसक नहीं हुआ) लेकिन भाजपा ने शहरों में हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण करने में कुछ हद तक कामयाबी हासिल की है| गांवों में घुसने के लिए भाजपा ने दलितों में सेंध लगाने की कोशिशें की और जट्ट बनाम दलित करने की भी कोशिश की| फरीदकोट से भाजपा उम्मीदवार हंस राज हंस की मजहबी सिख भाईचारे को किसानों के विरुद्ध भड़काने की वीडियो सामने आई| भाजपा के सुनील जाखड़, रवनीत बिट्टू जैसे नेता भी किसानों के खिलाफ जहर उगलते नजर आये|
पंजाब के राजनैतिक इतिहास की समझ रखने वाले प्रोफेसर हरजेश्वर सिंह अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहते हैं, “पंजाब में पहली बार भाजपा की वोट प्रतिशत बढ़ना और कई सालों बाद दो उग्र सिख सोच वाले उम्मीदवारों का जीतना पंजाब की राजनीति में नया ट्रेंड है| इससे संदेह है कि कहीं पंजाब में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति अपना जोर न पकड़ ले| दोनों तरफ की साम्प्रदायिकता एक दूसरे को बढ़ावा देती हैं| इससे भाजपा हिन्दू वोटों को खालिस्तान का हौवा खड़ा करके डराने का काम कर सकती है| पंजाब में कुछ समय से कई तरह की शातिर चालें चली जा रही हैं| रवनीत बिट्टू को केंद्र में मंत्री बनाना भी भाजपा की टकराव की राजनीति का हिस्सा है|”
लेकिन प्रोफेसर जगरूप सेखों का मानना है, “पंजाब में किसी भी तरह की साम्प्रदायिक राजनीति नहीं चल सकती| यह जन आंदोलनों की धरती है| जब कहीं राजनैतिक खला होता है तो इस तरह की ताकतों का दांव लग जाता है| लेकिन यह लम्बे समय तक पंजाब में नहीं चलने वाला|”
कांग्रेस पार्टी ने सात सीटें लेकर अपनी वापसी की है भले की कुछ सीटों पर जीत का अंतर कुछ हज़ार मत ही रहा हो| कांग्रेस के आगे अभी भी आपसी गुटबाजी एक बड़ी चुनौती रहेगी| प्रोफेसर जगरूप सेखों का मानना है, “असल में लोगों की ‘आप’ के प्रति नाराजगी, अकाली दल का कमजोर हो जाना और भाजपा के प्रति गुस्सा कांग्रेस के लिये फायदेमंद साबित हुआ है| राहुल गाँधी की बदली हुई सियासत ने भी कहीं न कहीं कांग्रेस में जान डालने की कोशिश की है|”
पारम्परिक राजनैतिक पार्टियों के प्रति लोगों की उदासीनता ने पंजाब में एक सियासी खला (राजनीतिक शून्य या खालीपन) पैदा किया है| अब यह आगे चल कर ही पता चलेगा के इस खला को किस तरह की ताकतें भरती हैं!
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