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असम और मिजोरम के सीमा संघर्ष की जड़ें

असम और मिजोरम का सीमाई इलाका आधिकारिक तौर पर नो मेन्स लैंड एग्रीमेंट होने के बावजूद भी आए दिन संघर्ष का क्षेत्र बना रहता है। गांव के गांव उजड़ते रहते हैं और लोग भय के माहौल में जीने के लिए मजबूर हैं।
असम और मिजोरम के सीमा संघर्ष की जड़ें

पूर्वोत्तर भारत में असम से लगती राज्यों की सीमाएं भारत के सबसे बड़े विवादों में से एक है। इन्हीं सीमा में से एक असम मिजोरम की सीमा पर फिर से नफरत का धुआं बह रहा है। असम, मिजोरम में हिंसक झड़प में अब तक 6 जवानों की मौत हो चुकी है और 50 लोगों की घायल होने की खबर आ रही है।

हम उत्तर भारतीयों को भले यह अचानक हुई घटना लग रही हो, जहां पर अपने ही देश के दो राज्यों की पुलिस एक दूसरे से भीड़ गई हो, लेकिन हकीकत यह है कि यह 100 साल पुराना संघर्ष है। और तब से चलता आ रहा है।

अबकी बार नया यह है कि जिन पुलिसवालों को इन विवादों को रोकने की जिम्मेदारी थी, वही एक दूसरे से भिड़ गए। भारत जैसा देश जो खुद को अविभाजित राज्यों का अविभाजित संघ कहता है, वहां राज्यों की पुलिस बल एक दूसरे से टकराई। हिंसा हुई। जवान शहीद हुए। नागरिक अपने ही मुल्क के जवानों के शहीदी पर हार जीत की रेखा के बीच बंट गए। इससे भी बड़ी बात यह हुई कि राज्यों के मुख्यमंत्री हिंसा के वीडियो को साझा करते हुए ट्विटर पर एक दूसरे से बहस करने लगे।

लेफ्टिनेंट जनरल शौक़ीन चौहान फाइनेंशियल एक्सप्रेस में लिखते हैं कि असम मणिपुर और त्रिपुरा इन तीनों राज्य से ही उत्तर पूर्व के सभी राज्य और इलाके बने हैं।  मेघालय, नागालैंड और मिजोरम ग्रेटर असम से ही बने हैं। एक बड़े राज्य में कई तरह की जनजातियां रह रही थीं। सबकी संस्कृति अलग-अलग थी। इसलिए संघर्ष भी जारी था। संघर्ष अलगाववाद का था। लेकिन अतीत की भारतीय राजनीति ने ढेर सारे खून खराबे होने के बावजूद भी ऐसा होने नहीं दिया।

हल यह निकला कि सभी भारतीय राज्य के अंदर रहेंगे और उन्हें अधिक से अधिक स्वायत्तता दी जाएगी। यह हल अच्छे से काम कर रहा है। लेकिन फिर भी राज्यों की सीमाओं पर संघर्ष हमेशा जारी रहता है और यही जाकर हिंसक झड़प में तब्दील होता रहता है। इसी पृष्ठभूमि में असम और मिजोरम के संघर्ष का इतिहास भी मौजूद है।

अगर भारत का मानचित्र उठाकर देखा जाए तो असम का दक्षिणी सिरा मिजोरम के उत्तरी सिरे से जुड़ता हुआ दिखेगा।

यहीं पर मिजोरम के तीन जिले- आइजोल, कोलासिब और ममित- असम के कछार, करीमगंज और हैलाकांडी जिलों के साथ लगभग 164.6 किलोमीटर की सीमा साझा करते हैं। यही विवाद की जगह है। जिसकी कहानी आज से तकरीबन 100 साल पहले शुरू होती है, जब ब्रिटिश राज की हुकूमत थी और मिजोरम को असम में लुशाई हिल्स के नाम से जाना जाता था।

साल 1830 तक मौजूदा असम का कछार का इलाका एक स्वतंत्र राज्य था। आगे चलकर इस राज्य के राजा की मौत हो गई। अंग्रेजों की व्यपगत नीति थी कि अगर राजा का कोई पुत्र नहीं होगा तो राज्य ब्रिटिश राज के अधीन हो जाएगा। कछार के राजा का कोई पुत्र नहीं था। इस तरह से यह राज्य ब्रिटिश राज्य के अधीन हो गया। ब्रिटिश हुकूमत की योजना थी कि कछार के मैदानी इलाके और लुशाई हिल्स को जोड़ने वाले तलहटी के इलाकों के बीच वह चाय के बागान लगाएं और यहां से मिला पैसा अपने मुल्क ले जाएं। मिजो जनजातियां अंग्रेजों के इस व्यवहार से बहुत अधिक गुस्से में आ गईं। अंग्रेजों से छापेमार लड़ाई लड़ने लगी।

बार-बार के स्थानीय लोगों की छापेमारी की वजह से अंत में परेशान होकर ब्रिटिश हुकूमत ने साल 1875 में इनर लाइन रेगुलेशन लागू कर दिया। इस रेगुलेशन का मतलब था कि मैदानी और पहाड़ी इलाके को अलग किया जा सके। मिजो जनजाति के लिए यह एक तरह से उनकी जीत थी। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। लेकिन साल 1933 में ब्रिटिश हुकूमत ने कछार और मिजो हिल्स के बीच नक्शे पर ही फिर से औपचारिक सीमा खींच दी। मिजो समुदाय का कहना है कि यह सीमा बिना मिजो लोगों के सलाह मशवीरें से बनाई गई है। वह इसे नहीं मानते है। यही विवाद की असली जड़ है।

आधिकारिक तौर पर मिजोरम का यह मानना है कि असम और मिजोरम के बीच की सीमा 1875 में तय किए गए रेगुलेशन के मुताबिक होनी चाहिए। जबकि असम का कहना है कि असम और मिजोरम की सीमा साल 1933 में तय किए गए रेगुलेशन के मुताबिक होगी। इसका मतलब यह है कि अगर मिजोरम की बात मानी जाए तो असम को दक्षिणी सिरे पर मौजूद अपने कुछ इलाके गंवाने होंगे और अगर असम की बात मानी जाए तो मिजोरम को उन पर अपना अधिकार छोड़ना होगा जिन्हें असम अपना मानते आया है।

यह तो हुई असम और मिजोरम के बीच दावे की बात। जानकारों का कहना है कि इन दावों से अलग जो जमीन पर होता है वह यह है कि जहां से असम का मैदानी इलाका खत्म होकर पहाड़ी इलाके में तब्दील होता है, वहीं से मिजोरम की सीमा शुरू होती है। यानी मैदानी इलाका असम में और पहाड़ी इलाका मिजोरम में। पहाड़ी पर खेती लायक जमीन कम होती है। बड़ी मुश्किल से मिजो लोग उस पर झूम खेती करते हैं। ऐसे में स्वाभाविक तौर से भी मिजो लोग उस पर बड़ी मजबूती से अपना दावा पेश करेंगे जिसकी वजह से उनका अधिकार मैदानी इलाके पर भी मुमकिन हो पाए। इसीलिए असम और मिजोरम का सीमाई इलाका आधिकारिक तौर पर नो मेन्स लैंड का एग्रीमेंट होने के बावजूद भी आए दिन संघर्ष के क्षेत्र बना रहता है। गांव के गांव उजड़ते रहते है। लोग भय के माहौल में जीने के लिए मजबूर रहते हैं।

मीडिया में छपी रिपोर्टों के मुताबिक असम और मिजोरम का हालिया तनाव तब शुरू हुआ जब पिछले महीने असम पुलिस ने असम और मिजोरम के बॉर्डर इलाके से मिजो लोगों की मौजूदगी को असम के इलाके में अतिक्रमण कहकर हटाना शुरू किया। इसके बाद दोनों तरफ से हिंसक कार्यवाही हुई।

25 जुलाई को गृह मंत्री की मौजूदगी में पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्रियों की शिलांग में कांफ्रेंस हुई है। यहां पर मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरामथांगा ने कहा कि जब असम से निकलकर मिजोरम और नागालैंड जैसे राज्य बने तब अंग्रेजों के समय से चले आ रहे भूमि विवादों को सुलझाया नहीं गया। असम जिसे अपनी भूमि बता रहा है, उस पर तकरीबन 100 सालों से मिजो लोग रहते आ रहे हैं। उस पर खेती करते आ रहे हैं। असम की तरफ से इस जमीन पर तब से दावा किया जाना शुरू किया गया है जब से पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश से बड़ी संख्या में प्रवासी आकर असम के दक्षिणी इलाके यानी बराक घाटी में आकर रहने लगे। ( नक्शे में देखेंगे तो पता चलेगा कि बराक घाटी और बांग्लादेश की सीमा आपस में जुड़ी हुई है)

अब हालिया हिंसक झड़प के बाद असम की तरफ से मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शरमा ने कहा कि मैं ज़मीन की एक इंच भी किसी को नहीं दे सकता। अगर कल संसद एक क़ानून बना दे कि बराक वैली को मिज़ोरम को दिया जाए, तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन जब तक संसद यह फ़ैसला नहीं लेती, मैं किसी भी व्यक्ति को असम की ज़मीन नहीं लेने दूंगा। हम अपनी सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। हमारी पुलिस सीमा पर तैनात है।"

यानी हाल फिलहाल इस विवाद का अंत नहीं दिख रहा। दिख रहा है तो केवल आरोप और प्रत्यारोप। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि असम और मिजोरम की सीमा पर हुई हिंसक झड़प भारतीय जनता पार्टी की मूर्खता की तरफ इशारा करता है। पूर्वोत्तर का इलाका मजबूत नृजातीय भावनाओं से संचालित होता है। जिस तरह से शेष भारत को हांका जाता है, ठीक उसी तरह से पूर्वोत्तर भारत को नहीं हांका जा सकता है। पूर्वोत्तर भारत के लिए नीति बनाते समय अतीत और विविधता के साथ-साथ वहां मौजूद आदिवासियों की मजबूत नृजातीय भावनाओं का ख्याल करना बहुत जरूरी है।

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