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महामारी को दबाओ, मज़दूरों को नहीं

मौजूदा स्थितियों ने एक ओर पूंजीवादी शक्तियों और मुख्यतः उन्हीं के लिए काम कर रही सरकारों को पलायन करते मज़दूरों पर कठोर प्रहार करने का अवसर दिया है। वहीं इन कदमों ने मज़दूरों को अपने हक़ के लिए खड़े होने की वजह भी दी है।
migrant worker
Image courtesy: Times Now

कोरोना महामारी के असाधारण ख़ौफ़ के इस समय में सरकारें और नवउदारवादी नीतियों के समर्थक पूरी निर्भीकता से मज़दूरों को संरक्षण देने वाले कानूनों को मुअत्तल और रद्द करने के कदम उठा रहे हैं। अगर एक क्षण के लिए कोरोना से ध्यान हटाकर आर्थिक जगत के इन कदमों पर निगाह दौड़ाई जाए तो लगेगा जैसे शहरों से गांवों की ओर भागते मज़दूरों पर वर्ग युद्ध छेड़ दिया गया है। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने एक बड़े अखबार में लेख लिखकर उन राज्यों की वाहवाही की है जिन्होंने अपने यहां श्रम कानूनों को मुअत्तल करने के कदम उठाए हैं।

अमिताभ कांत के लेख का शीर्षक है—अभी नहीं तो कभी नहीं। राज्य साहसिक सुधार कर रहे हैं, हमें ऐसा अवसर कभी नहीं मिलेगा, इसे लपक लेना चाहिए। जरा इस ललकार के साथ ही उन मज़दूरों की तस्वीरें और वीडियो देखिए जो अपने बच्चों, पत्नियों और माता पिता को कंधों पर लादे हुए, या ट्रकों और मिक्सरों में ठूंस कर भरे हुए गांवों और राज्यों की ओर भाग रहे हैं। क्या नीति आयोग के सीईओ यही कहना चाहते हैं कि देश का मज़दूर और मज़दूरों के संगठन इतने लाचार और कमजोर हाल में कभी नहीं मिलेंगे इसलिए उन्हें पीट लो। इन कदमों की सराहना करते हुए इंडियन स्टाफिंग फेडरेशन (आईएसएफ) ने भी कहा है कि इससे निवेश आएगा, तीव्र वृद्धि होगी और अवसर बनेंगे। बिना इस बात की परवाह किए हुए कि मज़दूरों का क्या होगा आईएसएफ ने कहा है कि भारत 70 सालों से श्रम कानूनों का सरलीकरण रोके हुए है। इस समय मौका है और 44 कानूनों को बदल कर चार कानूनों में बदल दिया जाना चाहिए।

विडंबना देखिए कि जिन संविधानविदों और राजनीतिशास्त्रियों ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और एक हद तक पंजाब, राजस्थान और उड़ीसा में उठाए गए इन कदमों का विरोध किया है वे भी इन तमाम कानूनों में कोई रस नहीं देखते। इनमें किसी की आपत्ति अचानक खत्म कर दिए जाने से है तो किसी की आपत्ति इसे अध्यादेश द्वारा समाप्त करने से है। वे चाहते हैं कि इसे संसद द्वारा समाप्त किया जाए न कि अध्यादेश के चोर दरवाजे से। बाकी उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं है कि पहले से ही शोषण के शिकार मज़दूरों का अब और अधिक शोषण होगा। विद्वानों ने तमाम अध्ययनों के माध्यम से यह साबित करने का प्रयास किया है कि यह कानून तो पूंजी और श्रमिक दोनों के विरोधी हैं। इसलिए उन्हें कभी का समाप्त कर दिया जाना चाहिए था। जब संसद की सेलेक्ट (प्रवर) कमेटी इंडस्ट्रियल रिलेशन्स कोड पर विचार कर रही है तो राज्य सरकारों को अचानक कौन सी जल्दी पड़ी थी।

एक और संविधान विशेषज्ञ संविधान के अनुच्छेद 39, अनुच्छेद 23 और अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए यह बता रहे थे कि किस तरह स्त्री और पुरुष को समान काम के लिए समान वेतन का अधिकार है, किसी को बंधुआ मजदूरी कराने का अधिकार नहीं है और जीवन और निजी स्वतंत्रता यानी गरिमा की रक्षा का अधिकार भी आपातकाल में मुअत्तल नहीं किया जा सकता। इसलिए अगर सरकारों ने काम के घंटे आठ से 12 कर दिए हैं तो वह गलत है और उससे मज़दूरों की सेहत पर असर पड़ेगा। लेकिन वे भी श्रम सुधारों की वकालत करने से बाज नहीं आए। उनका भी मानना था कि श्रम कानूनों की वजह से देश की आर्थिक तरक्की रुकी हुई है। हालांकि वे यह नहीं बता पा रहे हैं कि पिछले तीस सालों से चल रहे आर्थिक उदारीकरण में इन कानूनों ने कौन सी अड़चन डाली है। उद्योगपति जिसको चाहे निकाल रहे हैं जहां चाहे वहां फैक्ट्री बंद कर रहे हैं जिसे जो चाहे तनख़्वाह दे रहे हैं।

दरअसल यह नवउदारवादी सोच की कट्टरता है जो यह मानकर चलती है कि समाजवादी आंदोलनों या ट्रेड यूनियनों के प्रभाव में मज़दूरों ने लंबे समय के संघर्ष में जो कुछ हासिल किया उसे खत्म कर देने से ही आर्थिक स्थितियों में तरक्की आएगी और देश खुशहाल होगा। वे अपने पक्ष में यह दलील देते हैं कि सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था में मज़दूरों को नौकरी की सुरक्षा, वेतन में लगभग समानता और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी दिए जाने के कारण वे अच्छा काम करने से कतराते थे और इसी कारण औद्योगिक प्रगति ठहर गई। वे इसके बरअक्स चीन का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि वहां बड़े बड़े उत्पादन केंद्रों में श्रम कानूनों को खत्म करके या ढील देकर ही उत्पादन और निर्यात बढ़ाया जा सका।

भारत में भी बहुत सारे आर्थिक नियोजक कोरोना संकट से पैदा हुए आर्थिक हालात में यही दलील दे रहे हैं कि जब चीन से औद्योगिक इकाइयां भागेंगी तो हम श्रम कानूनों को कमजोर करके उन्हें अपने देश में आकर्षित कर सकेंगे। लेकिन ऐसा सोचते हुए वे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की उस चेतावनी को भूल रहे हैं कि मज़दूरों के वेतन में असमानता और एक सीमा तक नौकरी की अनिश्चितता उन्हें अच्छे काम और तरक्की के लिए प्रेरित करती है लेकिन जब यह अनिश्चितता और काम का बोझ बढ़ जाता है तो उसका उल्टा असर पड़ता है।

नोबेल अर्थशास्त्री जोसेफ  ई. स्टीग्लिट्ज ने `प्राइस आफ इनइक्विलिटी’ में यही समझाने की कोशिश की है। जब असमानता और असुरक्षा एक सीमा से ज्यादा बढ़ जाती है तो उत्पादन पर असर पड़ता है। अगर मज़दूर के पास अपने स्वास्थ्य की देखभाल और परिवार के भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च करने की क्षमता नहीं रहेगी तो वह न तो अच्छे से उत्पादन कर पाएगा और न ही उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे पाएगा।

अच्छी बात यह है कि श्रम कानूनों को इस तरह अध्यादेश के चोर दरवाजे से खत्म करने के प्रयास का देश की सभी ट्रेड यूनियनों ने विरोध किया है। उन्होंने हड़ताल करने की धमकी भी दी है। वामपंथी ट्रेड यूनियनों का विरोध तो स्वाभाविक लगता है लेकिन विरोध करने में देश की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन और स्वयं आरएसएस और सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध भारतीय मज़दूर संघ ने भी कड़ी आलोचना की है। भारतीय मज़दूर संघ के महासचिव ब्रिजेश उपाध्याय ने कहा है, `` राज्य सरकारें अभी तक लोगों को सहमत नहीं कर पाई हैं कि श्रम कानून किस तरह आर्थिक गतिविधियों में अवरोध डालते हैं। मौजूदा स्थिति में ऐसे अतिवादी कदम की क्या जरूरत आन पड़ी है यह सरकारें बता नहीं पा रही हैं। इसलिए उन्हें तत्काल इस कदम को वापस खींचना चाहिए।’’ उन्होंने अपनी राज्य इकाइयों से कहा भी है कि वे संबंधित मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखें और इसे वापस करने की मांग करें।

मौजूदा स्थितियों ने एक ओर पूंजीवादी शक्तियों और मुख्यतः उन्हीं के लिए काम कर रही सरकारों को पलायन करते मज़दूरों पर कठोर प्रहार करने का अवसर दिया है। अब तक तो पुलिस उनकी पीठ पर प्रहार कर रही थी लेकिन श्रम कानूनों को मुअत्तल किया जाना उनके पेट पर लात है। वहीं इन कदमों ने मज़दूरों को अपने हक के लिए खड़े होने की वजह भी दी है। मज़दूरों को हक दिलाने में श्रीपाद अमृत डांगे, बीटी रणदिवे और होमी दाजी जैसे नेताओं की सदारत में कम्युनिस्ट आंदोलन आगे रहा है लेकिन भारत में गैर कम्युनिस्ट नेताओं ने भी इस दिशा में काम किया है। इस दिशा में महात्मा गांधी, डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया, दत्ता सामंत, जार्ज फर्नांडीज और शंकर गुहा नियोगी जैसे बहुत सारे नेता सक्रिय रहे हैं। अगर गांधी ने अहमदाबाद की कपड़ा मिल के मज़दूरों को बोनस दिलाने के लिए अपने ही मित्र और मिल मालिक अंबालाल साराभाई के विरुद्ध अनशन किया था तो आंबेडकर ने काम के आठ घंटे वाला विधेयक पास कराने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। आज भारत में मज़दूरों को जो भी अधिकार मिले हैं उसके पीछे 1931 के कांग्रेस के कराची अधिकार पत्र का बड़ा योगदान है।

विडंबना यह है कि आज जब नवउदारवाद पूरी दुनिया में पछाड़ खाकर गिर पड़ा है तो कुछ नीति निर्माता मज़दूरों पर हमला बोलकर उसे विजयी बनाना चाहते हैं। यह एक कट्टर और अदूरदर्शी नीति है। इसके परिणाम हमारे समाज को बेरोजगारी, भुखमरी और नई बीमारियों की ओर ले जाएंगे। इसलिए जब सरकारों को महामारी को दबाने और स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने की जरूरत है तब वे मज़दूरों का स्वास्थ्य बिगाड़ कर उन्हें दबाने की कोशिश कर रही हैं। ऐसी ही स्थितियों के लिए कबीर दास ने चेतावनी दी थी कि `निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय, मुई खाल की स्वांस स लौह भस्म होई जाय।’

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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