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त्रिनेत्र जोशी: मैं हरियाली के भीतर हूँ… बाहर एक हरियाली है

कवि-पत्रकार और अनुवादक त्रिनेत्र जोशी अचानक हमें छोड़कर चले गए हैं। 22 सितंबर को 74 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। इतवार की कविता में पढ़ते हैं उनकी कुछ कविताएं।
 Trinetra Joshi

कवि-पत्रकार त्रिनेत्र जोशी अचानक हमें छोड़कर चले गए हैं। 22 सितंबर को 74 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। 26 मई 1948 को रानीखेत (उत्तराखंड) जन्में त्रिनेत्र जोशी कवि और पत्रकार होने के अलावा एक अनुवादक के तौर पर स्थापित थे। वे चीनी भाषा के विद्वान थे और उन्होंने चीनी भाषा और साहित्य की काफी सामग्री हमें अनुवाद के रूप में उपलब्ध कराई। त्रिनेत्र जी के कई कविता संग्रह— घूम गया कई मोड़, गर्मियाँ, चिट्ठी, जाते हुए, झिलमिल, नेकांत, भीतर-बाहर, महानगर हमारे सामने आए। इसके अलावा भी उन्होंने काफी कुछ लिखा। आज इतवार की कविता में पढ़ते हैं उनकी कुछ कविताएं। दो कविताएं जो उनके द्वारा लिखी गई हैं और एक कविता चीनी भाषा से अनुवाद है।

भीतर-बाहर

 

मैं हरियाली के भीतर हूँ
बाहर एक हरियाली है

लताओं से सीखा है
हर हाल में झूमना
मुसीबतों में उन्हें
बाकायदा झुकते भी देखा है

उनके हिलने-डुलने में
भीतर भी हिलते हैं कुछ पेड़
इस रंग में एक तृप्ति है
उन्हें दीवार पर चढ़ते और खिलखिलाते देखा है
मैंने सूरजमुखी
अपने बचपन की तरह
उसे भी गुज़री है बेकरार सबा
हरी यादों से गच्छ
लताओं से
मिली हैं हिदायतें-
जैसे मिट्टी से नाता कभी नहीं तोड़ना चाहिए
तृप्ति आख़िरी सच है
जैसे आँधी-तूफ़ान से अपनी रक्षा करना आना चाहिए
उदासी में उजास रहना चाहिए
जब मैं गिरते देखता हूँ पीले पत्ते
मुझे अपने बेहिसाब हिलते दाँतों की याद
आती है

पर तभी बूढ़ी लता की जड़ पर
मुस्कुरा उठती है कोंपल
जीने को बेचैन
और तब मुझे और भी लगता है
मैं हरियाली के भीतर हूँ
मेरे बाहर एक हरियाली है !

कभी-कभी


चुपचाप
खो जाती हैं चीज़ें
जैसे आज़ादी

कभी-कभी बेहिसाब
आ जाता है गुस्सा
जैसे अंन्धड़

कभी-कभी चुपचाप
आ जाती है रुलाई
जैसे बुढ़ापा

कभी-कभी यों ही
गिर पड़ता है
आदमी
जैसे पुरानी दिल्ली की कोई इमारत

कभी-कभी
अकसर हो जाता है इलहाम
सीधे चलना ठीक नहीं
गिरते-पड़ते ही चलो

कभी-कभी
ऐंठकर चलता है जो
हो उठता है तानाशाह
अकसर कभी-कभी

मैं कहता हूँ
जब हमें कहीं पहुँचना ही नहीं है
तो धीरे-धीरे क्यों नहीं सीख लेते
चलना
कभी-कभी

 

नववर्ष की पहरेदारी

(मूल चीनी भाषा से अनुवाद, कवि- सू शि)

 

जल्द ही

गुज़र जाएगा साल

साँप की तरह घिसटता बिल की ओर

 

बस अब उसकी

आधी ही देह

बची रह गई है बाहर

कौन मिटा सकता है

इस आखिरी झलक को

और अगर हम बाँध भी दें उसकी पूँछ

तो भी कुछ नहीं होगा, नहीं हो पाएँगे सफल।

 

बच्चे जागे रहने का करते हर उपाय

हँसते-खिलखिलाते हैं हम इस रात

आँखों में समेटे

चूज़े नहीं कुकुटाते भोर की बांग

ढोलों को भी करना होगा इस घड़ी का सम्मान

 

जागते रहें हम

दीये का गुल गिरने तक

उठ कर देखता हूँ उत्तरी सप्तर्षि मंडल को बुझते हुए

अगला साल शायद आख़िरी हो मेरा

 

डरता हूँ मैं

समय को

बरबाद नहीं कर सकता।

 

इस रात को जियो भरपूर

जवानी को

अब भी

ख़ूब करता हूँ याद!

(कविताएं- साभार कविता कोश)

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