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कश्मीर में दहेज़ का संकट

कश्मीर से ग्राउंड रिपोर्ट इस क्षेत्र में दहेज़ से संबंधित घरेलू हिंसा और मौतों के खतरों को बयां करती है। दहेज़ प्रथा, एक अंदर ही अंदर गोपनीय रूप से पकने वाली समस्या बनी हुई है, जिसे अभी भी राज्य द्वारा बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया जा रहा है।
kashmir
फ़ाइल फ़ोटो

मुहम्मद अशरफ़ की छोटी बहन की कथित तौर पर हत्या के पांच महीने बाद, मैं उनसे मुलाक़ात करने उनके बदरन ऐशमुकम स्थित घर गई थी। एक पुरानी ऊँची इमारत के साथ-साथ विशिष्ट कश्मीरी वास्तुकला वाला यह घर, अपने आस-पड़ोस से अलग दिखता है। जब मैं परिसर में दाखिल हुई तो अशरफ़ अपने बरामदे में बैठे हुए थे।

अशरफ़ याद करते हुए बताते हैं “उसे हमेशा इस बात की शिकायत रहा करती थी कि उसकी ससुराल वाले दहेज की मांग करते रहते हैं, खासकर उसके पति द्वारा जो पेशे से दर्जी हैं।” दहेज़ की मांग अक्सर फ्रिज, वाशिंग मशीन, टेलीविजन, तांबे के बर्तन की सूरत में की जाती थी या कभी-कभी नकदी के तौर पर की जाती थी। यह मांग हर बार उसके मायके से वापस आने के बाद पहले की तुलना में बढ़ जाया करती थी। 5 मार्च को, तकरीबन 2 बजे सुबह अशरफ़ के पास अपने बहनोई मुश्ताक अहमद लोन का फोन आया था, जिसने उन्हें बताया कि उसके घर पर एक दुर्घटना घट गई है।

“मैं अपने होशो-हवास खो बैठा था, मेरे हाथ से मेरा यह फोन छूट गया और मैं अपनी बहन की तलाश में दौड़ पड़ा।” किसी तरह वे अनंतनाग के जिला अस्पताल पहुंचे जहाँ उन्होंने देखा कि उनकी बहन बिस्तर पर बुरी तरह से लहूलुहान होकर पस्त अवस्था में पड़ी हुई थी। बाद में उसे गंभीर चोटों के चलते श्रीनगर के एसएमएचएस अस्पताल के लिए रेफ़र कर दिया गया था।

नीलम (बदला हुआ नाम) का जन्म जनवरी 1987 में एक निम्न-मध्यम-वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता एक किसान थे और भाई एक सरकारी अध्यापक है। उसके जिम्मे एक बड़े परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी थी। सीमित आय के बीच नीलम ने शादी से पहले सारे परिवार को अच्छे से संभाल रखा था। अशरफ़ ने उसे एक मजबूत-इरादे वाली लड़की बताया।

हादसे से पहले की नीलम चित्र स्रोत: नीलम के भाई 

“यहाँ पर वह हर चीज का ख्याल रखा करती थी, वो चाहे खेती-बाड़ी का काम हो या रसोई का काम; वह हर काम को बखूबी से अंजाम दिया करती थी।” अशरफ़ से जब उसकी शैक्षणिक योग्यता के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था

“वह कभी स्कूल नहीं गई, लेकिन वह बेहद समझदार और बहादुर थी। उससे बात करने के बाद कोई भी इस बात की कल्पना नहीं कर सकता था कि उसने अपने जीवन में कभी भी स्कूल का मुहँ नहीं देखा था।”

आखिर वह कैसे जल गई, इस बारे में कुछ खास जानकारी नहीं मिल पाई है। हालाँकि, डॉक्टर के मुताबिक उसके सारे शरीर पर मिट्टी तेल बिखरा पड़ा था। उसके ससुराल वालों ने आरोपों से इंकार किया है, उनका कहना था कि उसने (नीलम) खुद अपने शरीर पर मिट्टी तेल छिड़का था।

अशरफ़ कहते हैं “वह एक बहादुर औरत थी। एक हिम्मती महिला, वह खुद को नहीं मार सकती (जैसे कि उन्हें इस बात को किसी के सामने साबित करना है)।” नीलम अपने पीछे दो बच्चों को छोड़ गई है जो अपने रिश्तेदारों से लगातार अपनी माँ के ठौर-ठिकाने बारे में पूछते रहते हैं।

नीलम कश्मीर में घरेलू हिंसा की शिकार अनगिनत पीड़िताओं में से एक है। भले ही कश्मीर एक पुलिस राज है, लेकिन दहेज़ ने कभी भी अपनी उपस्थिति को महसूस नहीं कराया है। यह हमेशा से एक गोपनीय विषय बना हुआ है। राज्य इस संकट को रोकने के प्रति हमेशा से ही अनिच्छुक रहा है और अन्य गतिविधियों में व्यस्त है जबकि आम लोगों ने इसके कार्य-व्यापार को अपनी जिंदगी में सामान्यीकृत कर लिया है और अक्सर इसका उत्सव मनाते हैं। 

एक प्रथा के तौर पर दहेज को कभी भी कम करके नहीं आँका गया है; इसने समूचे क्षेत्रों के लोगों से अपार समर्थन हासिल किया है। लोग बड़े उत्साह के साथ दहेज प्रथा का जश्न मनाते हैं और इसे अपनाते हैं, और इस प्रयास में वंचित वर्ग को इसका सबसे अधिक नुकसान झेलना पड़ता है। अपनी बेटियों की शादी से पहले ही माता-पिता को लाखों बार बेमौत मरना पड़ता है। जब तक लड़के के परिवार वाले आकर दहेज की मांग नहीं करते, वे लगातार विभिन्न आशंकाओं में घिरे रहते हैं ।

मुख्य रूप से मुस्लिम समाज में दहेज को कश्मीर में सभी स्तरों पर एक सामाजिक बुराई माना जाता है। लेकिन इसके बावजूद, यह विवाह की संस्था का एक अविभाज्य हिस्सा बन चुका है। यहाँ तक कि शादी के बंधन में बंधने से पहले ही दोनों परिवारों के बीच में दहेज़ में लेन-देन के मुद्दे को निपटा लिया जाता है, जो कहीं न कहीं रिश्ते को स्थायित्व प्रदान करने में मदद करता है। इसमें आभूषण से लेकर नकदी, विभिन्न गैजेट्स, कपड़े-लत्ते और बिजली से चलने वाले उपकरणों से लेकर कार तक कुछ भी हो सकता है।

कश्मीर में दहेज़ प्रथा का कोई निश्चित आकार या स्वरुप नहीं रहा है; यह किसी भी स्वरुप में सामने आ सकता है जिसका कोई व्यावसायिक मूल्य हो। इसका मतलब यह नहीं है कि कुछ वर्गों में इसे हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता है, लेकिन यह सच है कि अनिवार्य रूप से इसने समाज में क्रमिक रूप से अपनी पैठ कर ली है। अक्सर तोहफे के नाम पर इसे संपन्न किया जाता है। यहाँ तक कि कश्मीर में शादियाँ अब एक बड़ी मुसीबत का सबब बन चुकी हैं। अब यह सिर्फ धन-दौलत के प्रदर्शन और वांछित दिखावे की श्रृंखला तक ही सीमित है। लेकिन फिजूलखर्ची वाले वैवाहिक समारोहों, मुफ्त उपहारों के आदान-प्रदान, अवांछित कसीदेकारियों, और बीस से अधिक प्रकार के व्यंजनों को परोसने के निंदनीय चलन ने कश्मीर में पहले से लगी आग में घी डालने का काम किया है। इसने दहेज़ की प्रथा को बढावा देने और नीलम जैसे लोगों की स्थिति को दयनीय बना डाला है, जिन्हें अपने ससुराल पक्ष के हाथों पीड़ित होना पड़ता है। 

दहेज़ प्रथा का इतिहास भले ही पुराना या दकियानूसी हो, लेकिन इसकी पहेली इतनी मजबूत है कि नियम कितने भी जटिल क्यों न हों, इसका चलन वास्तव में कभी भी मंद नहीं हो सका है। दहेज़ के चलन ने जब भारतीय समाजों में प्रवेश किया तो इसने अभूतपूर्व दर से खुद को स्थापित कर लिया। हाल ही में आयशा का मामला आँखें खोल देने वाला रहा है, लेकिन दहेज़ का खतरा अपनी जगह पर बरकरार है। 

एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) के अनुसार, हर एक घंटे पर एक महिला दहेज़ हत्या का शिकार हो रही है। एनसीआरबी के मुताबिक, अकेले वर्ष 2016 में ही दहेज़ से संबंधित 7628 मौतों की सूचना प्राप्त हुई थी। लॉकडाउन के दौरान, कश्मीर रीडर (कश्मीर के एक दैनिक अख़बार) ने सितंबर 2020 में ऐसी पांच केस स्टडी की पहचान और जांच की थी, जिनमें उन्होंने पाया कि इससे पीड़ित महिलाएं भयानक मानसिक एवं शारीरिक उत्पीड़न के दौर से गुजर रही थीं। इन मामलों में उन्होंने पाया कि दहेज़ एक व्यापक स्तर पर प्रचलित सांस्कृतिक खतरा है, और लोग इसका समर्थन करते हैं। अधिकांश मामलों में, दहेज़ न लाने पर पति द्वारा पत्नी को प्रताड़ित, गाली-गलौज और मारा-पीटा जा रहा है।

ग्रेटर कश्मीर (कश्मीर के प्रसिद्ध दैनिक अखबारों में से एक) ने भी दहेज़-संबंधी मामलों की जांच की है। 2017 तक के उपलब्ध आंकड़ों में, राज्य ने पिछले तीन वर्षों के दौरान दहेज़ के कारण होने वाली 15 मौतों को दर्ज किया था। 2014 में तकरीबन 639 मामले दर्ज किये गए थे, जिनमें 1108 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। 2015 से 2017 के बीच में दहेज़ से संबंधित 1000 से अधिक मामले दर्ज किये गए थे। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने भी इस सिलसिले में 583 व्यक्तियों की गिरफ्तारियां की थीं, और घरेलू हिंसा के 422 मामले दर्ज किये गए।

हाल ही में पिछले दिनों, विशेषकर लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा की घटनाओं के बारे में मीडिया रिपोर्टों ने मर्दवादी और पितृसत्तावादी पक्ष के कुरूप पहलू को उजागर करना जारी रखा था। नीलम की मौत भी दहेज़ संबंधी घरेलू हिंसा से जुड़े कई मामलों में से एक था, जिन्हें कश्मीर में दर्ज किया गया था। उसकी छोटी उम्र और अपने पीछे छोड़े गए दो बच्चों की कहानी ने ऑनलाइन बहस-मुबाहिसों को शुरू कर दिया था, लेकिन कुछ ही दिनों में ये बहसें खत्म हो गईं।

एक घटना जो पूरे कश्मीर में दहाड़ रही थी, जब राजौरी की एक लड़की की उसके ससुराल पक्ष द्वारा कथित तौर पर हत्या कर दी गई थी। उसके माता-पिता का आरोप था कि उसे घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ा था। एक और मामला बांदीपोरा से सामने आया, जहाँ पर कथित तौर पर एक महिला की आत्महत्या से मौत हो गई थी। उसके परिवार ने उसके सस्रुराल वालों पर “दहेज़ की खातिर उसकी हत्या कर देने” का आरोप लगाया था। पीड़िता के पिता बशीर अहमद खान का कहना था कि उसकी मौत के लिए उसका पति और उसके माता-पिता जिम्मेदार हैं क्योंकि वे उसे दहेज़ के लिए लगातार प्रताड़ित कर रहे थे। महिला के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं।

नीलम की शादी 2012 में उसके माता-पिता की मर्जी से चुने गए व्यक्ति से हुई थी। अशरफ़ के मुताबिक, “पहले दो साल तो अच्छे गुजरे; वे अक्सर आपस में लड़ते-झगड़ते थे लेकिन इससे उनकी शादीशुदा जिंदगी में कभी कोई अड़चन नहीं आई। लेकिन एक बच्ची को जन्म देने के बाद से ही उनके बीच की लड़ाई अक्सर और हिंसक होने लगी थी। नीलम के ससुराल वाले उसे ताना मारते थे कि तुझे तेरे माता-पिता के घर से कुछ भी मिला; तुम्हारे बाप ने तुम्हें कुछ नहीं दिया। दूसरी लड़कियों को देखो, वे कितनी ज्यादा संपत्ति लेकर आई हैं।”

उसकी इस रोज-रोज की भयानक अग्नि-परीक्षा को खत्म करने के लिए अशरफ़ ने अपनी बहन और भांजी को अपने घर लाने का फैसला किया।

अशरफ़ ने बताया “जब मैं उसे लेने के लिए गया, तो उन्होंने मुझे भी गालियाँ दीं।” छह महीनों के बाद पति-पत्नी में सुलह हो गई और उसका पति उसे वापस लिवा ले गया। अशरफ़ का कहना है कि जब उसकी बहन ने अपने पति के घर वापस जाने का फैसला लिया तो वे बेहद खुश हुए। उसके पति ने अपनी गलतियों के लिए माफ़ी तक मांगी थी। इसके फ़ौरन बाद, नीलम ने एक और बच्चे को जन्म दिया, जो लड़का था। लड़के के जन्म ने शायद नीलम को यह भरोसा दिलाया होगा कि चीजें पहले की तुलना में बेहतर हो जाएँगी, लेकिन इस सबसे कोई राहत नहीं मिली। जल्द ही, नीलम को एक बार फिर से घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ा। 

मुलायमित किंतु चिंतित लहजे में अशरफ़ ने बताया “मैं आपको बता नहीं सकता कि उस इंसान (मुश्ताक) ने मेरे पिता से बात करते समय अपनी पत्नी के लिए किन शब्दों का इस्तेमाल किया था। हम खुद पर शर्मिंदा थे कि हमने कैसे अपनी बेटी को ऐसे खौफनाक इंसान के साथ ब्याह दिया था।”

जिस रात नीलम की कथित तौर पर हत्या कर दी गई थी, अशरफ़ याद करते हुए बताते हैं कि दिन में उन्हें उसकी तरफ से फोन आया था।

“उस दिन उसने रात 11:30 बजे मुझे फोन किया था और बताया था कि उन्होंने फिर से दहेज़ की मांग शुरू कर दी है। उसने मुझसे पूछा था कि मैं क्या करने जा रहा हूँ।” अशरफ ने उससे कहा था कि वह उसे लेने के लिए अगले दिन आ जायेगा। इसके बाद, अशरफ़ ने उसके पति को फोन किया था, जिसका कहना था कि उसकी बहन का मानसिक संतुलन “ठीक नहीं” है।

नीलम एक हफ्ते तक जिंदगी की जंग लड़ी। इस दौरान, वह पुलिस को अपनी गवाही देने में सफल रही। अपने आसुंओं पर किसी तरह काबू करते हुए अशरफ़ ने बताया “पुलिस ने हमारी शिकायत पर उसके ससुराल वालों के खिलाफ मामला दर्ज नहीं किया। लेकिन यह नीलम थी जिसने घटना के दिन उसके साथ काया हुआ वह हर बात अपने बयान में बताई। इसके बाद उसने हमसे और इस भौतिक दुनिया से विदा ली।” इसके तुरंत बाद ही, नीलम के पति और उसके ससुराल वालों को गिरफ्तार कर लिया गया था।

कश्मीर में दहेज़ एक खतरा बन चुका है। एक अन्य घटना में समीरा (बदला हुआ नाम) नाम की लड़की से जुड़ी घटना दिल दहला देने वाली है। समीरा तुलमुल्ला गांदरबल के बाहरी इलाके में रहती है, जो श्रीनगर से 20 किमी की दूरी पर स्थित है। वह दहेज़ और घरेलू हिंसा दोनों का ही शिकार रही है और एक निम्न-मध्यम-वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती है। पिछले साल उसकी माँ का निधन हो गया था, और उसके पिता पिछले पांच साल से बिस्तर पर हैं। उसके पिता मजदूरी करके अपना जीवन-यापन किया करते थे, ने आजीविका के लिए अपने दो-मंजिला मकान को किराए पर दे रखा है। समीरा ने साक्षात्कार में इस बात का जिक्र किया है कि कैसे उनके ससुराल वालों ने उनकी बेटी को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था।

समीरा ने कहा “उन्हें हमेशा से लड़के की चाहत थी। जब मैंने लड़की को जन्म दिया तो उन्होंने उसे हाथ तक नहीं लगाया।”

चूँकि समीरा एक निम्न-आय वर्ग वाले परिवार से ताल्लुक रखती थी, इसलिए उसे हमेशा अपनी सास से ताने और व्यंग्य बाण ही सुनने को मिलते थे। एक निष्फल स्वर में समीरा ने अपनी आपबीती बयाँ की “तुम कुछ लेकर नहीं आई; तुमने हमें एक बेटी पैदा करके दी है। अगला बच्चा लड़का ही होना चाहिए। वरना, मेरा बेटा तुम्हें तलाक दे देगा।” 

एक पितृसत्तात्मक समाज में, महिलाएं पुरुष आधिपत्य के विकास और प्रसार में अहम भूमिका निभाती हैं। घरेलू पितृसत्तात्मकता के विकास के पीछे की सबसे बड़ी वजह घरेलू महिलाएं होती हैं। विशेषकर कश्मीर जैसी जगह पर, पुरुषों की तुलना में महिलाएं दहेज़ की मांग कहीं ज्यादा करती हैं; और दहेज़ की मांग करने के लिए अपने बेटों को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। समीरा ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान अपनी माँ की मौत के बाद से उसे 2020 में अपने माता-पिता के घर आना पड़ा था। तब से वह अपने ससुराल वापस नहीं लौटी।

“न सिर्फ वे मेरी छोटी बच्ची या मुझे देखने अभी तक यहाँ नहीं आये, बल्कि उन्होंने मेरे नन्हें बच्चे तक को, जो छह साल का भी नहीं है, को मुझसे छीन लिया है।”

समीरा उन दिनों को याद करती हैं जब उसके द्वारा एक लड़के को जन्म देने के बाद उसके सास-ससुर वाले उसे कभी नहीं छोड़ते थे, लेकिन उसके प्रति उनके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया था।

“मेरा पति चाहता था कि मैं एक मशीन की तरह काम करते रहूँ। कभी एक बार भी उसने मुझे डॉक्टर के पास चेक अप के लिए ले जाना उचित नहीं समझा, यहाँ तक कि जब मैं दर्द में थी।”

जिस दर्द, पीड़ा और आघात के बीच से समीरा गुजरी थी, उसने उसे बुरी तरह से झकझोर कर रख दिया था। यहाँ तक कि बेटी के जन्म के बाद उसने अपनी जीवन लीला खत्म करने का भी प्रयास किया था।

“आत्महत्या की घटना के बाद से मैं अवचेतन अवस्था में पहुँच गई थी क्योंकि एनेस्थीसिया के बाद मेरा शरीर सुन्न हो गया था और मन चित्ताकर्षक हो चला था, लेकिन मेरे पति ने मेरे साथ गाली-गलौज करना और सताना बंद नहीं किया था।”

समीरा जो अब अपने पिता के घर में रहती है, वापस नहीं लौटना चाहती हैं, लेकिन चाहती हैं कि उनका बेटा उन्हें लौटा दिया जाये, जिसे उसके ससुराल वालों ने उससे जबरन छीन लिया था। एक बातचीत में उसने जिक्र किया था, “मैं वहां वापस कैसे जा सकती हूँ? वह आदमी मुझे जान से मार सकता है। उसने मेरे बच्चे को मार डाला था। मुझे अपने एक बच्चे को न चाहते हुए भी गर्भपात करवाना पड़ा क्योंकि वह इसे नहीं चाहता था।”

शादी में अधिकांश महिलाओं की त्रासदी यह है कि वे बच्चे को रखने या गर्भपात के अधिकार तक को खो देती हैं। इस बारे में क्या फैसला लेना है, इसे बच्चे का पिता तय करता है। कश्मीर में अधिकांश महिलाओं की किस्मत उनके पुरुष समकक्षों पर निर्भर करता है, भले ही इसका अर्थ गर्भपात या बच्चे को रखने की अनिच्छा ही क्यों न हो।

दहेज़ और घरेलू हिंसा के बारे में कितना कुछ लिखा और विचार-विमर्श किया जा चुका है, कि कैसे ये सब सामजिक बुराइयां हैं, और समाज के ताने-बाने पर इस सबका कैसा प्रभाव पड़ रहा है और कैसे यह हमारी संस्कृतियों को बिगाड़ता चला जा रहा है। लेकिन इस सबके बावजूद, इसकी दर कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है।

कश्मीर विश्वविद्यालय में एक सहायक प्रोफेसर, सैयदा अफशाना जो मीडिया अध्ययन पढाती हैं, का कहना था “दहेज़ प्रथा निश्चित तौर पर एक बीमार परंपरा है जिसे हमें हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। कश्मीर में हम जिस चीज को अपना रहे हैं वह हमारी मान्यताओं के विपरीत है। फतवे के मुताबिक यह दूल्हे और उसके परिवार पर निर्भर करता है कि वे दुल्हन को जितना संभव हो सके, उस पर कोई सीमा लगाया बिना दहेज़ (मेहर) दें। हालाँकि, ज्यादातर शादियों में दुल्हन को दूल्हे के घर जाते वक्त अपने साथ दहेज़ लाना पड़ता है। कई मामलों में दूल्हे के परिवार की तरफ से दहेज़ की मांग की जाती है। हमने कई महिलाओं को दहेज़ से संबंधित घरेलू हिंसा का सामना करते हुए देखा है, जिसमें कुछ मामलों में इसके परिणामस्वरूप दुल्हन की मौत तक भी होते देखी है। उचित शिक्षा के अभाव और ऐसी प्रथाओं को हासिल सामाजिक स्वीकृति ने जख्मों पर नमक छिडकने का काम किया है। कश्मीर में लोगों ने पराई संस्कृतियों का अनुकरण करते हुए तड़क-भड़क वाली शादियों को स्वीकार करना शुरू कर दिया है। कुछ मामलों में तो हमने दुल्हन के परिवार वालों को विवाह समारोह और विदाई के समय बहुत ज्यादा पैसों के दिखावे में उभ-चूभ करते देखा है, जब वे अपनी बेटी को ढेर सारे दहेज़ के साथ नकदी और वस्तु के रूप में उसके ससुराल वालों के साथ विदा करते हैं।”

उन्होंने आगे कहा, “यह प्रथा, भौतिकवाद की अवधारणा को बढ़ावा देती है, जो एक अन्य बुराई है जो समाज के कमजोर वर्गों से आने वाली महिलाओं की शादीशुदा जिंदगियों के लिए हानिकारक साबित हो रही है। इसके चलते हाल के वर्षों में देर से शादियों के चलन में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। इस सामाजिक हादसे से उबरने का सबसे अच्छा तरीका है संविधान की उस पुस्तक की ओर वापस लौटा जाए जो हमें विधिपूर्वक मितव्ययिता के साथ विवाह करने के लिए प्रोत्साहित करता है। एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मेहर के तौर दहेज़ का एक छोटा हिस्सा देने और एक बड़े हिस्से को उपहार (थान) के तौर पर रखने के बजाय, दूल्हे के परिवार से आने वाले पूरे दहेज़ को मेहर के तौर पर रख लेना चाहिए, जैसा कि शरिया में निर्देशित किया गया है। युवा पीढ़ी को इस पवित्र रिश्ते के सार और विवाहों को विधिपूर्वक मनाते समय उनके धर्म की शिक्षाओं के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता है।”

इस वृतांत को नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया (एनएफआई) के द्वारा स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए फेलोशिप के तहत दर्ज किया गया है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/The-Perils-Dowry-Kashmir

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