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पराली और प्रदूषण: किसानों के सिर ठीकरा फोड़ने की साज़िश

बहुत आसान है यह कह देना कि किसान चूँकि धान की पुआल (पराली) जलाते हैं, इसलिए दिल्ली पर स्मॉग छाया है। यानी शहरियों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ किसान कर रहे हैं। इस तरह वे लोग साफ़ बच निकलते हैं जो शहरों का जीवन नरक बना रहे हैं।
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Image courtesy : The Indian Express

पूंजीवाद और उपभोक्तावाद अपनी ग़लतियों का ख़ामियाज़ा सदैव ग़रीब और समाज के निचले तबकों पर डालता है। जैसे अब प्रदूषण के लिए शहरों को नहीं गाँवों को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है। बहुत आसान है यह कह देना कि किसान चूँकि धान की पुआल (पराली) जलाते हैं, इसलिए दिल्ली पर स्मॉग छाया है। यानी शहरियों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ किसान कर रहे हैं। इस तरह वे लोग साफ़ बच निकलते हैं जो शहरों का जीवन नरक बना रहे हैं। असली कारण कुछ और हैं लेकिन शहरी मध्य वर्ग ने किसान को अपना शत्रु मान लिया। यह सरासर झूठ है लेकिन इतनी ज़ोर से बोला जा रहा है, कि कोई भी इसको काउंटर नहीं कर सकता। पूंजीवाद अपनी पूंजी के लिए हर किसी से उसकी हवा, पानी छीन रहा है और किसी भी तरह का लिहाज़ नहीं कर रहा। मगर शत्रु बन गए किसान।

अब पूंजीवाद और उसके वाहक तो ग़रीब देशों का अपना पैसा बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करते हैं और ख़ुद रहने के लिए योरोप का चयन करते हैं। अब देखिये, मुकेश अंबानी मुंबई की बजाय लंदन में रहेंगे। ऐसे देशों का शासक वर्ग इन पूंजीपतियों के लिए सहायक बनता है और लाभ उठाता है। जनता की परवाह उसे कब रही। अभी पिछले हफ़्ते दीवाली के अगले रोज़ मैंने दिल्ली से बाहर पंजाब जाने की ठानी। दिल्ली की आउटर रिंग रोड पकड़ी और बुराड़ी से एनएच-वन पकड़ कर सोनीपत, समालखा, पानीपत, करनाल, कुरुक्षेत्र, शाहाबाद-मारकंडा होते हुए अम्बाला पहुंचा। वहाँ से राजपुरा फिर पटियाला।

बठिंडा फोर लेन के दोनों तरफ दूर-दूर तक धान की फसल कट चुकी थी और रबी की बुवाई की तैयारी चल रही थी। बीच-बीच में धान के पुआल (पराली) मैंने जलते हुए देखी भी। उसका धुआँ आसमान में उड़ता जा रहा था। कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि दिल्ली से 200 किमी दूर जल रही इस पराली से दिल्ली की हवा प्रदूषित हो रही होगी। जब वहां एकदम पास खड़े मुझे उस धुएं से कोई परेशानी नहीं हो रही थी तब फिर कैसे मान लिया जाए कि इस पराली का धुआँ दिल्ली जाकर मार करता होगा।

मुझे चूँकि पटियाला नहीं रुकना था और मेरा गंतव्य भाखड़ा नंगल था इसलिए हम पटियाला शहर के बाहर से ही यू टर्न लेकर सरहिंद की तरफ लौट आए। दरअसल हमारे गूगल मैप ने हमें सौ किमी भटका दिया था। हमें शंभू बैरियर से दाएँ मुड़ना था और हम बाएँ मुड़कर पहुँच गए पटियाला। लेकिन इस भटकाव के चलते पंजाब के अंदरूनी हिस्से को काफी करीब से देखा। वहां का साफ़ और स्वच्छ वातावरण तथा वहां की किसानी की समृद्धि भी। जो हरित क्रांति की देन है और भाखड़ा नंगल बाँध ने जिसे और सरसब्ज़ किया। सरहिंद से रोपड़ (रूपनगर) और आनंदपुर साहिब होते हुए शाम सात बजे के करीब जब हम भाखड़ा नंगल डैम के गेस्ट हाउस भाखड़ा-सदन पहुंचे तब वहां शाल ओढ़ने का मन कर रहा था।

वहां का पारा दिल्ली से तीन-चार डिग्री कम रहा होगा जबकि समुद्र तल से ऊँचाई बराबर। यह कमाल था वायु में धूल के कण नहीं होने तथा अपने आस-पास गन्दगी नहीं जमा होने देने का। इसके अलावा नहरें और पोखरों के विस्तार का। सतलुज का पानी इस पूरे क्षेत्र की धूल को अवशोषित कर लेता है। यहाँ सतलुज का साफ़ हरा पानी देखकर लगता है कि हम पानी के स्रोतों को साफ़ रखेंगे तो पानी भी हमारा ख्याल रखेगा। अब दिल्ली में जमना को देखिए वजीराबाद से उसमें गन्दगी डालनी शुरू हो जाती है और मथुरा और आगरा तक की गंदगी वह समेटती रहती है। ऐसे में उससे कैसे उम्मीद की जाए कि वह अपने पास के शहरों के प्रदूषण को अवशोषित करती ही रहेगी।

दिल्ली में लोग शहर में बढ़ते प्रदूषण का ठीकरा कभी हरियाणा-पंजाब के किसानों द्वारा पराली जलाए जाने पर फोड़ते हैं तो कभी बिहार और पूर्वांचल समाज की छठ पूजा को बताते हैं। लेकिन कभी भी वे आत्म अवलोकन नहीं करते कि दिल्ली के प्रदूषण की वज़ह कोई और नहीं बल्कि वे स्वयं हैं जो अपने घर और शहर की गंदगी को अपनी जीवनदायिनी नदी यमुना में फेकते रहते हैं। हालाँकि दीवाली के आस-पास जैसे ही प्रदूषण बढ़ता है फ़ौरन यह कहा जाना शुरू हो जाता है कि हरियाणा-पंजाब के किसानों द्वारा पराली जलाए जाने के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है। मगर आज तक खुद सरकारी आंकड़े यह नहीं बता सके कि दिल्ली में प्रदूषण की वज़ह पराली ही है। यही कारण है कि कोर्ट ने पहले तो दिल्ली में पटाखों की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगाया अब डीजल जेनरेटरों पर भी लगा दिया है। कई स्थानों पर तो गाड़ियों के हार्न बजाने पर भी रोक है।

सिस्टम ऑफ एयर क्वॉलिटी एंड वेदर फॉरकास्टिंग एंड रिसर्च (सफ़र) ने चेताया है कि राष्ट्रीय राजधानी में हवा की क्वालिटी 'खराब' हो गई है और आने वाले दिनों में हालात और बिगड़ेंगे। वायु गुणवत्ता सूचकांक के 'खराब' होने का मतलब है कि लोग यदि ऐसी हवा में लंबे समय तक रहें तो उन्हें सांस लेने में तकलीफ का सामना तो करना ही पड़ेगा। उनके फेफड़ों और दिल पर बुरा असर पड़ेगा। 

प्रदूषण के स्तर में हुई इस बढ़ोतरी के लिए पंजाब और हरियाणा जैसे पड़ोसी राज्यों में पराली (फसल के अवशेष) जलाने, 'साइक्लोनिक सर्कुलेशन' (कम दबाव का क्षेत्र होने के कारण हवा का घूर्णन गति में चलना) और हवा की रफ्तार में गिरावट को जिम्मेदार करार दिया जाता है। ‘सफर’ के मुताबिक आने वाले दिनों में पीएम 2.5 का स्तर 100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर और पीएम 10 का स्तर करीब 190 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर को पार कर जाएगा। पीएम 2.5 और पीएम 10 के लिए निर्धारित मानक 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर और 100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब खुद केंद्र सरकार के मंत्री पराली को दिल्ली के प्रदूषण का जनक नहीं मानते तब नाहक क्यों यह ठीकरा पंजाब और हरियाणा के किसानों पर फोड़ा जा रहा है।

मैं खुद भी परिवार समेत दीवाली पर बाहर इसलिए ही गया था ताकि दिल्ली की प्रदूषित हवा से कुछ दूर रहा जा सके। और इसके लिए मैंने वह मार्ग पकड़ा जिसे प्रदूषण का स्रोत कहा जाता है। लेकिन मैंने अपने लगभग हज़ार किमी के सफ़र और चार दिन के प्रवास में कहीं नहीं पाया कि धान का पुवाल अथवा खेतों में ठूंठ आदि एकमुश्त जलाए जा रहे हों और वहां धुआँ फ़ैल रहा हो। जब पंजाब-हरियाणा और चंडीगढ़ में मुझे शाम और सुबह का मौसम खुशगवार लगा तो किस आधार पर कह दिया जाए कि दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण की वज़ह पराली है। मज़े की बात अभी कुछ वर्ष पहले 16 नवम्बर को तत्कालीन पर्यावरण मंत्री ने लोकसभा में इस बात का खंडन किया था कि पराली से दिल्ली में प्रदूषण फैलता है। सच बात तो यह है कि दिल्ली या किसी भी बड़े शहर के लोगों को अपने पानी के स्रोत बचे रखना होगा और उन्हें स्वच्छ भी रखना होगा। बेहतर है कि दिल्ली वासी पंजाब की नदियों की सफाई से यह बात सीखें।

अगर मान भी लें कि पराली के धुएँ से प्रदूषण फैलता है तो बताता चलूँ कि इन दिनों दिल्ली में जो हवा बहती है वह पश्चिम से आती है। जबकि दिल्ली से सटे हरियाणा में धान नहीं गन्ना किसानों के इलाक़े हैं। धान तो करनाल, कैथल, पटियाला और बठिंडा का इलाक़ा है, जिसका धुआँ पश्चिमी उत्तर प्रदेश होते हुए जाएगा और वहाँ प्रदूषण समस्या नहीं है। यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश के जिन इलाक़ों में धान बोया जाता है, वे भी अब पराली जलाते हैं लेकिन उनका धुआँ उल्टा दिल्ली तो आएगा नहीं। सच यह है कि दिल्ली एनसीआर में बढ़ता कारों का प्रदूषण और निरंतर चल रहे भवन निर्माण के चलते प्रदूषण बढ़ रहा है। फिर अब तो लुटियन जोन्स की पुरानी बिल्डिंगों को तोड़ कर नया बनाया जा रहा है, ऐसे में प्रदूषण तो बढ़ेगा ही। इसलिए कृपया किसानों को टॉरगेट न करिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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