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प्रधानमंत्री ने स्वीकारा- 80 फ़ीसदी से ज़्यादा किसानों के पास 2 हेक्टयर से कम ज़मीन, तो फिर MSP की लीगल गारंटी क्यों नहीं?

2 हेक्टेयर से कम जमीन पर जीने वाले 80 फ़ीसदी किसानों की बात करके प्रधानमंत्री ने किसान आंदोलन के बारे में कुछ भी नहीं कहा। जबकि हकीकत यह है कि नए कृषि कानून लागू होने पर ये 80 फ़ीसदी किसान भी बर्बादी के कगार पर खड़े मिलेंगे। आप पूछेंगे कैसे? तो इसे सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं...
Modi

75वें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से अपना भाषण देते हुए बड़े बारीक अंदाज में कहा कि भारत में 80 फ़ीसदी से ज्यादा किसानों के पास 2 हेक्टेयर से कम की जमीन है। यह बात बताने का अंदाज ऐसा था जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस देश की गहरी सच्चाई बता रहे हों। यह वाकई बहुत गहरी सच्चाई है। जिसे अधिकतर लोग नहीं जानते, जानते हैं तो समझते नहीं। नेताओं की जुबान से देश की ऐसी कड़वी सच्चाई तो कभी नहीं निकलती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा नेता ऐसी बात कहेगा, इसका अंदाजा तो कभी नहीं था। इसलिए भाषण सुनते समय थोड़ा सा अचरज हुआ। प्रधानमंत्री यह क्या बोल गए? लेकिन उसके बाद फिर से अपनी चिर परिचित अंदाज में हवा हवाई बातें करने लगे। किसानों से जुड़ी उन योजनाओं को बताने लगे जिससे किसानों का कम बैंकों का अधिक फायदा हुआ है जैसे फसल बीमा योजना।

2 हेक्टेयर से कम जमीन पर रहने वाले 80 फ़ीसदी किसानों की बात करके प्रधानमंत्री ने किसान आंदोलन के बारे में कुछ भी नहीं कहा। जबकि हकीकत यह है कि नए कृषि कानून लागू होने पर यह 80 फ़ीसदी किसान भी बर्बादी के कगार पर खड़े मिलेंगे। आप पूछेंगे कैसे? तो इसे सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं-

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की रिपोर्ट कहती है कि साल 1960 में तकरीबन 60 फ़ीसदी लोगों के जिंदगी का गुजारा खेती किसानी से हो जाता था। साल 2016 में घटकर यह आंकड़ा 42 फ़ीसदी हो गया। और अभी सीएमआईई यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी का कहना है कि कोरोना के बाद कृषि क्षेत्र पर रोजगार के निर्भरता बढ़ी है। शहरों से मायूस लौटे लोग खेती में मजदूरी करके ही अपनी जीवन जीने का जुगाड़ कर रहे हैं। हाल फिलहाल तकरीबन 46 फ़ीसदी आबादी अपना पेट पालने के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर है।

अब सवाल है कि साल 1960 से लेकर 2020 में ऐसा क्या घटा कि लोगों ने इतनी बड़ी संख्या में खेती किसानी छोड़ दी। इसका जवाब है कि साल 1991 के बाद भारतीय सरकारों ने पूरी तरह से उदारीकरण को अपना लिया। नीतियां किसानों के जीवन में सुधार के लिए नहीं बल्कि केवल अनाज उत्पादन के लिहाज से बनाई गईं। इसलिए पहले से ही तकरीबन 2 हेक्टेयर से कम की जमीन पर खेती किसानी करने वाले 86 फ़ीसदी किसानों के बहुत बड़े हिस्से ने खेती किसानी को अलविदा कह दिया।

लेकिन जिन पेशों को उन्होंने अपनाया क्या उनसे उनकी जिंदगी में कुछ सुधार हुआ? तो जवाब है बिल्कुल नहीं। जिन्होंने खेती किसानी छोड़ी उन्होंने या तो  अपना छोटा-मोटा कोई रोजगार शुरू किया या किसी फैक्ट्री में मज़दूरी पर लग गए। इनकी जिंदगी ऐसी है कि एक महीने इन्हें तनख्वाह ना मिले तो ये लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाए या फिर भूखे मरने के कगार पर पहुंच जाएं।

अब आप पूछेंगे कि बाजार जब इतना खराब है तो कैसे ऐसे कानून बन जाते हैं जो कृषि को पूरी तरह से बाजार के हवाले करने पर उतारू हैं। इसका जवाब यह है कि साल 1990 के बाद से जैसे-जैसे बाजार के हवाले सारे क्षेत्र होते चले गए हैं ठीक वैसे ही कुबेर पतियों की संपत्तियों में भी इजाफा हुआ है। भारत का अमीर और अधिक अमीर हुआ है। इसकी हैसियत पहले से और अधिक बढ़ी है। भारतीय चुनाव पर हम चाहे जैसा मर्जी वैसा विश्लेषण कर लें लेकिन एक बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव में पैसों का असर बहुत अधिक बढ़ा है।

जिनके पास पैसा है उनके पास मीडिया से लेकर वह सारे हथकंडे हैं कि वह अपनी खामियां छिपाकर जनता को बरगला कर सत्ता की सवारी कर सकें। इसलिए सरकार में उन लोगों की पहुंच बहुत कम हुई है जो वैचारिक हैं, जनवादी हैं, जो दुनिया में मौजूद पूंजीपतियों के गठजोड़ से लड़ने का हौसला रखते हैं। ऐसा ना होने की वजह से सरकार में उन लोगों की भरमार है जो अपनी कुर्सी के लिए पूंजीपतियों पर निर्भर हैं और पूंजीपति खुद की मठाधीशी स्थापित करने के लिए उन नीतियों के हिमायती होते हैं जहां सामूहिक संपत्तियों का अधिकार खत्म कर प्राइवेटाइजेशन को बढ़ावा दिया जाता है।

पूरी खेती किसानी को ही देख लीजिए तो इसके केंद्र में अनाज और भोजन उत्पादन है। और यह यह ऐसा इलाका है जहां दुनिया में तब तक मांग बनी रहेगी जब तक इस दुनिया में इंसानों की मौजूदगी है। इसलिए उद्योगपति चाहते हैं कि इस क्षेत्र पर उनका कब्जा हो जाए। और इन चाहतों को पूरा करने में पैसे के दम पर चुनी जाने वाली सरकार उनकी पूरा मदद करती है।

खेती किसानी को पूरी तरह से बाजार के हवाले करने से किसानों का क्या हश्र हुआ है? यह समझना हो तो दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क की हैसियत पाए अमेरिका को ही देख लिया जाए।

अमेरिका में कुछ दशक पहले ही खेती किसानी को पूरी तरह से बाजार के हवाले कर दिया गया था। मौजूदा समय की स्थिति यह है कि अमेरिका में केवल डेढ़ फीसदी आबादी ही खेती किसानी करती है। यानी खेती किसानी से बहुत बड़ी आबादी को अलग कर दिया गया है। खेती किसानी पूरी तरह से कॉरपोरेट्स के हाथ में है।

कॉरपोरेट के काम करने का तरीका यही होता है, उसे केवल अपने मुनाफे से मतलब है। बड़ी-बड़ी जमीनों पर बड़े बड़े कॉरपोरेट खेती का धंधा करते हैं। जहां किसान नगण्य है। कॉन्ट्रैक्ट खेती के कानून से इसी का अंदेशा बना हुआ है। साल 2018 के फार्म बिल के तहत अमेरिका की सरकार ने अगले 10 सालों के लिए तकरीबन 867 बिलियन डॉलर खेती किसानी में लगाने का फैसला किया है।

वजह यह है कि खेती किसानी पूरी तरह से घाटे का सौदा बन चुकी है। कई लोग आत्महत्या कर रहे हैं। डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं। उन्हें अपनी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिल रही है। अमेरिका के ग्रामीण इलाकों में आत्महत्या की दर सारे इलाकों से 45 फ़ीसदी ज्यादा है। इन सबका कारण केवल खेती किसानी तो नहीं है लेकिन खेती किसानी से होने वाली आय अमेरिका की एक खास आबादी की बदहाली का महत्वपूर्ण कारण है।

कॉरपोरेट की मौजूदगी से वजह से किसान किस तरह बरबाद हो रहे हैं? अमेरिका इसका एक नायाब उदाहरण है। सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी से उत्पाद बाजार में प्रतियोगिता कर पाने में कामयाब हो रहे हैं। लेकिन किसानों को कोई फायदा नहीं मिल रहा। बल्कि छोटे किसान तंगहाली में आकर किसानी छोड़ दे रहे हैं।

यही हाल यूरोप का भी है। तकरीबन 100 बिलीयन डॉलर की सरकारी मदद के बाद भी छोटे किसान किसानी छोड़ने के लिए मजबूर हुए हैं। वजह पूरी दुनिया की तरह वही कि उन्हें अपनी उपज का इतना भी कीमत नहीं मिल रहा कि वह अगले मौसम के लिए फसल लगा पाए। पैसा कम है और कर्जा ज्यादा है। परिणाम यह है कि जिसके पास बोझ सहने की क्षमता नहीं, वे खेती किसानी छोड़ने को मजबूर है। अध्ययन बताता है कि फ्रांस में हर साल तकरीबन 500 किसान आत्महत्या कर लेते हैं।

कॉरपोरेट का काम करने का यही ढंग है। अगर साझेदारी के तौर पर कोई बड़ा किसान नहीं है। तो कॉरपोरेट छोटे किसानों को लील लेता है। भारत का भी यही हाल है। तकरीबन 80% किसान कभी मंडियों का मुंह नहीं देखते। मंडियों से दूर ही रहते हैं। यह विक्रेताओं को अपना अनाज बेचते आ रहे हैं। इन्हें कोई फायदा नहीं हुआ है। इन्हीं में से पिछले 25 सालों में तकरीबन 4 लाख किसानों ने आत्महत्या की है। इन्हीं में से अधिकतर किसानों ने उद्योगों में सस्ती मजदूरी के तहत खुद को झोंक दिया है।

सरकार द्वारा लाए गए तीन नए कानून मंडियों को ख़तम कर, किसानों को एमएसपी से दूर कर, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत कॉरपोरेट को रास्ता देकर खेती किसानी से किसानों को पूरी तरह बाहर करने की योजना है। इसलिए भले ही ये आरोप लगाया जा रहा कि मौजूदा आंदोलन में बड़े किसानों की सहभागिता अधिक है लेकिन हकीकत यह है कि अगर एमएसपी की गारंटी नहीं मिली और तीनों कानून वापस नहीं लिए गए तो छोटे किसानों के लिए भारतीय कृषि में बचा हिस्सा भी खत्म हो जाएगा।

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