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लॉकडाउन में अंदर ही रहिए लेकिन सवाल कीजिए कि गरीब आदमी कैसे जी रहा होगा?

हमारे देश में अनगिनत ऐसे लोग हैं जो दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम दिन भर के हाड़ तोड़ मेहनत के बाद ही कर पाते हैं। इन जैसों के लिए 21 दिन बिना काम के रह पाना अपनी मरती हुई जिंदगी को और अधिक मारने के बराबर होगा।
दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम दिन भर के हाड़ तोड़ मेहनत के बाद
Image courtesy: Newsd

कोरोना वायरस से बचने के लिए 21 दिनों का लॉकडाउन कर दिया गया है। प्रधानमंत्री के शब्दों में कहें तो अगले 21 दिनों तक पूरे भारत में कम्पलीट लॉकडाउन रहेगा। मतलब पूरे भारत में कर्फ्यू ही समझिये। यानी अगले 21 दिनों तक पूरा देश बंद रहेगा। सारे कामकाज ठप्प रहेंगे। सारी आवाजाही बंद रहेगी। जो जहां हैं वह वही रहें। लोगों को अपने घर के अंदर दरवाजे बंद कर 24 घंटे रहना पड़ेगा।  

सामने खड़ी कोरोना वायरस जैसे संकट को देखकर कोई भी कहेगा कि प्रधानमंत्री ने बहुत सही फैसला लिया है। नि:संदेह जब दुनिया के सारे वैज्ञानिक करोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए बहुत सारे राय के बावजूद इस राय पर झुके हुए दिखाई दे रहे हो कि कोरोना वायरस से लड़ने के लिए लोगों को उनके घरों में बंद कर देना उचित कदम होगा यानी सोशल डिस्टैन्सिंग ही एक सहारा है तो प्रधानमंत्री का यह आदेश एक हद तक ठीक लगता है। इसलिए आप यह भी कह सकते हैं कि सरकारों को ऐसे कड़े फैसले लेने पड़ते हैं। लेकिन ठहरिये एक नागरिक के तौर पर गुलाम बनने का सारा खेल जिंदगी बचाने के ऐसे ही तर्कों से शुरू होता है।

सरकारों को कड़े फैसले लेने पड़ते हैं। इस तर्क को सबसे अच्छी तरह से सरकारें ही समझती हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम समझते हैं कि जिंदगी में नौकरी जरूरी है, नौकरी के साथ कुछ बचत जरूरी है ताकि जीवन ठीक-ठाक गुजर सके और जब कठिन समय आये तो संभला जा सके। तो सवाल यही है कि क्या सरकार ने पूरे समाज को ठीक ठाक किस्म का भी वह माहौल दिया है कि कोरोना वायरस जैसे कठिन समय का सामना कर पाए। तो जवाब है बिलकुल नहीं।

हमारे देश में अनगिनत ऐसे लोग हैं जो दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम दिन भर के हाड़ तोड़ मेहनत के बाद ही कर पाते हैं। इन जैसों के लिए 21 दिन बिना काम के रह पाना अपनी मरती हुई जिंदगी को और अधिक मारने के बराबर होगा। इसलिए सरकार के 21 दिनों के लॉकडाउन के आदेश को एक हद सही फैसला मानते हुए भी हम गरीबों की आवाज बनकर काम करने की कोशिश करते रहेंगे। 'सरकरों को कड़े फैसले लेने पड़ते हैं' ऐसे बरगलाने वाले तर्कों में फंसकर सरकार से सवाल पूछना बंद नहीं करेंगे।  

वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता ने प्रधानमंत्री की स्पीच पर सवाल उठाते हुए कहा कि प्रधानमंत्री ने गरीबों, दिहाड़ी मजदूरों और बेघरों के लिए विशेष मदद की घोषणा क्यों नहीं की? अगले तीन हफ्ते तक समाज के ये बेसहारा लोग कैसे जिंदा रहेंगे? इन लोगों के बारे में प्रधानमंत्री ने क्या सोचा जिन्हें अपने परिवार को पालने और वायरस से संक्रमित होने के बीच चुनाव करना पड़ेगा? जिस देश की जीडीपी तकरीबन दो सौ लाख करोड़ रुपये की हो, जिस देश का सलाना बजट तकरीबन 20 लाख करोड़ रुपये का हो। उस देश को लगातार 21 दिनों तक पूरी तरह से बंद करने पर केवल 15,000 करोड़ रुपये की मदद राशि। क्या आप इसे सरकारी मदद कहेंगे? क्या प्रधानमंत्री का दिल पसीजता नहीं है?

पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे के ताजा आंकड़े बताते हैं कि भारत में 48 करोड़ लोग काम करते हैं। इनमें से तकरीबन 33 करोड़ लोग इनफॉर्मल सेक्टर में काम करते हैं। मोटे तौर पर इनफॉर्मल सेक्टर का मतलब यह समझिये कि इसमें नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं होती है। पेट पालने वाली नौकरी होती है। मालिक का मने करे तो रखे आपको और न मन करे तो निकाल दे। यानी मालिक को कमाई नहीं हुई तो आपकी नौकरी जानी तय है।

इनफॉर्मल सेक्टर में काम करने वाले लोगों की संख्या अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है।  दिल्ली और गोवा जैसे राज्यों में इनफॉर्मल सेक्टर में काम करने वाले लोगों की संख्या क्षेत्र में तकरीबन 38% है। महाराष्ट्र में 71%, उत्तर प्रदेश और बिहार में 85% और 86% है। यानी राज्यों के विकास का जैसा स्तर वैसा वहां का इन्फॉर्मल सेक्टर।  

इंटरनेशनल लेबर ओर्गनाइजेशन ने एक सुझाव दिया है। इंटरनेशनल लेबर ओर्गनाइजेशन का अनुमान है कि भारत में इनफॉर्मल सेक्टर में काम करने वाले प्रति व्यक्ति प्रति दिन तकरीबन 150 रुपये कमाता है। इसलिए इन दो तीन महीनों में भारतीय राज्य को इनफॉर्मल सेक्टर के हर एक कामगार को 10,000 रुपये नकदी बिना किसी शर्त दे देना चाहिए।

तकरीबन 30 करोड़ लोगों पर किया गया यह पूरा खर्चा भारत के 2019-20 के कुल जीडीपी का 1.5 फीसदी होगा। लेकिन सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। मदद के तौर पर टोकन मनी के हिसाब से 15 हजार करोड़ रुपए देने की घोषणा के दी। इससे ज्यादा तकरीबन 20 हजार करोड़ रुपये मदद की घोषणा तो केरल सरकार ने की है।  

अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज द हिन्दू में लिखते हैं कि इस बंदी की सबसे अधिक मार गरीब आदमी झेलगा। जो हर दिन जिंदगी जीने की लड़ाई लड़ता है। प्रवासी मजदूर, फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर, चना बेचकर चैन की नींद खरीदने वाले मजदूर, दूसरों की जमीन पर काम करने वाले मजदूर जैसे तमाम लोगों को इस बंदी की सबसे अधिक मार झेलनी पड़ेगी। महामारी को धीमा करने के लिए उठाया गया कदम ठीक है। लेकिन भारतीय मजदूर इतनी बड़ी बंदी को सहन नहीं कर सकता है। इसे सही तरह के सरकरी मदद की जरूरत होगी। हमारी सामजिक सुरक्षा योजनाएं इटली और कनाडा की तरह नहीं है कि हम बहुत लम्बे दिनों तक बंदी झेल पाएं।

सबसे पहले तो हम यही कर सकते हैं कि मनरेगा, पेंशन योजना, किसान समृद्धि योजना, मिड- डे- मील जैसी तमाम योजनाओं से जुड़े लोगों तक जल्दी से एडवांस पहुंचा दी जाए। पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम के सहारे लोगों तक जरूरी सामान उपलब्ध करवाने की व्यवस्था की जाए।  

आप देख ही रहे हैं कि फैक्ट्रियां बंद हो गयी हैं और मजदूर पैदल अपने घर की तरफ निकल पड़े है। सैकड़ों किलोमीटर पैदल तय करने के इरादे से निकल चुके हैं। यह बहुत दर्दनाक है।  स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव कोरोनावायरस से प्रभावित हो रही आम लोगों की जिंदगी को ध्यान में रखकर हर रोज शाम को फेसबुक लाइव कर हे हैं। सरकार से सवाल पूछ रहे हैं और बहुत सारे सामाजिक कार्यकर्ताओं के छपे सुझावों को इकठ्ठा कर सरकार को सुझाव दे रहे है। योगेंद्र यादव ने अपने फेसबुक लाइव में माइग्रेंट मजदूरों के बारे में बात रखते हुए कहा कि मजदूरों को नौकरियों से बाहर निकाला जा रहा है, पेमेंट नहीं मिल रही है। कमाई कम हो गई है, खर्चा बढ़ गया है।  क्योंकि चीजें महंगी हो गई है।  30% के करीब लोगों के पास राशन कार्ड भी नहीं है।

मजदूर अपने गांव बिहार-यूपी जहां भी है, वहां वापस जाना चाहते हैं लेकिन उनके पास पैसे नहीं हैं।  उनका बकाया पेमेंट उन्हें नहीं मिला है। जो लोग निकल चुके हैं, उनमें से बड़ी संख्या में मजदूर रास्ते में अटके हुए हैं। हमारे पास रिपोर्ट आ रही है, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, पटना में भी ऐसी स्थिति है। कोई उन्हें उनके गांव तक पहुंचाने की व्यवस्था करने वाला नहीं है। कुछ मजदूर तो पैदल चल रहे हैं क्योंकि उनके पास कोई चारा नहीं है।  ऐस में सरकार को पांच सुझाव देना चाहेंगे। पहला , इमरजेंसी ट्रेन नहीं तो कम से कम बसें चलवाई जाएं ताकि जो लोग रास्ते में फंसे हुए हैं, उन्हें उनके गांव तक पहुंचाने की व्यवस्था हो।

दूसरा, रिट्रेंचमेंट पर बैन लगे, सभी उद्योगों को स्पष्ट रूप से निर्देश दिया जाए कि कच्चे, पक्के कर्मचारियों को नौकरी से हटाया ना जाए। तीसरा, मकानमालिक किसी भी किरायेदार से घर खाली करने को न कहें, इसपर बैन लगाा जाए। चौथा, बिजली और पानी के बिल इस समय माफ कर दिए जाएं। पांचवा, खाने का संकट आ रहा है।  तमाम लोगों को चाहे जिनके पास राशन कार्ड हो या ना हो उन्हें एक न्यूनतम राशन जिसमें गेहूं, चावल के अलावा दाल, तेल, साबुन उपलब्ध कराई जाए।

आम जिंदगियों की अगले 21 दिनों में विकराल परेशानियों को एक लेख में समेटना बहुत मुश्किल काम है। फिर भी आप इन बातों से यह तो अंदाज़ा लगा सकते हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा 15 हजार करोड़ रुपये की मदद राशि, इन परेशानियों के सामने रत्ती बराबर भी नहीं है। यह भी समझ सकते हैं कि प्रधानमंत्री ने 21 दिनों की बंदी का फैसला लेते हुए गरीबो के बारें में कुछ भी नहीं सोचा। हो सकता है कि आप यह भी सोचें कि जिंदगी बचानी जरूरी है न कि गरीबों के बारे में सोचना। तो यकीन मानिये एक मुकम्मल समाज और देश आप कभी नहीं बना पाएंगे। आप अपनी क्षुद्रता में ही मर जाएंगे।

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