बिहार : चंपारण के भूमिहीनों के लिए कठिन समय और स्थितियाँ
सातिया मुस्मत जो एक विधवा हैं, वह नहीं जानतीं कि उनकी उम्र क्या है। उन्हें लगता है कि वो 60 साल से ऊपर हो चुकी हैं। शायद वे अपने दस्तावेज़ थोड़ी सी ज़मीन पाने की जद्दोजहद में खो चुकी हैं। ऊपर से उन्हें ज़मीन का वह टुकड़ा भी नहीं मिला। एक आकस्मिक लकवे के चलते दो साल पहले उनके पति शिवनाथ राउत की मौत हो चुकी है।
शिवनाथ की मौत से परिवार पर क़र्ज़ का क़हर आ गया। सातिया ने बताया, ''मेरे पति के अंतिम संस्कार के लिए बेटे ने अलग-अलग जगहों से उधार लिया। हम धार्मिक लोग हैं, हमें किसी भी तरह यह करना था। मेरे पति हमारे लिए कोई खज़ाना तो छोड़ कर गए नहीं थे। आख़िर वो कर भी क्या सकते थे। वो सिर्फ़ एक हल चलाने वाले ही तो थे।''
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लगातार भूमिहीनों को ज़मीन देने का वायदा करते रहे हैं। इस साल की शुरुआत में प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण या पीएमएवाय-ग्रामीण के साथ चलने वाली एक राज्य नीति बनाई गई। इसके तहत भूमिहीनों को 60,000 रुपये की आर्थिक मदद दी जानी थी। इसमें पक्का घर बनाने के लिए एक लाख बीस हज़ार रुपये की मदद भी शामिल थी। लेकिन सातिया जैसी कई भूमिहीनों को दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा और समस्या का समाधान नहीं हुआ।
सातिया की शादी दूरदराज़ के गांव लोहारपट्टी के रहने वाले शिवनाथ राउत के साथ हुई थी। जहां तक सातिया को याद है, उनका परिवार हमेशा से भूमिहीन था। लेकिन पहले वो लोग लोहारपट्टी के ही एक उच्च जाति के ब्राह्मण द्वारा छोड़ी गई ज़मीन पर रह लेते थे। वक़्त बीतने के साथ ज़मीन के मालिक ने उन्हें हटा दिया। चूंकि उनके पास मताधिकार था, इसलिए उन्हें पंचायत से बाहर नहीं किया गया। पहले जंगबहादुर महतो नाम के शख़्स के घर में रहे। फिर उन्हें गंडक नदी पर बने एक पुल के पास विस्थापित कर दिया गया। बाद में पंचायत के मुखिया देवेंद्र राय ने उन्हें नहर के एक दूसरे छोर पर रहने की अनुमति दे दी। इसके बाद से ही परिवार केवल मुखिया के रहमोकरम पर है। मुखिया का पद पंचायत की उच्च जाति के लोगों में आपस में घूमता रहता है। सातिया जिस जाति से आती हैं, वह कुर्मी जाति गांव की दूसरी, पर संसाधन विहीन जाति है।
अपने पति की तरह सातिया को भी वृद्धा पेंशन मिलती है। हाल तक वो राशन कार्ड का भी फ़ायदा नहीं ले सकती थीं। हाल ही में पूरे परिवार को मताधिकार पत्र जारी किया गया है। उनका बेटा लालबाबू राउत अभी भी भूमिहीन है और लोहारपट्टी में ही रहता है, वहीं सातिया अपने छोटे बेटे विक्रम राउत के साथ रहती हैं।
विक्रम की उम्र चालीस साल के आसपास है। वह एक दैनिक मज़दूर हैं। विक्रम बेतिया शहर में ठेलागाड़ी चलाते हैं। जब इस लेख के लेखक उनके घर पहुँचे, तब सुबह नौ बजे के पहले विक्रम काम के लिए निकल चुके थे। वह शाम को 6 बजे वापस लौटते हैं। इस बीच वो क़रीब 300 रुपये कमा पाते हैं।
सातिया कहती हैं, ''इतनी कम आय से वो अपना क़र्ज़ कैसे उतारेगा? सरकार जानती है कि हम ज़िंदा हैं, लेकिन सिर्फ़ वोट देने के लिए।''
सातिया आगे कहती हैं, ''गांव में ज़मीन, ना सारेह में खेत। घर के मारल सारेह में गएनी, कर में लग गए आग। ऊहां के मारल घर में आनी।'' सातिया द्वारा कही गई इन लोकोक्तियों का अनुवाद कुछ इस तरह है- ''न तो घर, न हाथ में ज़मीन, घर के मारे शहर में पहुंचे, भाग्य में लग गई आग, वापस भागे घर की ओर।"
सातिया द्वारा बोली गई ये लोकोक्तियां भोजपुर इलाक़े में ग्रामीण लोगों की समस्याएं बता देती हैं।
सातिया के समुदाय में पारंपरिक तौर पर फसल बंटाई करने वाले लोग हैं। वो आज भी इस पुराने काम को कर रहे हैं। आज वो ''अधिया बटाई'' करते हैं। यह हुंडा बटाई से अलग एक दूसरे तरह का जमीन किरायेदारी है। हुंडा बटाई में किराया नगद देना होता है, न कि फसल की हिस्सेदारी में। अधिया बटाई में ज़मीन के मालिक को आधी फसल देनी होती है। इससे किरायेदार की बहुत सारी समस्याएं ख़त्म हो जाती हैं। लेकिन पूरी समस्याएं नहीं, जैसे फसल में होने वाला नुकसान। विक्रम की पत्नी सीमा देवी बताती हैं, ''इस साल बाढ़ ने हमारी धान नष्ट कर दी। हमने किराए की 10 कट्ठा ज़मीन पर सात हज़ार रुपये लगाए थे।'' अब परिवार ने इस खेत में गेहूं लगा दिया है।
सीमा खेतों में मज़दूरी भी करती हैं। लेकिन मज़दूरी में मिलने वाले पैसों में लैंगिक भेदभाव होता है। वो कहती हैं, ''मुझे उस काम को करने के 120 रुपये मिलते हैं, जिसे कोई आदमी करे तो 250 रुपये पाए। इसके बावजूद कृषि मज़दूरी मौसमी है और यह एक निश्चित सीमा में ही हो पाती है क्योंकि हमें अपने गांव में ही रहना होता है।''
सकिया के परिवार के लिए गुज़र-बसर का एक और तरीक़ा गाय किराये पर लेना है। इसके तहत दूध का बंटवारा होता है। आधा दूध गाय के मालिक को देना होता है। अगर भविष्य में गाय बेची जाती है तो उसका एक तिहाई हिस्सा सकिया को मिलेगा और बाक़ी मालिक को। दरअसल सकिया का परिवार एक स्वस्थ गाय का ख़र्चा नहीं उठा सकता है। गाय की कीमत 15,000 रुपये होती है, जो उनपर और कर्ज चढ़ा देगा। सीमा ने बताया, ''हमने 800 रुपये का ट्राली भर भूसा ख़रीदा और 800 रुपये का चारा। इसे काटने के लिए इस्तेमाल होने वाला लेदी कट्टा 12,000 रुपये का था। जिसे हमने अनौपाचारिक उधार की मदद से ख़रीदा। यह एक मुश्किल वक़्त है।''
सकिया की बेटी शीला की 20 साल की बहू सपना देवी कहती हैं, ''हमारे लिए बरसात में यह नहर पार कर पाना बहुत कठिन हो जाता है। हमें एक दूसरे रास्ते से जाना होता है, जिसमें एक किलोमीटर ज़्यादा चलना होता है।'' सपना भी बेहद गरीब परिवार से थीं, उनके माता-पिता के घर भी आर्थिक समस्याएं इसी तरह की थीं। वह बताती हैं, ''मेरे दादा ने अपने चार बेटों के लिए दो कट्ठा ज़मीन छोड़ी थी। इस तरह मेरे पिता को सिर्फ 10 धुर ज़मीन मिली। हम चार बहनें और एक भाई हैं। मेरे पिता दूसरे राज्यों में जाकर मज़दूरी का काम तलाश करते थे। वो वहां महीने का क़रीब 10 हज़ार रुपये कमा लेते थे। किस्मत से हम लोगों को भूखे नहीं मरना पड़ा। लेकिन वो पिछले एक साल से घर पर हैं। अभी मेरी दूसरी बहनों की शादी भी होना है।''
सकिया की झोपड़ी की तरह, सपना की झोपड़ी भी 6 फ़ीट लंबी और 6 फ़ीट चौड़ी जगह में बनी है। सपना आगे बताती हैं, "हर बांस की कीमत 150 रुपये है। हमने करीब 10 बांस खरीदे। आप सोच सकते हैं, हमने इस पर कितना पैसा लगाया। घरमी लोगों की मजदूरी भी मत भूलिएगा (कच्चा घर बनाने वाले)। वो लोग एक दिन के 450 रुपये लेते हैं। ऊपर से यह ढांचा भी ज्यादा दिन नहीं चलता। अधिकतम यह दो साल टिक पाता है।'' यह झोपड़ी टूटने का पारंपरिक कारण बरसात है। रुके हुए पानी से बांस सड़ जाते हैं, जो ज़मीन में धंसे होते हैं। झोपड़ी के ऊपर छत को सहारा देने के लिए लौकी ऊगाई जाती है। लौकी, जिस माला में फैली होती है, वो पूरी छत पर फैल जाती है।
सकिया दिखाती है कि नहर पार करना उसके लिए कितना जोखिम भरा है
सपना सातवीं कक्षा तक पढ़ी हैं। इसके बाद वो अपनी शिक्षा जारी नहीं रख पाई थीं। एक बच्चे की मां सपना अपने बच्चे की शिक्षा को लेकर आशान्वित हैं। लेकिन उनकी चिंताएं भी हैं। एक महीने पहले उसकी बड़ी बच्ची का कार्डिएक की समस्या के चलते निधन हो गया। सपना के मुताबिक़, डॉक्टर ने उन्हें बताया कि बच्ची के दिल में छेद था। परिवार ने उसके इलाज पर बीस हजार रुपये खर्च किए, लेकिन समस्या बदतर होती गई। यह कहते हुए कि उसका इलाज शहर में संभव नहीं है कहते हुए नौ निजी डॉक्टरों ने उसे डिस्चार्ज कर दिया। जब हमने सपना से सरकारी सुविधाओं के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, ''वहां भी डॉक्टरों ने मेरे बच्चे को डिस्चार्ज कर दिया।''
सपना का आरोप है कि सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर मरीज़ को राज्य के दूसरे अस्पतालों में नहीं भेजते हैं। अब परिवार पर क़र्ज़ का बहुत भार हो चुका है। सपना बताती हैं कि हर आठवें दिन महाजन को 750 रुपये देने होते हैं। आमतौर पर ऊंची जाति के लोग पैसे उधार देते हैं।
हम पूर्व की तरफ़ दो किलोमीटर पैदल चलकर पोखरभिंडा गांव में एक बेघर परिवार से मिलने आए।
एक दशक पहले यह परिवार दूरदराज़ के बाघा बांध के इलाके से आया था। अपने घर पर अकेलीं सुनैना देवी बताती हैं, ''बांध से जब भी पानी छोड़ा जाता। उसमें हमारा गांव डूब जाता। यह हर साल होता। इसलिए परिवार को वहां से निकलना पड़ा।'' सुनैना की सास पास के खेत में बकरी चरा रही हैं।
सुनैना का कहना है कि स्थानीय लोग उनपर जगह छोड़ने का दबाव बना रहे हैं। जब भी कोई छोटा मुद्दा होता है, स्थानीय लोग उन्हें निकालने की धमकी देते हैं।
सातिया की ही तरह सुनैना के परिवार के लोगों का इस पते पर ही आधार और वोटर कार्ड बना है। लेकिन विरोधाभास है कि उन्हें पीडीएस और आंगनवाड़ी (ICDS-SNP) जैसी निम्नतम सुविधाओं का भी लाभ नहीं मिल पाता है।
सुनैना को एक साल तक पूरक पोषण के तौर पर अपने बेटे दीपक कुमार के लिए आधा किलो दाल, एक कटोरी सोयाबीन, एक अंडा मासिक तौर पर मिलना था। लेकिन जैसे ही सुनैयना का बेटा एक महीने का हुआ, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता (AWW) ने सुनैना से केंद्र पर दोबारा न आने के लिए कह दिया। सप्लीमेंट्री न्यूट्रीशन प्रोग्राम फॉर प्रेगनेंट एंड लैक्टेटिंग मदर के प्रावधानों को इन कार्यकर्ताओें द्वारा तोड़ा-मरोड़ा जाता है। पड़ोसी गांव की सपना देवी के मामले में भी ऐसा ही देखा गया था।
सुनैना के पति पारस शर्मा मज़दूरी करते हैं और दिन के क़रीब तीन सौ रुपये कमा लेते हैं। सुनैना ने न्यूज़क्लिक को बताया कि अभी तक उन्हें बाढ़ से हुए नुकसान से कोई पैसा नहीं मिला है।
पारस की बहन बबीता की इस साल की शुरुआत में शादी हुई है। सुनैना बताती हैं, ''वह लोग मोटरगाड़ी (70 हज़ार रुपये) की मांग कर रहे थे। हमने दो लाख रुपये का एक अनौपचारिक उधार लिया था, जिसे चुकाया जाना अभी बाकी है।'' जब हमने बबीता की शिक्षा और उम्र के बारे में पूछा तो सुनैना ने बताया कि वो अभी हाल में मैट्रिक पास हुई है और उसने शादी के बाद पढ़ाई भी छोड़ दी।
सुनैना देवी अपने बच्चों के साथ
हम रामपुर गांव में एक और भूमिहीन परिवार से मिले। यह गांव पोखरभिंडा गांव से दो किलोमीटर दूर है।
पिछले साल दिनेश पटेल ने कश्मीर में कमाए पैसे से अपने घर की नींव रखी। लेकिन उन्हें ज़मीन से हटाए जाने के डर से इस काम को बीच में रोक दिया गया।
स्थितियों ने भूमिहीन ग़रीबों को सिर्फ़ एक वोट में तब्दील कर दिया है। बिहार भूमि सुधार कानून (फिक्सेशन ऑफ सीलिंग एरिया एंड एक्विजीशन ऑफ सरप्लस लैंड) से जरूरी लोगों का भला नहीं हुआ है। शिक्षा की पहुंच न होने और अलग-अलग मुद्दों पर संवेदनशीलता न बन पाने के चक्कर में बहुता सारी सामाजिक कुरीतियां अभी भी जारी हैं। परिवार नियोजन, लैंगिक समता और कम पगार के खिलाफ मजदूर अधिकारों की समस्याओं का बड़े पैमाने पर विस्तार है।
उम्र के चौथे दशक में चल रहे दिनेश छह लड़कियों के पिता हैं। वह पेटिंग लेबर के तौर पर काम करते हैं। इस नौकरी से वे तीन सौ रुपये प्रतिदिन तक कमा लेते हैं। वह बताते हैं, ''अभी कुछ साल पहल मैं कश्मीर में था। वहां हर दिन मैं हज़ार रुपये कमा लेता था। लेकिन अब मैं कश्मीर वापस नहीं जा सकता। मेरी पत्नी अपने बच्चों की देखभाल कैसे करेगी?''
दिनेश आगे कहते हैं, ''मेरी तमन्ना एक लड़के की है, जो बुढ़ापे में हमारी देखभाल कर सके। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। मेरे माता-पिता यहां बसे थे। यह क़रीब तीन धुर ज़मीन है। इस साल की शुरुआत में ब्लॉक से एक ऑफिसर यहां आया। उसने कुछ तस्वीरें लीं। लेकिन हमें अभी तक कोई फंड नहीं मिला। ना ही इस ज़मीन के लिए कोई टोकन जारी किया गया।''
दिनेश के पास एक गाय और कुछ बकरियां हैं। दिनेश ने चालीस हज़ार रुपये का उधार लिया था। इसे चुकाने के लिए वो हर हफ़्ते नौ सौ रुपये चुकाते हैं। इस लेख के रिपोर्टर ने जितने भी भूमिहीन परिवारों से बात की, उन्हें PMAY-ग्रामीण से जुड़ी बिहार सरकार की नई योजना के बारे में पता ही नहीं है।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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