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महिला मतदाताओं का उभार: भारत के चुनावी नतीजों एक अहम फ़ैक्टर

इन चार अहम राज्यों को आपस में जोड़ने वाला सूत्र आगामी विधानसभा चुनावों में महिला मतदाताओं के मतदान का हैरतअंगेज़ उच्च स्तर होगा।
महिला मतदाताओं का उभार: भारत के चुनावी नतीजों एक अहम फ़ैक्टर

चुनाव आयोग ने 1962 के लोकसभा चुनावों में पहली बार पुरुष और महिला मतदाताओं के मतदान की भागीदारी की अलग-अलग संख्याओं को सामने रखा था, जिसके मुताबिक़ महिला मतदाताओं की भागीदारी 46.7% थी। लेकिन 2019 तक इस भागीदारी में तक़रीबन 20 प्रतिशत अंकों की ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हुई थी और यह बढ़कर  67.18% हो गयी। हालांकि, इसी अवधि के दौरान पुरुषों के मतदान में महज़ 5 प्रतिशत संख्या की वृद्धि हुई, 1962 में जहां पुरुषों की कुल भागीदारी का प्रतिशत 62.1% था, वहीं 2019 में यह बढ़कर 67.08% हो गयी। मतदाताओं के मतदान में हुई इस बढ़ोत्तरी दर के अंतर के परिणामस्वरूप 2019 में भारत के चुनावी इतिहास में एक ऐतिहासिक पल तब आया, जब पहली बार लोकसभा चुनावों में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों के मतदान प्रतिशत से थोड़ा ज़्यादा हो गया।

लेकिन,भारत के चुनावी इतिहास में बदलाव का यह मोड़ 2019 के आम चुनावों से कुछ साल पहले आया था। 1962 से लेकर 2017-18 के बीच विधानसभा चुनावों में महिलाओं के मतदान में भारतीय चुनाव आयोग (IEC) के आंकड़ों के मुताबिक़ 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी।

भारतीय चुनाव आयोग  (ECI) के आंकड़े दिखाते हैं कि 2016 में पहली बार, असम, बंगाल, तमिलनाडु और केरल के राज्य विधानसभा चुनावों में पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं के मतदान की हिस्सेदारी ज़्यादा थी। इस प्रकार, ऐसा लगता है कि चुनावी प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी में यह बढ़ोत्तरी राज्य विधानसभा चुनावों में और भी ज़्यादा हुई है। हालांकि, महिलाओं के मतदान में हुई यह ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी देशभर में एक समान नहीं रही है। कुछ राज्यों में तो महिला मतदाताओं की संख्या में चिंताजनक गिरावट देखी गयी है। मिसाल के तौर पर, दिल्ली में 1962 से 2014 के बीच हुए लोकसभा चुनावों में महिलाओं के मतदान प्रतिशत में 11% की गिरावट आ गयी।

इस फ़लक के दूसरे छोर पर असम, बंगाल, बिहार, ओडिशा, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्य हैं, जहां 2011 और 2016 के चुनावों के सर्वेक्षण में ईसीआई द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक़ हाल के वर्षों में हुए चुनावों में महिलाओं की भागीदारी में आश्चर्यजनक सुधार देखा गया है। दिलचस्प बात यह है कि उत्तर-पूर्वी राज्य, असम में 1962 से 2014 के बीच महिलाओं के मतदान में 113% की ज़बरदस्त वृद्धि हुई। बंगाल में हुए पिछले दो विधानसभा चुनावों में पुरुषों द्वारा किये गये मतदान के मुक़ाबले महिलाओं का मतदान कहीं ज़्यादा रहा है।

इस लिहाज़ से केरल और तमिलनाडु ने असम और बंगाल के मुक़ाबले बेहतर प्रदर्शन किया है। दोनों ही दक्षिणी राज्यों में 2011 और 2016 के विधानसभा चुनावों में पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं ने ज़्यादा मतदान किया। केरल में 2011 में पुरुषों की तुलना में महिला मतदाताओं की संख्या 0.3 प्रतिशत कम थी। लेकिन, जहां तक वास्तविक संख्या का सवाल है, तो 2011 के चुनावों में पुरुषों की तुलना में 6 लाख ज़्यादा महिलाओं ने अपने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया। 2011 के बाद हुए विधानसभा चुनावों में राज्य में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुष मतदान के प्रतिशत से 3 प्रतिशत ज़्यादा हो गया और पुरुष और महिला मतदाताओं के बीच का अंतर  6 लाख से बढ़कर 10 लाख तक और बढ़ गया। पड़ोसी राज्य, तमिलनाडु में 2011 और 2016 के विधानसभा चुनावों में इसी तरह की प्रवृत्ति देखी गयी है, यानी मतदान के मामले में महिलाओं ने पुरुषों को पछाड़ दिया है। इन छह राज्यों में से चार राज्यों-असम, बंगाल, तमिलनाडु और केरल में 2021 में चुनाव होने हैं।

हालांकि, इन राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य में चुनावों के अलावा आम तौर पर शायद ही कोई समानताएँ हैं, लेकिन इन चार राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में महिला मतदाताओं का आश्चर्यजनक उच्च स्तर इन राज्यों को आपस में जोड़ने वाला एक सूत्र होगा। महिला मतदाता और उनका मतदान आगामी चुनावों में एक महत्वपूर्ण कारक होंगे। लेकिन,सवाल यह है कि क्या महिलाओं और महिला मतदान ऐसा ‘निर्णायक’ कारक होगा, जो 2021 में होने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजों को निर्धारित करेगा।

इस बड़े सवाल का जवाब देने से पहले कई दूसरे सवालों के जवाब दिये जाने की ज़रूरत है। क्या महिलायें  सामूहिक रूप से मतदान करती हैं ? महिला मतदाता का व्यवहार पुरुष मतदाता के व्यवहार से किस तरह अलग होता है? किसी सरकार के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त सत्ता विरोधी (या समर्थन) भावना की स्थिति में क्या महिलायें पर्याप्त अनुपात में पुरुषों से अलग वोट करेंगी? जब महिला मतदाताओं के बीच मज़बूत आधार हो, तो क्या यह स्थिति कुछ दलों / नेताओं के पक्ष में हो जाती है ?

2020 में होने वाले बिहार और दिल्ली विधानसभा चुनावों के फ़ैसले पर फिर से गौर करने से इन सवालों के जवाब मिल सकते हैं।

बिहार और दिल्ली के नतीजों पर महिला मतदाताओं के असर

बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) ने 37.26% वोट हासिल किये और 125 सीटों के साथ एक मामूली जीत दर्ज की। दिलचस्प बात यह है कि एनडीए की इन 125 सीटों में से 99 सीटें उन विधानसभा सीटों से  आयीं, जहां महिला मतदान,पुरुष मतदान से ज़्यादा रहा। 166 निर्वाचन क्षेत्रों में,जहां महिलाओं का मतदान पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा हुआ था, वहां भाजपा-जदयू ने 92 सीटें जीतीं और एनडीए के दूसरे छोटे-छोटे घटक,विकासवादी इन्सान पार्टी और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा ने सात सीटें जीतीं। राष्ट्रीय जनता दल की अगुवाई वाला गठबंधन इन 166 निर्वाचन क्षेत्रों में से 61 में ही जीत हासिल कर सका,जहां महिलाओं की संख्या ज़्यादा थी। बिहार के चुनावी नतीजे का एक चरण-वार विश्लेषण हमें इस बात की बेहतर समझ देता है कि महिलाओं के मतदान ने नतीजों को कैसे प्रभावित किया।

एकदम से साफ़ हो जाता है कि हर एक चरण के बाद,जैसे-जैसे महिलाओं का मतदान बढ़ता गया,भाजपा-जद (यू) को फ़ायदा मिलता गया। इसके विपरीत,राजद की अगुवाई वाले ‘महागठबंधन ’(MGB) ने धमाकेदार शुरुआत तो की, लेकिन इसकी क़िस्समत गोता खा गयी,क्योंकि महिलाओं का मतदान पहले चरण के बाद बढ़ता चला गया। लेकिन,यह निष्कर्ष निकालना ग़लत होगा कि महिला मतदाताओं ने एनडीए को बख़्श दिया और उन्होंने नीतीश कुमार को सत्ता विरोधी भावना से पार दिलाते हुए एक और कार्यकाल की बागडोर थमा दी। जिस तरह बिहार में निकटतम चुनावी लड़ाई होती है,वैसे में राजनीतिक पंडितों द्वारा की गयी टिप्पणी और भविष्यवाणी के विपरीत परिणाम होते हैं। अंतिम दो चरणों में एनडीए और एमजीबी के पक्ष में हुए मतदान की प्रकृति में आये विपरीत बदलव को ‘जंगल राज’के आह्वान से जोड़ा जा सकता है और दूसरे और तीसरे चरण के मतदान के पहले नीतीश कुमार की ओर से की गयी भावनात्मक अपील से जोड़ा जा सकता है। असल में,आख़िरी नतीजा अलग-अलग कारकों के आपसी जुड़ाव के चलते सामना आया,ये कारक थे-पंचायतों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण,साइकिल योजना,स्नातक तक की छात्राओं को मिलने वाले लाभ,सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 35% आरक्षण,राज्य और केंद्र सरकार की प्रत्यक्ष नक़द लाभ योजनायें जैसी नीतीश की महिला समर्थक नीतियां, 'जंगल राज' की वापसी के डर के साथ-साथ शराबबंदी (दोषपूर्ण तरीक़े से लागू किये जाने के बावजूद), और इस चुनाव के 'आख़िरी चुनाव' होने पर नीतीश की भावनात्मक बातें।

आम आदमी पार्टी की 2020 के विधानसभा चुनावों में भारी जीत दिल्ली की महिला मतदाताओं से मिले समर्थन से ही प्रेरित थी। लोकनीति-सीएसडीएस के एक सर्वेक्षण से पता चला था कि आम आदमी पार्टी के लिए महिलाओं के अपने पुरुष समकक्षों के मुक़ाबले क्रमशः 60% और 49% मतदान होने की संभावना थी। मतदान का यही वह ज़बरदस्त लिंगगत फ़ासला था,जिसने आम आदमी पार्टी को महिला मतदाताओं के बीच भाजपा के मुक़ाबले 25 प्रतिशत अंकों की तक़रीबन एकतरफ़ा बढ़त दिला दी थी। पुरुष मतदाता के लिहाज़ से भाजपा पर मिली आम आदमी पार्टी की यह बढ़त महज़ 6 % के अंकों की थी। पुरुषों और महिलाओं के ये विपरीत वोटिंग पैटर्न उल्लेखनीय रूप से सभी जातियों, वर्गों और आयु समूहों में देखा गया था। यह दलील दी जा सकती है कि अगर महिलाओं ने 'आप' के लिए इतनी बड़ी संख्या में मतदान नहीं किया होता,तो पार्टी को किसी तरह जीत हासिल हो पाती। आम आदमी पार्टी की सरकार ने महिला मतदाताओं को लुभाने की अपनी रणनीति पर ज़बरदस्त रूप से ध्यान दिया था। केजरीवाल की अगुवाई में दिल्ली लिंगगत बजट पर केंद्र सरकार के 2012-13 के दिशानिर्देशों को लागू करने वाले शुरुआती राज्यों में से एक बन गयी थी। 2018-19 में दिल्ली का लिंगगत बजट,केंद्र सरकार के 5.1% से कहीं ज़्यादा,यानी 8.6% (कुल बजट का) का रहा। लेकिन,असली गेम चेंजर योजना, चुनावों से कुछ ही महीने पहले घोषित वह बहुत प्रचारित महिला योजना थी,जिसके मुताबिक़ बसों में उनकी मुफ़्त सवारी थी। सीएसडीएस के उस सर्वेक्षण से पता चला था कि जिन परिवारों ने इस योजना का फ़ायदा उठाया था,उनमें भाजपा के मुक़ाबले आम आदमी पार्टी को वोट देने की संभावना 42 प्रतिशत ज़्यादा थी। इसके विपरीत,आम आदमी पार्टी उन महिलाओं के परिवारों के बीच 3 प्रतिशत अंकों से पीछे चल रही थी,जिन्हें इस योजना का लाभ नहीं मिला था। पानी/ बिजली बिल की सब्सिडी, महिलाओं के मिलने वाली अन्य मुफ़्त चीज़ें, राजधानी में सीएए-एनआरसी के विरोध पर बीजेपी का कड़ा रुख,सबने मिलकर दिल्ली की महिलाओं को आम आदमी पार्टी की तरफ़ मोड़ दिया।

विकल्प की आज़ादी और ग्रामीण महिला मतदाताओं में बढ़ोत्तरी

2014 में सीएसडीएस की तरफ़ से किये गये एक सर्वेक्षण ने भारत में महिला मतदाताओं को लेकर लंबे समय से चली आ रही धारणा की धज्जियां उड़ा दीं। उस सर्वेक्षण में शामिल 70% महिलाओं ने कहा कि उन्होंने अपने पति से कभी यह सलाह नहीं ली कि वोट किसे देना है।  पुरुष और महिलायें किस तरह अलग-अलग और स्वतंत्र रूप से वोट करते हैं, इस लिहाज़ से पुरुषों और महिलाओं के बीच मतदान के विभिन्न स्तरों को देखा जाता है। यह अंतर 2020 के चुनावों में आम आदमी पार्टी जैसी किसी किसी पार्टी के लिए 15 से 20 प्रतिशत तक भी ज़्यादा हो सकता है। महिलाओं का मतदान कई तरीक़ों से पार्टी की संभावनाओं को प्रभावित कर सकता है। उदाहरण के लिए, महिलाओं के बीच भाजपा का समर्थन पुरुषों के मुक़ाबले कम रहा है। प्रणय रॉय और दोराब एस.सोपरिवाला ने अपनी किताब, 'द वर्डिक्ट' में इस बात पर रौशनी डालते हुए लिखा है कि 2014 में यूपीए पर एनडीए की बढ़त पुरुषों के बीच 19 प्रतिशत और महिलाओं के बीच महज़ 9 प्रतिशत अंको की थी। यह समझने के लिए आइए इस पर विचार करते हैं कि पुरुषों और महिलाओं ने किस तरह अलग-अलग तरीक़े से मतदान किया, अगर 2014 के चुनावों में कोई भी पुरुष नहीं, सिर्फ़ महिलाओं ने ही मतदान किया होता, तो एनडीए बहुमत के निशान से नीचे होता और उसे 336 के बजाय 265 सीटों पर ही जीत मिली होती। इसके विपरीत, अगर महिलाओं ने नहीं, बल्कि महज़ पुरुषों ने ही मतदान किया होता, तो एनडीए 376 सीटें जीतकर एक बड़ा जनादेश हासिल कर लिया होता।

चुनावी प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी में बढ़ोत्तरी के पीछे का जो सबसे बड़ा कारण है,वह है-1971 और 2014 के बीच ग्रामीण महिला मतदाताओं में होने वाली 13 प्रतिशत अंकों की बढ़ोत्तरी। हालांकि,इसी अवधि के दौरान, शहरी क्षेत्रों में महिलाओं के मतदान में 1 प्रतिशत की गिरावट आयी। महिला,ख़ास तौर पर ग्रामीण महिला मतदाताओं की लगातार होती वृद्धि को देखते हुए उनके वोट हासिल करने के लिहाज़ से राजनीतिक दल और सरकारें महिलाओं की ज़रूरतों और मांगों को पूरा करने के लिए मजबूर हुई हैं। ग्रामीण महिलाओं के मतदान में बढ़ोत्तरी हाल के दिनों में तेज़ हुई है और इसके दूरगामी परिणाम हुए हैं। पार्टियां और सत्तारूढ़ पार्टियां अपना ध्यान तेज़ी से महिला मतदाताओं पर केंद्रित कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, उज्ज्वला योजना के तहत गैस सिलेंडर का मुफ़्त वितरण एनडीए द्वारा ग्रामीण महिला मतदाताओं के बीच समर्थन बढ़ाने के लिहाज़ से एक सोचा-समझा क़दम था। चुनाव के बाद के तक़रीबन तमाम सर्वेक्षणों और अध्ययनों से इस बात का संकेत मिलता है कि महिलाओं के बीच उज्ज्वला, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, जन धन, और स्वच्छ भारत शौचालय जैसी योजनाओं के कार्यान्वयन से भाजपा और सहयोगी दल 2019 के अपने प्रदर्शन में सुधार करने में सक्षम हो पाये। इस बात का यहां ज़िक़्र किया जाना ज़रूरी है कि हालांकि इन योजनाओं को जिस तरह धरातल पर लागू किया गया, उसमें ख़ामियां तो थीं, लेकिन ये योजनाएं सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए वोट बटोरने का ज़रिया ज़रूर बन गयीं।

हाल के रुझानों को देखते हुए, आगामी विधानसभा चुनावों में भारतीय चुनावों के इतिहास में पहले से कहीं ज़्यादा महिलाओं पर केन्द्रित राजनीतिक भाषण, अभियान, योजनाएं और घोषणापत्र दिखायी देंगे। महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए सत्तारूढ़ पार्टियां (साथ ही साथ विपक्षी पार्टियां) पहले से ही बनी बनाई रणनीति के साथ आ रही हैं। बंगाल, तमिलनाडु, केरल और असम महिलाओं की भागीदारी के लिहाज़ से शीर्ष राज्यों में शामिल हैं। किसी भी समूह के मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले किसी भी मुद्दे को लेकर एक चेतावनी भी जारी की जानी चाहिए, इसका सिर्फ़ एक और मुद्दा होना काफ़ी नहीं है, उस शर्त को पूरे होते देखा जाना चाहिए कि वह पक्ष, पार्टी या नेता कौन है, जो अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुक़ाबले इस मुद्दे को हल कर सकता है। कोई भी मुद्दा कितना भी अहम क्यों न हो, अगर उसके हल को लेकर सभी राजनीतिक दलों को उतने ही ख़राब / बेकार ही माना जाये, तो यह मुद्दा मतदान के व्यवहार को प्रभावित नहीं कर पाता है। चो रामस्वामी ने कभी चुटकी लेते हुए कहा था, 'आख़िर कोई मतदाता किसी पॉकेटमार और एक चोर के बीच किसका चुनाव करे?'

पार्टियां 2021 में महिला मतदाताओं को कैसे लुभायेंगी

मतदान के व्यवहार का यह बुनियादी सिद्धांत महिला मतदाताओं और उनके मुद्दों पर भी लागू होता है। यह बताता है कि जेडी (यू) ’जंगल राज’ का बार-बार ज़िक़्र कर के बड़े पैमाने पर सत्ता विरोधी भावना की लड़ाई को मात दे पाने में कैसे कामयाब हुई। राजद को वोट दिये जाने की स्थिति में ‘जंगल राज’ की वापसी का डर नीतीश के ‘सुशासन बाबू’ होने की धारणा के साथ जुड़ गया, लगता है कि इस से बिहार में निर्णायक रूप से महिला मतदाताओं का व्यवहार प्रभावित हुआ। बंगाल, जहां 3.15 करोड़ से ज़्यादा महिला मतदाता हैं, वहां टीएमसी और भाजपा इन महिला वोटों को हासिल करने की लड़ाई में ज़बरदस्त उलझी हुई हैं। ममता सरकार पर राजनीतिक हिंसा को बढ़ावा देने और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में नाकाम रहने का आरोप लगाकर बीजेपी बिहार चुनाव से सबक लेते हुए अपनी चाल चलती हुई दिख रही है। हालांकि, भगवा पार्टी का लक्ष्य बंगाल में ‘जंगल राज’ की धारणा बनाने का है, वहीं टीएमसी ने राज्य के महिला मतदाताओं के बीच अपनी खोई हुई ज़मीन हासिल करने के लिए एक ग़ैर-राजनीतिक संगठन-“बोंगो जननी ”का गठन किया है। 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा द्वारा टीएमसी के महिला वोट-बैंक में सेंध लगाने के बाद बोंगो जननी का गठन किया गया था। बोंगो जनानी के ज़रिये टीएमसी ने भाजपा शासित हिंदी पट्टी राज्यों में महिलाओं के साथ होने वाली (हाथरस की तरह) ज़्यादतियों  को उजागर करने की कोशिश की है। टीएमसी कन्याश्री, रूपाश्री प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण योजना (बाल विवाह को रोकने के लिए) और स्वास्थ साथी योजनाओं जैसे राज्य सरकार की महिला-केंद्रित कार्यक्रमों पर रौशनी डालने की कोशिश की है।

पड़ोसी राज्य,असम में एक अखिल महिला क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी, 'मोहिलार दल' का गठन किया गया है। असम की महिलाओं को पर्याप्त राजनीतिक स्थान देने का वादा करने वाली इस पार्टी ने मुख्यधारा की पार्टियों पर महिलाओं को राजनीतिक स्थान से वंचित किये जाने का आरोप लगाया है। मोहिलार दल दो अन्य नवगठित दलों, असोम जाति परिषद और रायजोर दल के साथ संभावित गठबंधन करता हुआ दिख रहा है। अगर यह ग़ैर-कांग्रेस, ग़ैर-बीजेपी मोर्चा बन पाता है, तो यह मोर्चा विपक्ष की संभावनाओं को ख़त्म कर सकता है; विपक्ष के ‘महागठबंधन' में कांग्रेस,एआईयूडीएफ़ और वामपंथी शामिल हैं। सत्तारूढ़ भाजपा ने ’बिया नाम’ (विवाह गीत गायन) और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के ज़रिए एक हज़ार से ज़्यादा महिला वक्ताओं को चुनने के लिए ‘बूथ की बात’ अभियान शुरू किया है। एक बार चुन लिये जाने के बाद, पार्टी की योजना है कि असम की महिलाओं तक पहुंच बनाने के लिए इन वक्ताओं का इस्तेमाल किया जाये और चुनावों में राज्य और केंद्र सरकारों की प्रमुख योजनाओं को लोकप्रिय बनाया जाये।

नवंबर 2020 में चुनाव आयोग द्वारा जारी मतदाता सूची के मसौदे के मुताबिक़, तमिलनाडु में 6.10 करोड़ मतदाता हैं, जिनमें से 3.01 करोड़ पुरुष और 3.09 करोड़ महिला मतदाता हैं। तमिलनाडु में महिला मतदाताओं को लुभाने वाली योजनाओं और द्रविड़ पार्टियों का मुफ़्त वितरण के इस्तेमाल का एक लंबा इतिहास रहा है। लेकिन, 2021 के चुनाव इस मायने में अलग होंगे, क्योंकि द्रविड़ राजनीति के दो प्रमुख शख़्सियत-एम.करुणानिधि और जे.जयललिता के निधन के बाद होने वाला यह पहला विधानसभा चुनाव होगा। जयललिता, जिन्होंने कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए मशहूर क्रैडल बेबी योजना को लागू किया था, 2016 में उनकी सत्ता में फिर से वापसी से तमिल राजनीति की ‘एक पार्टी के बाद दूसरी पार्टी के सत्तारूढ़’ होने की प्रवृत्ति ख़त्म हो गयी; जयललिता पिछले दशक में तमिलनाडु की महिला मतदाताओं की निर्विवाद पसंद थीं। दूसरी ओर, डीएमके सुप्रीमो,एम.करुणानिधि राज्य में महिलाओं द्वारा संचालित एसएचजी (स्वयं सहायता समूह) के शिल्पकार थे। दिलचस्प बात यह है कि उनके संगठन, मकाल नीधि मइयम के सुपरस्टार से राजनेता बने कमल हसन ने चुनाव में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद वादा किया है कि अगर एमएनएम को वोट दिया जाता है, तो महिला गृहणियों को नक़द भुगतान किया जाएगा।

यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या एआईएडीएमके उस समय अपने महिला वोट बैंक पर पकड़ बना पाती है या नहीं, जिस समय राज्य सरकार, महिलाओं द्वारा संचालित एसएचजी के बंद होने, पोलाची यौन शोषण की घटना और इस मामले में पार्टी के एक सदस्य की कथित संलिप्तता, महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराध और राज्य में सज़ा की निम्न दर जैसे विभिन्न कारणों से आलचोनाओं के निशाने पर है। पूर्व केंद्रीय मंत्री और डीएमके की महिला शाखा की प्रमुख, कनिमोझी इस हद तक जाकर कह रही हैं कि तमिलनाडु की महिलाएं सत्तारूढ़ दल को वोट नहीं देंगी। सत्तारूढ़ एआईएडीएमके तमिलनाडु की महिलाओं का दिल जीतने के लिए उन्हें गर्भाशय हटाने की ख़ातिर 45,000 रुपये तक की चिकित्सा सुविधा दिये जाने की अपनी नयी योजना पर काम कर रही है।

नतीजा चाहे जो भी हो,आगामी केरल चुनाव में तो इतिहास बनकर रहेगा। अगर पिनाराई विजयन की अगुवाई में वाम लोकतांत्रिक मोर्चे (एलडीएफ़) को लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए बढ़त मिल जाती है, तो वह साढ़े चार दशकों में सत्ता में वापसी करने वाली पहली सरकार बन जायेगी। अगर एलडीएफ़ सत्ता पर काबिज रहने में नाकाम रहता है, तो 1977 के बाद ऐसा पहली बार होगा, जब सीपीआई (एम) / वाम मोर्चा देश भर में किसी भी राज्य पर सत्तारूढ़ नहीं होगा। ये चुनाव कांग्रेस की अगुवाई वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट (यूडीएफ़) के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण होंगे। इस समय महज़ तीन राज्यों में सत्ता पर काबिज यह पुरानी पार्टी दक्षिणी राज्य को अपनी कड़ी में जोड़ने के लिए बेताब होगी। लेकिन,राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा राज्य की स्वास्थ्य मंत्री, केके शैलजा की तारीफ़, तिरुवनंतपुरम के मेयर के रूप में 21 वर्षीय आर्य राजेंद्रन की नियुक्ति, महिला और अन्य कमज़ोर वर्गों को लक्ष्य करके चलाई जा रही कल्याणकारी योजनायें, एलडीएफ़ का महिलाओं के लिए 3 लाख नौकरियां मुहैया कराने वाली कुदुम्बश्री योजनाओं द्वारा संचालित संयुक्त देयता समूहों की संख्या को दोगुना करने का वादा, सोना घोटाले में फ़ायदा उठाने की अपनी कथित भागीदारी के बावजूद स्थानीय निकाय चुनावों में वामपंथियों की बढ़त ने एलडीएफ के पक्ष में संतुलन को थोड़ा झुका तो दिया है। उधर, बदलाव को लेकर कांग्रेस ने राज्य के महिला मतदाताओं तक पहुंच बनाने के लिए बड़े पैमाने पर एक बूथ-स्तरीय अभियान शुरू कर दिया है। एक ऐसी पार्टी, जिस पर चुनाव की तैयारियों में सुस्त पड़ जाने को लेकर बहुत ज़्यादा हमले होते रहते हैं, उसका महिलाओं तक पहुंच बनाने का यह अभियान एक स्वागत योग्य बदलाव की तरह लगता है। लेकिन,सवाल है कि क्या यह वोटों में तब्दील हो पाएगा? क्या 2021 के चुनावों में महिला मतदाता एक अहम फ़ैक्टर होंगे? इन सवालों का जवाब तो सिर्फ़ समय आने पर ही पता चल पाएगा।

लेकिन, इस समय एक बात तो निश्चितता के साथ ज़रूर कही जा सकती है कि मतदान के क्षितिज पर एक नया वोट-बैंक उभरकर आ गया है और एक उम्मीद यह भी है कि जैसे-जैसे महिलाएं पुरुषों के सामने आत्मसमर्पण वाले युगों पुराने सिद्धांत को बिना किसी शोर के दफ़्न करती जाएंगी, ज़्यादा से ज़्यादा महिला मतदाताओं की इस भागीदारी से विधायी निकायों में भी उनका ज़्यादा से ज़्यादा प्रतिनिधित्व बढ़ता जाएगा।

(लेखक बॉम्बे स्थित एक स्वतंत्रत पत्रकार और मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज के पूर्व छात्र हैं। इनकी रुचि राजनीति, चुनाव विश्लेषण विज्ञान और पत्रकारिता से लेकर भारतीय सिनेमा तक के विभिन्न क्षेत्रों में है। इनका ट्वीटर एकाउंट @Omkarismunlimit है।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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