विशेष: मंगलेश डबराल को हम क्यों याद करें
‘धमनियों में गूंजते इस गुस्से और इस प्रेम को देखो
इस बंजर को देखो जिसका हर कोना
एक नये मनुष्य की गंध से भर गया है
और सड़कें और टहनियां पानी और फूल
और रोशनी और संगीत
तमाम चीज़े हथियारों में बदल गयी हैं
चीखों और हाथों के चिह्न जहां-जहां छूटे हैं
देखो रक्त के थक्कों के नीचे
अब भी ज़मीन हरी है दरारों में पानी की छरछराहट है
और हमारी भूख है
जिसे हम सबसे ज़्यादा जानते हैं। ’
--मंगलेश की कविता ‘मुक्ति ’ (1973) से
कवि, गद्यकार और कला मर्मज्ञ मंगलेश डबराल (16 मई 1948—9 दिसंबर 2020) को याद करने का मतलब है, हिंदी साहित्य की वाम प्रतिज्ञा और वाम प्रतिरोध को याद करना। ये दोनों चीज़े—वाम प्रतिज्ञा और वाम प्रतिरोध—फ़िलहाल गहरे संकट में हैं।
मौजूदा हिंदी साहित्य समय गहरे दक्षिणपंथी सड़ांध में डूबा हुआ है। ‘नये मनुष्य की गंध’ नदारद है। वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच विभाजक रेखा को जानबूझकर बहुत धुंधला कर दिया गया है। कुछ अपवाद—बेशक महत्वपूर्ण अपवाद—ज़रूर हैं और वे उम्मीद का चिराग़ जलाये हुए हैं, लेकिन उन्हें क़रीब-क़रीब बेमतलब बना दिया गया है।
ऐसे में मंगलेश की यह आत्मभर्त्सना याद आती है: ‘मुझे शर्म आती है कि मैं हिंदी में लिखता हूं।’
हाल के वर्षों में हिंदी का जिस तेज़ी से हिंदूकरण हुआ है और वह हिंदुत्व फ़ासीवाद, मुस्लिम-विरोध, आतंक और नफ़रत की भाषा बनी है, मंगलेश उसका कट्टर आलोचक रहा है। उसकी यह टिप्पणी इसी संदर्भ में थी।
ध्यान देने की बात है कि जिस हिंदी में, तुलसीदास और रामचंद्र शुक्ल-जैसे घोर प्रतिक्रियावादी, ब्राह्मणी पितृसत्तावादी और वर्णव्यवस्थावादी रचनाकारों की वाहवाही मची हो (इसमें हिंदी का वामपंथी कुनबा भी शामिल है), उसका हिंदुत्व फ़ासीवाद की भाषा बन जाना लाज़िमी है।
मंगलेश ने ऐसे अवांछनीय तत्वों से भरसक अपने के दूर रखा। उसने हिंदी भाषा और साहित्य को ज़्यादा-से-ज़्यादा लोकतांत्रिक, उदार, सेकुलर, आधुनिक, वाममुखी और प्रेममय बनाने के लिए अपनी पूरी रचनात्मक ताक़त लगा दी। उसके इस योगदान को याद रखा जाना चाहिए।
यह सही है कि मंगलेश ने अपने इर्द-गिर्द कुछ ऐसे लेखकनुमा लगुए-भगुए और चापलूस पाल रखे थे, जो उसकी जय बोलने के साथ ‘जय तुलसीदास-जय रामचंद्र शुक्ल’ बोला करते और बनारस जाकर अपने माथे पर सफ़ेदा पोत लेते।
मंगलेश को अपनी तारीफ़ सुनना पसंद था और अपनी आलोचना सुनना नापसंद था। (हममें से कितने अपनी आलोचना सुन पाती/पाते हैं !) वह अक्सर आत्ममुग्ध रहता और अपने साहित्यिक प्रभामंडल में खोया रहता। शमशेर और रघुवीर सहाय के प्रति वह कुछ ज़्यादा ही मोहग्रस्त था। उसके कुछ ख़ास पसंदीदा कवि/लेखक थे, जिनमें वह सिमटा रहता। इनमें से कुछ निष्क्रियता के गायक और संगठन-विहीनता के पैरोकार थे। नये रचनाकारों के प्रति मंगलेश का रुख कई बार नौकरशाहराना और रुखा-सूखा होता और वह उनकी रचनाओं में मनमाना फेरबदल कर देता, बिना लेखक से पूछे (जब वह अख़बारों/पत्रिकाओं का साहित्य संपादक होता था)। उसके यहां आत्मसंघर्ष और आत्मलोचन की कमी थी। वामपंथ को लेकर दुचित्तापन भी उसके अंदर था।
यह सब सही है। लेकिन मंगलेश ने वामपंथ की राह कभी नहीं छोड़ी। यह बात नोट की जानी चाहिए कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह-भाजपा-आरएसएस के नेतृत्व में भारत जिस गर्त में जा रहा है, हिटलरी जर्मनी का नया फासिस्ट संस्करण बनने की तैयारी कर रहा है और देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का ब्यूप्रिंट तैयार हो रहा है—मंगलेश ने इस पर बराबर कस कर हमला बोला, एक फ़ाइटर की तरह।
जहां तक मुझे याद है, उसने हिंदुत्व फ़ासीवादियों और उनके समर्थकों / भोंपुओं के किसी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों / आयोजनों में, बतौर भागीदार, शामिल होने से मज़बूती से इनकार किया।
मंगलेश ने किसी नाथूराम गोडसे की जय नहीं बोली, किसी दीनदयाल उपाध्याय की चरण वंदना नहीं की, किसी हिंदी लेखिका को रंडी या छिनाल नहीं कहा, किसी रिसर्च स्कॉलर की अप्रकाशित थीसिस से पन्ने नहीं चुराये और न ही अपने नाम से छपवाया, राम मंदिर के लिए चंदा नहीं दिया, किसी हत्यारी हिंदू सेना के मुखिया के हाथों पुरस्कार नहीं लिया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का गुणगान करते और उसे ‘रिपब्लिक’ (गणराज्य) बताते हुए किताब नहीं लिखी, किसी आरएसएस-पंथी लेखक की किताब का ब्लर्ब या प्रशस्ति नहीं लिखी, राग भोपाली सुनते हुए किसी आरएसएस वाले का बचाव नहीं किया। और मंगलेश ने, जहां तक मेरी जानकारी है, किसी औरत/छात्रा का यौन शोषण नहीं किया। उदाहरण और भी हैं।
ऊपर जो कलंकित कारनामे गिनाये गये हैं, वे उन लेखकों के हैं, जो हिंदी की वाम-प्रगतिशील धारा से जुड़े रहे हैं। इनमें से तीन लेखक तीन वाम लेखक संगठनों के अध्यक्ष हैं। यह शर्नमाक दृश्य है। इस पाप में वे सभी शामिल हैं, जो इन लेखक संगठनों के अध्यक्षों की सवारियां अपने कंधों पर ढो रहे हैं।
एक काल्पनिक सवाल मन में आता है। अगर मंगलेश आज ज़िंदा होता, तो यह नज़ारा देख कर क्या कहता? शायद वह कहता, ‘ साथी, हिंदी साहित्यकारों में दक्षिणपंथी रुझान ज़ोर पकड़ रहा है और वे फ़ासिस्टों के कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए उतावले हो रहे हैं। कौन है वामपंथी और कौन है दक्षिणपंथी, यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है। अपने को सही साबित करने के लिए विश्वविद्यालयों के लिए विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर कई तरह के निर्लज्ज तर्क दे रहे हैं। ’
हालत यह हो गई है कि हिंदुत्व फ़ासीवादियों द्वारा चलाये जा रहे टेलीविज़न चैनलों के साहित्यिक कार्यक्रमों में—और इनके पत्रिका पुरस्कार अर्पण समारोह में—लिबरल और वामधारा के साहित्यकारों की आवाजाही बढ़ रही है। यह जानते हुए भी कि ये संगठन और मंच भाजपा-आरएसएस और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भोंपू हैं, तथाकथित नामी-गिरामी लेखक (जो हमारे समय के पतित नायक और दयनीय विदूषक बन गये हैं!) इनमें शामिल होने के लिए लाइन लगाये रहते हैं। उनकी देखादेखी नौजवान साहित्यकार उनके हमराह बन चले हैं।
मंगलेश इन सबसे निश्चित तौर पर अलग था।
(लेखक, मंगलेश डबराल के क़रीबी दोस्त और कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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