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आत्महत्या : कई बेहद परेशान करने वाले तथ्य लेकर आया है एनसीआरबी डाटा

आपको मालूम है कि यंग इंडिया खुशहाल नहीं है। दैनिक मजदूरों ने किसानों से ज़्यादा आत्महत्या की है। और कामकाजी महिलाओं से अधिक घरेलू महिलाएं आत्महत्या करती हैं। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एनसीआरबी डाटा प्रकाशित होने के बाद भी सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।
NCRB Suicide Data
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : The Economic Times

एक सितम्बर 2020 को एनसीआरबी (NCRB), जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कार्य करता है, ने वर्ष 2019 के लिए अपराध और आत्महत्या संबंधित डाटा जारी किया। इसी में एक अलग हिस्से के रूप में ‘भारत में दुर्घटना से मृत्यु और आत्महत्याएं’ (Accidental Deaths and Suicides in India) प्रस्तुत है। रिपोर्ट के अनुसार 2019 में भारत में 139,123 आत्महत्या के मामले दर्ज हुए, जो 2018 की तुलना में 5000 अधिक थे।

यदि हम तुलना करें तो 7 सितम्बर 2020 तक कोविड-19 से हुई मौतें 71,642 थीं, जो लगभग इसकी आधी थीं। हां, कोविड से होने वाली मौतें साल के अन्त आने से पूर्व दूना हो सकती हैं, पर यह संख्या संभवतः साल के अंत तक होने वाली आत्महत्याओं के बराबर ही होगी। फिर भी बढ़ती आत्महत्याओं पर ध्यान और चिंता कोविड़-19 से काफी कम है।

राज्य ने तो आत्महत्याओं को पूरी तरह से नज़रंदाज कर दिया है, जबकि उसके आंकड़े कम चौंकाने वाले नहीं हैं। जबकि यह सच है कि कोविड का संक्रमण तेज़ रफ्तार से बढ़ रहा है और उसकी रोकथाम जरूरी है, हम यहां जोर इस बात पर देना चाहेंगे कि आत्महत्याओं को रोकने के लिए भी कारगर कदम उठाए जाने चाहिये।

एनसीआरबी डाटा प्रकाशित होने के बाद भी सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है; यह दुर्भाग्यपूर्ण है। लगता है कि आंकड़े जारी कर देना एक रूटीन मामला बनकर रह गया है। अधिक-से-अधिक यह एक मीडिया इवेंट बनकर रह जाता है। टीवी चैनलों में आंकड़े पेश किये जाते हैं और कुछ आखबारों में 2-3 दिनों तक समीक्षाएं छप जाती हैं। अगले साल फिर यही प्रक्रिया दोहराई जाती है।

भारत में आत्महत्या के रुझान देखें तो उनका वैश्विक रुझान से सामंजस्य साफ नजर आता है; दोनों 6 अंकों में हैं। विश्व में प्रतिवर्ष 800,000 लोग आत्महत्या करते हैं। इसके मायने है हर 40 सेकेंड में एक आत्महत्या होती हैं। यह डब्लूएचओ द्वारा 9 सितम्बर 2019 को जारी रिपोर्ट में उपलब्ध नवीनतम आंकड़े हैं; 10 सितम्बर को विश्व आत्महत्या निवारण दिवस था। आत्महत्या से मृत्यु आज युद्ध और संघर्ष में मरने वालों से अधिक है। उदाहरण के लिए यह 800,000 की संख्या 11 सितम्बर 2001 (9/11) से लेकर 13 नवम्बर 2019 तक अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, यमन और पाकिस्तान में युद्ध और संघर्षों में मारे जा रहे लोगों के बराबर है; यह संग्रह ब्राउन विश्वविद्यालय ने किया है। आत्महत्याओं की इतनी बड़ी संख्या इस बात के बावजूद है कि आत्महत्या निवारण यूएन के सतत विकास लक्ष्यों या एसडीजीज़ में से एक है। 15-29 उम्र के जवानों के बीच आत्महत्या मौत का दूसरा बड़ा कारण है, जिसने 2016 में 200,000 जानें ले ली; पहला कारण है सड़क दुर्घटना।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार भारत में आत्महत्या की दर 100,000 लोगों में 16.5 है। यह दक्षिण और पूर्वी एशिया क्षेत्र का डब्लूएचओ का सबसे ऊंचा आंकड़ा हैं। एनसीआरबी का आंकड़ा 10.4, इससे काफी कम है, पर इसका कारण स्पष्ट नहीं है। क्या एनसीआरबी आंकड़ों को घटाकर दिखा रहा है? फिर, इस वर्ष कुछ नई जटिलताएं भी हैं। आशंका है कि कोविड-19 भी वार्षिक आत्महत्या दर को काफी बढ़ा सकता है। परंतु, भारत में इस वित्तीय वर्ष के पहले क्वाटर में अर्थव्यवस्था एक-चैथाई सिकुड़ चुकी है, और 100 वर्षों में पहली बार देश सबसे बुरे आर्थिक मंदी (depression) की ओर बढ़ रहा है। दसियों लाख लोगों की नौकरियां जाने को हैं और दसियों हज़ार बिज़नेस बन्द हो रहे हैं। ये ऐसी परिस्थितियां हैं जिनके कारण आत्महत्या का दर और भी बढ़ सकता है तो सरकार को गंभीरता से इस मुद्दे पर काम करने की जरूरत है।

चलिए हम देखें कि सरकार ने बढ़े हुए आत्महत्या दर और भविष्य में उसके और बढ़ने की संभावना के प्रति क्या रिस्पांस दिया है। भारत ने नीतिगत स्तर पर केवल किसान आत्महत्या को संज्ञान में लिया है। इसके अलावा आत्महत्या को न ही मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा माना गया और न ही सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर की चुनौती के रूप में  तो सरकार का इसे समझ पाना दूर की बात है। यद्यपि एनसीआरबी केंद्रीय गृह मंत्रालय का हिस्सा है, उसका काम केवल जिला हेडक्वाटरों से आंकड़े जुटाकर अकादमिक रिर्पोर्ट पेश करना बना हुआ है। भारत में एनसीआरबी या कोई भी अन्य डेडिकेटेड संस्था शोध के आधार पर आत्महत्याओं के रोकथाम के तरकीब नहीं सुझाता न ही रियल-टाइम आत्महत्या जांच पैनेल के रूप में काम करता है। तो आत्महत्याएं कैसे रुकें?

इससे पहले किसानों की आत्महत्या भारत में प्रमुख सवाल बन गया था। राजनीतिक रूप से भी कई राज्यों और राष्ट्रीय स्तर पर यह मुख्य सवाल बना। लगभग सभी राजनीतिक रंगों की राज्य सरकारों को बाध्य होकर कर्ज माफी की घोषणा करनी पड़ी, भले ही वह कम या ज्यादा रही हो। यह परिदृष्य 2017 तक भयावह हो गया। अब एनसीआरबी के आंकड़े कुछ दूसरे लक्षण पेश कर रहा है।

भारत में 2019 के 139,123 आत्महत्याओं में से दैनिक मजदूरों की आत्महत्याएं 32,563 यानी 23.4 प्रतिशत थे। घरेलू महिलाओं की आत्महत्या का आंकड़ा था 21,359, यानी 15.4 प्रतिशत, स्वरोजगार में संलग्न लोगों (कृषि में लगे लोगों के अलावा) की आत्महत्या का आंकड़ा 16,098, यानी 11.8 प्रतिशत है और बेरोजगारों में आत्महत्या का आंकड़ा 14,019 या 10.1 प्रतिशत है, पेशेवर लोगों और वेतनभोगियों में यह संख्या 12,725 या 9.1 प्रतिशत है और छात्रों का आंकड़ा 10,335 या 7.4 प्रतिशत है। यह संख्या कृषि में लगे लोगों (10,281 या 7.4 प्रतिशत) से कुछ अधिक हो गई है।

कृषि क्षेत्र में भी देखा गया कि किसान आत्महत्या का आंकड़ा, जो 5,957 या 4.3 प्रतिशत है, खेत मजदूरों की आत्महत्याओं (4,324 या 4.1 प्रतिशत) से अधिक था। इसके मायने हैं कि अनौपचारिक श्रमिकों, जिसमें गैर-कृषि दैनिक मजदूर और खेतमजदूर आते हैं, किसानों की अपेक्षा छः गुना अधिक आत्महत्या करते हैं। यह मोदी-युग के मजदूर संकट का एक पहलू है।

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पर एनसीआरबी डाटा में पिछले तीन सालों में किसान आत्महत्या के क्रमशः घटते आंकड़े यह नहीं साबित करते कि कृषि संकट से निजात पा लिया गया है। आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि ग्रामीण संकट से कहीं कम नहीं है शहरों का संकट। मस्लन मुम्बई और चेन्नई विदर्भ और ग्रामीण कर्नाटक के समकक्ष पाए गए।

यह भी संभव है कि किसान आत्महत्या के घटते आंकड़े राज्य सरकारों और केंद्र सरकार द्वारा डाटा में तोड़-मरोड़ (manipulation) के माध्यम से तैयार किये गए हों, महज इसलिए कि यह  मामला राजनीतिक रूप से उछल रहा था। गृह मामलों के केंद्रीय राज्य मंत्री किशन रेड्डी ने अप्रत्यक्ष रूप से इसे संसद में कबूला भी। 2018 से पूर्व किसान आत्महत्या के आंकड़ों को अलग-अलेग हेड (heads) के तहत दर्ज किया जाता था, जैसे कर्ज, जमीन खोना, अनाज नष्ट होना, या फिर बीमारी अथवा पारिवारिक समस्याएं जैसे व्यक्तिगत मामले। एनडीए सरकार ने 2017 से इसे खत्म कर दिया तो 2018 की रिपोर्ट में अलग हेड नहीं दर्शाए गए। जब राज्य सभा में कांग्रेस सांसद हुसैन दलवई ने पूछा कि ऐसा क्यों किया गया, किशन रेड्डी ने 27 नवम्बर को एक लिखित उत्तर में कहा,‘‘ जैसा कि एनसीआरबी ने सूचित किया, कई राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों ने बहुत बार जांच करने के बाद भी किसानों/जोतदारों और खेत मजदूरों की आत्महत्या की संख्या ‘‘निल’’ थी, जबकि अन्य पेशों में आत्महत्याएं रिपोर्ट हो रही थीं।

इस सीमा के कारण कृषि क्षेत्र में आत्महत्या के कारण असमर्थनीय हैं और अलग से प्रकाशित नहीं किये गए’’। तो डेटा छिपाने का ठीकरा राज्यों के सिर फूटा। पर पैनी नज़र से देखें तो पता चलता है कि जिन 9 राज्यों ने ‘निल’(Nil) रिपोर्ट किया उनमें से पश्चिम बंगाल को छोड़कर बाकी 8 भाजपा शासित प्रदेश थे। जैसे पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कॉरपोरेट घरानों को टैक्स माफी के कारण राजस्व के घाटे को केंद्रीय बजट में छिपाया था और मोदी ने एनएसएसओ (NSSO) के बेरोजगारी के आंकड़े दबा दिये थे, वैसे ही इस मामले में भी किया गया।

इसे छोड़ भी दें तो कुछ और परेशान करने वाले तथ्य 2019 के एनसीआरबी डाटा में सामने आए हैं। पहला है ‘विकास का विरोधाभास’ यानी जितना अधिक कोई राज्य विकसित होता है, उतनी ही अधिक आत्महत्याएं उस राज्य में होती हैं। महाराष्ट्र सूची में सबसे ऊपर था क्योंकि उसमें 13.6 प्रतिशत आत्महत्याएं हुईं। ठीक दूसरे नम्बर पर एक और विकसित राज्य तमिलनाडु आता है, जहां 9.7 प्रतिशत आत्महत्याएं हुई थीं। क्या हम कह सकते हैं कि विकसित राज्यों में लोगों की आकांक्षाएं काफी बढ़ी हुई होती हैं और पूरी न होने के चलते वे जीवन से निराश हो रहे हैं?

दूसरा चैंकाने वाला पहलू है घरेलू महिलाओं की आत्महत्या का आंकड़ा। इसे आप ‘परिवार के स्थायित्व का विरोधाभास’ कह सकते हैं। कामकाजी महिलाओं से अधिक घरेलू महिलाएं आत्महत्या करती हैं। पर यह शोध करने की बात है कि क्या घरेलू महिलाओं को अन्य करणों से उत्पीड़ित कर मार डालने पर भी कई मामलों में हत्याओं को भी आत्महत्या करार दिया जाता है? कुल मिलाकर भारत में ये आत्महत्या के रुझान गहरी जांच और व्याख्या की मांग करते हैं।

यंग इंडिया (young India) यानी युवा इंडिया खुशहाल नहीं है- यही संदेश हमें एनसीआरबी रिपोर्ट से मिलता है। 2019 में 18 से कम उम्र के नाबालिगों की आत्महया का आंकड़ा 9613 था। और 18-30 उम्र वालों का आंकड़ा 48774 है, जो काफी अधिक है, और हम देख रहे हैं कि हर तीसरा व्यक्ति जो आत्महत्या करता है, वह युवा वर्ग का है! हर कोई जानता है कि सिद्धान्ततः आत्महत्या करना गलत है और इससे हमेशा बचने के उपाय उपलब्ध हैं। पर सबसे दुखद और क्रूर होता है किसी युवा का उस समय अपने जीवन को खत्म कर देना जब वह समाज को बहुत कुछ दे सकता है। यदि युवाओं को समाज जीने लायक नहीं लगता तो यह गंभीर बात है।

समाज को अपने भीतर झांककर उस सामाजिक पारिस्थितकी को बदलने की जरूरत है जो आत्महत्या की परिघटना को पैदा करती है। युवा आत्महत्या को परखें तो दोनों ऊपरलिखित ग्रुपों में 18748 अपने को ‘पारिवारिक समस्याओं’ के चलते खत्म करते हैं। 5398 युवा प्रेम में विफलता के चलते, 1428 बेरोजगारी की वजह से और 1577 परीक्षा में अपेक्षित परिणाम न मिलने से अपनी जान ले लेते हैं। रिपोर्ट नहीं बताती कि ‘पारिवारिक समस्याएं’ क्या हैं। यह भी नहीं बताया गया कि तमाम किस्म के उत्पीड़न, चाहे वह संस्थाओं/ बॉस/ मालिकों द्वारा हो, या अध्यापकों, सहकर्मियों या सहपाठियों द्वारा हो, के चलते कितने युवा अवसाद में जाकर आत्महत्या करते हैं। राजनीतिक नेतृत्व और न्यायपालिका को चाहिये कि वे पुलिस को बाध्य करें कि वे ऐसे आम किस्म के कारणों के तहत आत्महत्या दर्ज न करें।

बाहर से स्थायित्व और सुरक्षा के लिए जाने जाने वाले परिवारों के भीतर की कहानी कुछ और कहती है। 2019 में 41,493 महिलाओं ने आत्महत्या की। पुरुषों द्वारा 97,613 आत्महत्याओं से भले ही यह कम है, पर 15,025 महिलाओं के लिए कारण बताया जाता है ‘पारिवारिक समस्याएं’। ये क्या हैं पता नहीं लगता। हत्या व आत्महत्या के लिए ससुराल द्वारा उकसाना या अबेटमेंट टू सुइसाइड (abetment to suicide) के केस भी इनमें बड़ी संख्या में होंगे, जो शीर्षक से स्पष्ट नहीं होता। प्रेम (love affairs) से जुड़े मामलों के चलते 2637 महिलाओं ने आत्महत्या की। 4213 मामले विवाह से जुड़े थे। तो प्रेम, विवाह, पारिवारिक जीवन महिलाओं द्वारा आत्महत्या के मामलों में तकरीबन आधे हैं, जबकि गरीबी और बेरोजगारी के चलते क्रमशः 181 और 342 आत्महत्याएं ही हुईं।

हम इससे निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि महिलाओं में मनोवैज्ञानिक तनाव सामाजिक-आर्थिक कारणों के चलते तनाव से कहीं अधिक है। यह हमारे देश में एक सांस्कृतिक क्रान्ति की मांग करता है। पर राज्य की भी इस स्थिति को बदलने में बड़ी भूमिका हो सकती है। महिला संगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं और कानूनी मदद करने वाले संगठनों ने हेल्पलाइन चलाकर, काउंसेलिग सेंटर, शॉर्ट-स्टे होम (short stay homes), पुनर्वास केंद्र आदि खोलकर महिलाओं की काफी मदद की है वरना आंकड़े और भी भयावह होते। पर कम्युनिटी की निगरानी और देख-रेख यदि हो, तो ऐसी बहुत से वारदात रोकी जा सकती हैं।

इसी तरह हमारे देश के विकास के रास्ते पर भी जांच होनी चाहिये। क्यों वे लोग जो इस विकास को संभव बनाते हैं, स्वयं गहरी परेशानी में हैं और जीवन जीना उनके लिए बोझ बन गया है? 2019 और 2020 में महाराष्ट्र जीएसडीपी के मामले में पहले स्थान पर था और तमिलनाडु दूसरे स्थान पर। पर प्रति व्यक्ति आय (per capita income) के मामले में वे क्रमशः सातवें और आठवें स्थान पर थे। पर महाराष्ट्र का प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय का गैरबराबरी का गिनी गुणांक (Gini Coefficient for inequality) 1973-74 में 0.26 से बढ़कर 2004-5 में 0.35 हो गया था और तमिलनाडु का उसी दौर में 0.27 से बढ़कर 0.34 हो गया था। महाराष्ट्र में 2019-20 में अकुशल श्रमिक के लिए वैधानिक न्यूनतम वेतन 300 रुपये प्रतिदिन और तमिलनाडु में 283 था, और यह हरियाणा में कृषि मजदूरी के वेतन से 100 रुपये कम है। पर मुम्बई, चेन्नई और बंगलुरु में जीवन यापन की लागत हरियाणा के गांव की तुलना में काफी अधिक है। शायद यही कारण है कि बड़े मेट्रोज़ के मजदूरों की माली हालत बहुत खराब रहती है। एक मंदी या महामारी का दौर इन शहरों में तबाही मचा सकता है। सामाजिक सुरक्षा और बेरोज़गारी से सुरक्षा इस संदर्भ में खासा महत्व रखते हैं। परिवारों का जीवित रहना केवल एक कमाने वाले पर निर्भर न हो। इसलिए राज्य को गारण्टी करनी होगी कि हर परिवार को मूल आय मिल सके। यह परिवारों को सुरक्षा प्रदान कर सकेगा और सैकड़ों आत्महत्याओं को रोका जा सकेगा।

राज्य को ऐसे कानून भी बनाने चाहिये जिससे धौंस-धमकी (bullying) के चलते होने वाले आत्महत्याओं को रोका जा सके। यह भारत में पेशेवर कर्मियों के जीवन में आम बन चुका है। यहां तक कि आधुनिक टेक उद्योगों और फिल्म व मीडिया जगत जैसे रचनात्मक उद्योगों में भी आधुनिक सामंतवाद कूट-कूट कर भरा है। इन्हें मौत की फैकटरियां नहीं बनना चाहिये। युवाओं के सपनों की दुनिया सर्वनाश की अंधेरी गुफाओं में न बदल जाए। कार्यस्थल पर आपसी संबंधों को काफी हद तक लोकतांत्रिक और सभ्य बनाने की जरूरत है। और, यदि मानें कि एक सुशान्त सिंह राजपूत ने आत्महत्या की है, उसके जैसे हज़ारों बॉडरलाइन (borderline) केस होंगे। हम चाहेंगे कि विकास समाज को सभ्य बनाए ताकि आत्महत्याओं के स्पाइरल को बढ़ने से रोका जा सके।

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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