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यूक्रेन पर बाइडेन के साथ स्पष्ट बात करने से मिल सकती है मदद

यदि भारत नीपर नदी के किनारे बसे यूक्रेन में शांति के अपने मिशन में गंभीर है, तो उसे ख़ुद की पहल को भव्य दिखाने, या ऐसा विचार बनाने या अपने ख़ुद के समाचार चक्र में फंसने से बचने की ज़रूरत है।
Ukraine
यूक्रेन के सिपाही बखमूत शहर में रशिया हमलों के दौरान मार्च करते हुए, डोनेत्स्क अक्टूबर 2 2022

बुधवार को यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादिमिर ज़ेलेंस्की के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोन पर हुई बात का अनिर्णायक परिणाम का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था। क्योंकि इस पहल का कोई मतलब नहीं था।

मोदी के फोन से पहले, ज़ेलेंस्की ने एक नाटकीय कदम उठाते हुए नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) की सदस्यता की मांग की, यह रेखांकित करते हुए कि ऐसा कर कीव रूस से लड़ने के लिए गठबंधन के विशाल सैन्य संसाधनों तक पहुंचने का हकदार बन जाएगा; इसके बाद उन्होंने राष्ट्रपति की डिक्री पर भी हस्ताक्षर किए, जिसके माध्यम से उन्होंने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ किसी भी तरह की बातचीत को खारिज कर दिया।

फिर से, इस सप्ताह की शुरुआत में ही, बाइडेन प्रशासन ने साफ़ कर दिया था कि यह बातचीत का वक़्त नहीं है। असल में, ज़ेलेंस्की और बाइडेन दोनों ने सचमुच पुतिन की 30 सितंबर की वार्ता की पेशकश को दबा दिया है।

सोमवार को ज़ेलेंस्की के साथ राष्ट्रपति बाइडेन के साथ फोन पर हुई बातचीत के बाद, गृह सचिव एंटनी ब्लिंकन ने पेंटागन इन्वेंट्री से यूक्रेन को अतिरिक्त हथियारों, लड़ाई के सामान  और उपकरणों के लिए 625 मिलियन डॉलर का नवीनतम "पैकेज" देने की घोषणा करते हुए एक बयान में कहा:

"हम यूक्रेन के लोगों के साथ खड़े रहेंगे क्योंकि वे असाधारण साहस और असीम दृढ़ संकल्प के साथ अपनी आज़ादी और स्वतंत्रता की रक्षा कर रहे हैं। हम जो क्षमताएं उन्हे दे रहे हैं, उन्हें युद्ध के मैदान में बड़ा अंतर लाने के लिए सावधानीपूर्वक कैलिब्रेट किया गया है ताकि सही वक़्त आने पर रूस के साथ बातचीत में यूक्रेन के हाथ हो सके।” [उक्त बात ज़ोर देकर कही गई है]

ब्लिंकन की टिप्पणी सारा ज़ोर यह है कि: 'यह लड़ने का वक़्त है और बातचीत का वक़्त  तब आएगा जब यूक्रेन एक ऐसे मोड़ पर होगा जब वह जवाबी हमलों कुछ तरक्की कर जाएगा, इसलिए बाइडेन प्रशासन सैन्य अभियान को प्राथमिकता दे रहा ताकि भविष्य में वक़्त आने पर ज़ेलेंस्की मजबूत स्थिति हों और रूसियों के साथ दम-खम के साथ बातचीत कर सके।'

क्या मौजूदा वक़्त में इस तरह का रुख, शांति वार्ता में अमेरिका की चाहत को दर्शाता है? निश्चित रूप से, मुझे ऐसा नहीं लगता है। भारतीय विदेश नीति को चलाने वालों को इस बात से जानकारी होनी चाहिए कि ज़ेलेंस्की वही करेगा जो वाशिंगटन चाहता है, जिसका अर्थ है कि पुतिन के साथ बातचीत को खारिज करना क्रेमलिन शासन परिवर्तन के व्हाइट हाउस के लंबे खेल का हिस्सा है।

अमेरिका का अनुमान है, सही या गलत, कि यूक्रेन का रूसी सेना पर आक्रामक "आक्रामण" आने वाले 6-8 सप्ताह के भीतर आगे बढ़ेगा, इससे पहले कि रूसी सेना अतिरिक्त 370,000 सैनिकों के साथ आगे बढ़ जाए (जिसमें आंशिक लामबंदी के माध्यम से 300,000 सैनिक शामिल हैं और अन्य 70,000 स्वयंसेवक भी हैं)।

वास्तव में, यूक्रेन तेजी से आगे बढ़ा है, और अब उसने दावा किया है कि डोनेट्स्क के लिमन शहर के बाद, जिस पर उसने पिछले सप्ताह कब्जा कर लिया था, उसकी सेना पूरे लुहान्स्क क्षेत्र, यानि डोनबास के पूर्वी हिस्से में, रूसी सेना को पीछे धकेलने के लिए आगे बढ़ने का इरादा रखती है।

ऐसी सैन्यवादी पृष्ठभूमि में, यह बेमानी लगता है कि भारत एक शांति दूत कबूतर को आसमान में छोड़ने की इतनी जल्दी में है। ज़ेलेंस्की को फोन करने के पीछे दिल्ली की मंशा क्या थी? क्या यह "संयुक्त राष्ट्र चार्टर, अंतर्राष्ट्रीय कानून, और सभी राज्यों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने के महत्व" को बनाए रखने की कवायद थी।? जैसा कि विदेश मंत्रालय बयान में कहा गया है। या, इस बात पर जोर देने के लिए फोन किया गया कि "परमाणु हथियारों के खतरे से सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण पर दूरगामी और विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं" (जो कि जीवन का एक प्रसिद्ध तथ्य है)?

वास्तव में, 30 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के वोट में भारत की अनुपस्थिति सही निर्णय था, लेकिन उस पर हमारा "व्याख्यात्मक नोट" खराब था, जिसने उस हताशा की भावना को दर्शाया जिसे भारत ने फोन कर जताया ताकि हमारा हस्तक्षेप भी रिकॉर्ड में दर्ज़ हो सके।

भारत टालमटोल कर रहा है। उदाहरण के लिए, भारतीय व्याख्यात्मक नोट की तुलना उसके पीआर द्वारा 30 सितंबर को दिए गए ठोस, तर्कपूर्ण, सुसंगत चीनी बयान से करें। जबकि भारत यूक्रेन सवाल के पहले सर्कल के आसपास ही नाच रहा है, तथ्य यह है, जैसा कि चीनी राजदूत कहते हैं, "यूक्रेन का मौजूदा संकट लंबे समय से चली आ रही विभिन्न समस्याओं और तनावों के इकट्ठा होने और यूना पर परस्पर क्रिया का परिणाम है। तथ्यों ने दिखाया दिया है कि राजनीतिक अलगाव, प्रतिबंध और दबाव, तनाव को बढ़ावा देने और गुट टकराव शांति नहीं लाएंगे। इसके बजाय, वे केवल स्थिति को खराब करेंगे, और इस मुद्दे को और अधिक जटिल और कठिन बना देंगे।"

क्या भारत को भी इन मुख्य मुद्दों पर एक राय नहीं बनानी चाहिए? समान रूप से, यह समझ से बाहर है कि यूक्रेन संघर्ष के संबंध में मोदी की बाइडेन के साथ फोन पर कोई बात  क्यों नहीं हुई है। डेनमार्क के राजकुमार के बिना हेमलेट नाटक कैसे हो सकता है?

ऐसा सोचना और करना अविश्वसनीय भोलापन है, जैसे कि यूक्रेन संघर्ष रूस और यूक्रेन के बीच का है। यह एक छद्म युद्ध है, बेवकूफ! इसलिए, राजनयिक क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद, भारत को अमेरिका के साथ यूक्रेन में, एक स्पष्ट हस्तक्षेप के बारे में आवाज़ उठानी चाहिए।

ब्लिंकन के अनुसार, सोमवार को बाइडेन द्वारा घोषित नए पैकेज के बाद "बाइडेन प्रशासन की शुरुआत के बाद से यूक्रेन को कुल अमेरिकी सैन्य सहायता 17.5 बिलियन डॉलर से अधिक पार कर जाएगी।" अब, आइए हम बाइडेन से पूछें कि कैसे उनकी लगातार मदद ने युद्धविराम और "संवाद" को प्राथमिकता देने मदद की है।

मुद्दा यह है कि ज़ेलेंस्की के पास मॉस्को के साथ बातचीत करने की कोई वास्तविक प्रेरणा नहीं है, तब तक नहीं जब तक कि बाइडेन प्रशासन उदारतापूर्वक उसे उन्नत हथियारों की आपूर्ति करता रहेगा। न केवल हथियार; रूसियों ने मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र में कहा है कि वाशिंगटन एक तरफ "यूक्रेन को हथियारों की डिलीवरी बढ़ा रहा है, और दूसरी तरफ उनकी सेना को खुफिया जानकारी भी दे रहा है, और युद्ध में अपने लड़ाकों और सलाहकारों की सीधी भागीदारी सुनिश्चित कर रहा है। [यह] न केवल शत्रुता को बढ़ाता है बल्कि हताहतों की संख्या को भी बढ़ा रहा है, यह रूस और नाटो के बीच सीधे सैन्य संघर्ष की खतरनाक रेखा के करीब भी ला रहा है।

यकीनन, यूक्रेन संघर्ष के इस महत्वपूर्ण मोड़ पर, भारत की एक शांतिदूत के रूप में सर्वोच्च प्राथमिकता का होना- तूफान से पहले की एक लौकिक खामोशी है- जैसा कि बाइबल कहता है, बाइडेन को तलवारों को पीटकर हल की धार बनानी चाहिए और भालों को कतरनी में बदलना चाहिए।

भारत, शायद, एकमात्र ऐसा देश है जिसके वाशिंगटन और मॉस्को दोनों के साथ घनिष्ठ मैत्रीपूर्ण संबंध हैं। एक क्वाड सदस्य होने के नाते और चीन को नियंत्रित करने के अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति का "लिंचपिन" होने के नाते, दिल्ली संभवतः अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर व्हाइट हाउस पर प्रभाव डाल सकता है? क्यों न उस राजनीतिक पूंजी का कुछ हिस्सा शांति के नेक काम के लिए इस्तेमाल किया जाए? आखिरकार, यूक्रेन संघर्ष में अमेरिका के कोई महत्वपूर्ण हित दांव पर नहीं हैं, जो अमेरिका की तटरेखा से 10,000 किलोमीटर दूर है।

यदि भारत नीपर नदी के किनारे बसे यूक्रेन में शांति के अपने मिशन में गंभीर है, तो उसे खुद की पहल को भव्य दिखाने, या ऐसा विचार रखने या अपने खुद के समाचार चक्र में फंसने से बचने की जरूरत है। इसके बजाय, सीधे अमरीका रूपी जहन्नुम में उतरो और बाइडेन से बात करो।

एम॰के॰ भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Frank Talk With Biden on Ukraine May Help

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