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माघ मेले में आए नाविकों की व्यथा: न लाइफ जैकेट मिली, न अन्य सुविधाएं

“यह सरकार राम-राम रटते नहीं थकती, अरबों का राम मन्दिर इस सरकार के शासनकाल में बन रहा है। वे मल्लाह ही थे जिन्होंने संकट के समय राम को नदी पार कराई थी, लेकिन आज इनके संकट का सरकार को कोई अहसास नहीं।”
माघ मेले में आए नाविकों की व्यथा: न लाइफ जैकेट मिली, न अन्य सुविधाएं

प्रयागराज: धीरे-धीरे दिन ढलान की ओर है, समय खत्म होने से पहले हर नाविक की यह कोशिश है कि उनके नाव में अंतिम सवारियां बैठ जाएं। एक तरफ उनकी कोशिश जारी है तो दूसरी तरफ लोग मोल भाव के मूड में हैं यानी कुछ कटौती हो जाए तब बोटिंग का लुत्फ उठाया जाए तो दोनों और से मोल भाव की जद्दोजहद चल रही है। अंत में जीत सवारी की ही हुई और मज़बूरी में आखिर नाविक को भी प्रति सवारी तय रेट से कम पर मानना पड़ा। नाविकों को तो बस इसी बात की तसल्ली है कि करोना के इस दौर में कम से कम उन्हें मेले के दौरान उन्हें सवारियां मिल जा रही हैं, भले ही उनकी संख्या कम हो। अब जबकि मेला समाप्त होने को है और शिवरात्रि तक पूरी तरह समापन हो जाएगा तो इस पूरे माघ मेले के दौरान संगम पर नाव चालाने वाले नाविकों के क्या हालात हैं, सरकार द्वारा उन्हें कितनी सुविधाएं मुहैया कराई गईं जबकि अभी भी कोविड-19 का दौर चल ही रहा है, दूर दराज इलाकों से आए नाविकों के लिए ठहरने की व्यवस्था होती है या नहीं आदि,  इन्हीं तमाम सवालों को लेकर हम प्रयागराज, संगम के धुस्सा घाट तक गए जहां हमारी बातचीत नाविकों, नाविक संघ के महामंत्री और इनके बीच लंबे तक तक काम कर चुकीं सामाजिक कार्यकर्ता से हुई।

नाविकों की व्यथा

"माघ मेला खत्म होने को आया लेकिन इस बार प्रशासन ने नाविकों को लाईफ जैकेट तक मुहैया नहीं कराई हम नाविकों को अपने पैसों से जैकेट खरीदनी पड़ी जो कि किसी भी नाविक के लिए खरीदना आसान नहीं क्योंकि एक जैकेट की कीमत आठ सौ से हजार रुपए पड़ती है, लेकिन बिना लाईफ जैकेट के बोट पर सवारी  बिठाना रिस्की है। मजबूरन हजारों रुपए तो जैकेट खरीदने में ही लग गए तो हम बचत करें तो कैसे" ये बात हमसे मेले में नाव चलाने का परमिट पाए नाविक घनश्याम निषाद ने कही। उन्होंने बताया कि जैकेट भी यहां नहीं मिलती है, दिल्ली से मंगवानी पड़ती है। वे कहते हैं दो साल पहले हुए कुंभ मेले में फिर भी प्रशासन ने हर नाविक को पांच लाईफ जैकेट दी थी, हालांकि तब भी हमें खरीदनी पड़ी थी क्योंकि एक नाव पर दस से बारह सवारी बैठाने की परमिशन रहती है। लेकिन इस मेले में तो कुछ भी नहीं मिला। घनश्याम कहते हैं जब लाईफ जैकेट पुरानी हो जाती है तो उसे रिजेक्ट कर दिया जाता है। फि बचत का पैसा तो जैकेट खरीदने में ही निकल जाता है।

घनश्याम की ही तरह संगम पर नाव चलाने वाले नाविक ऋषि निषाद कहते हैं जब खास आयोजन होते हैं तो हमें उम्मीद होती है कि कम से कम ऐसे मौकों पर सरकार हम गरीब नाविकों को जरूरत का सामान तो उपलब्ध कराएगी ही, उल्टे हमें न लाईफ जैकेट उपलब्ध कराई गई बल्कि हमें यह तक हिदायत दे दी गई कि सवारी की सुरक्षा के जो भी इंतजाम है नाविक स्वयं उसकी व्यवस्था कर ले। जब हमने  उनसे यह पूछा कि मेले के समय दूर दराज इलाकों से आने वाले नाविकों के लिए रहने की क्या व्यवस्था होती है तो इस सवाल पर नाविक ऋषि की मायूसी स्पष्ट देखी जा सकती थी। उन्होनें बताया जब हमारे कष्टों के बारे में गंभीरता से सोचा जाएगा तब तो हमारे लिए कुछ होना सम्भव होगा। उनके मुताबिक नाविकों को प्रशासन की ओर से कोई तंबू या झोलदारी तक नहीं दी गई। जो आस पास के इलाकों से नाविक आते हैं वे तो शाम को अपने घर चले जाते हैं लेकिन दूर क्षेत्र से आने वाले नाविकों को रात अपनी ही नाव में बितानी पड़ती है। ऋषि कहते हैं पिछले दिनों कड़कड़ाती ठंड में भी नाविकों को पानी में ही रात गुजारनी पड़ी। जब कोई व्यवस्था नहीं तो मजबूर नाविक आखिर क्या करे। ऐसे में बीमार होने का भी खतरा रहता है उस पर भी स्वास्थ्य सेवाओं की कोई उचित व्यवस्था नहीं।

सवारी के इंतजार में बैठे नाविक जीत लाल कहते हैं दो साल पहले मात्र पांच लाईफ जैकेट देकर सरकार ने अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ ली, जबकि हमारे हालात समझते हुए हर साल नाविकों को लाईफ जैकेट वितरित की जानी चाहिए। वे कहते हैं ऐसे खास आयोजनों में गोताखोरों तक की व्यवस्था नहीं है। नाविकों को ही सब संभालना पड़ता है और सवारियों को पूरी सुरक्षा देने के बावजूद जब किसी के साथ कोई अप्रिय घटना घट जाए या किसी सवारी का समान चोरी हो जाए तब हम नाविक ही शक के घेरे में आते हैं जो हमारे लिए बेहद दुखद और तकलीफ़ की बात है। जीत लाल बताते हैं प्रशासन द्वारा प्रति सवारी साठ रुपए तय है, लेकिन बहुत कम ही ऐसा होता है जब कोई पूरे दाम में सहमत हो जाए। सवारी मोल भाव कराती ही है और अंत में हम नाविकों सवारी के ही अनुसार मानना पड़ता है अभी करोना के चलते केवल आठ सवारी की ही परमिशन सरकार ने दी है तो आमदनी तो वैसे ही घट गई उस पर सवारियों का दाम कम कराना हमको तकलीफ़ देती है लेकिन मजबूरी है।

क्या कहता है नाविक संघ?

प्रयागराज जिला नाविक संघ के महामंत्री मगध निषाद कहते हैं सरकार की कथनी और करनी में यदि फर्क देखना हो तो इतना ही देख लीजिए कि मेले के समय दूर क्षेत्र से आए नाविकों के रहने के लिए केवल 80 मीटर भूमि संघ को उपलब्ध कराई गई है जिसमें मात्र तीन छोटे तंबू ही लगाए जा सकते हैं। वे बताते हैं कोविड 19 के नियमों का पालन करते हुए प्रशासन द्वारा सब नाविकों को सेनिटाइजर और मास्क के इस्तेमाल के लिए कह दिया गया लेकिन एक सेनिटाइजर की बोतल तक नाविकों को प्रशासन द्वारा उपलब्ध नहीं कराई गई। वे कहते हैं यहां हालात यह है कि नाविकों को अपनी जमा पूंजी लगाकर लाईफ जैकेट खरीदनी पड़ रही है, सवारियों की संख्या घट गई उस पर भी कोई पूरा दाम देने को तैयार नहीं होता। इस समय कोई नाविक बीमार पड़ जाए तो अपने पैसों से ही उसे इलाज करवाना पड़ता है। तब ऐसे में ये गरीब नाविक हर दो तीन दिन में सेनिटाइजर की बोतल कैसे खरीद लें क्यूंकि सुबह से लेकर शाम तक जितनी बार सवारी बैठेगी उतनी बार उन्हें लाईफ जैकेट और नाव को तो सेनिटाइज करना ही पड़ेगा। तो एक बोतल दो दिन से अधिक नहीं चल सकती तब तो नाविकों का पैसा केवल सेनिटाइजर खरीदने में ही चला जाएगा। मगध निषाद जी कहते हैं  शुरू में नाविक भाइयों ने सेनिटाइजर खरीदा भी, लेकिन बार-बार खरीदना उनकी आर्थिक क्षमता से बाहर है। ऐसे में प्रशासन की यह जिम्मेदारी थी कि प्रत्येक नाविक को मेले के समय तक सेनिटाइजर उपलब्ध कराए।

मगध निषाद बताते हैं कि साठ रुपए प्रति सवारी दाम भी दो साल पहले ही प्रशासन ने मंजूर किया था उससे पहले चालीस रुपए ही था। उनके मुताबिक चौदह साल बाद यह रेट बढ़ाया गया वो भी तब जब नाविक संघ के बैनर तले नाविकों ने इसकी लड़ाई लड़ी, नाविक हड़ताल पर गए, डी एम का घेराव किया गया। मेला जिला प्रशासन अधिकारी के सामने अपना प्रस्ताव रखा तब जाकर पिछले कुंभ में रेट साठ रुपए किया गया।

नाविकों के बीच काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता

प्रयागराज की रहने वाली अनु सिंह का नाविकों के बीच काम करने का एक लंबा अनुभव रहा है। वे कहती हैं सरकार का यह रवैया नाविकों के साथ बेहद भेदभावपूर्ण है। एक तरफ मेले का इतना बड़ा बजट राज्य सरकार बनाती है और दूसरी तरफ इन नाविक भाइयों के हिस्से कुछ भी नहीं। जबकि सवारियों की सुरक्षा से लेकर उनको गाईड करने तक का काम नाविक करते हैं। यहां तक कि अन्य दिनों में जब कोई पानी में कूदकर आत्महत्या करने की ओर कदम बढ़ाता है तो उसे बचाने और मृत शरीर निकालने तक का काम भी यही करते हैं। जबकि जल पुलिस के पास अपने गोताखोर होते हैं, बावजूद इसके वे उन्हें पानी में न उतारकर, नाविकों को अपनी जान मजबूरी में जोखिम में डालनी पड़ जाती है, फिर भी सरकार इनके प्रति उदासीन बनी हुई है। 

अनु सिंह कहती हैं हद तो यह है कि अगर कोई घटना घट जाती है तो आस पास छोटी दुकान वाले, फेरी वाले और यही नाविक सबसे पहले पुलिस के निशाने पर आते हैं। उनके मुताबिक कई बार सवारियों की गलतियों या नासमझी का खामियाजा भी नाविकों को भुगतना पड़ता है। जैसे अतिउत्साह में कभी कोई सवारी पानी छूने लगे या फोटो खींचवाने के लिए नाव में बैठकर ही तरह तरह का पोज बनाने लगे तो कोई अप्रिय घटना घट ही सकती है, लेकिन ऐसा होने पर सवारी को दोषी न मानते हुए नाविकों को ही दोषी माना जाता है। वे बहुत ही मजेदार बात कहती हैं कि वैसे तो यह सरकार राम-राम रटते नहीं थकती, अरबों का राम मन्दिर इस सरकार के शासनकाल में बन रहा है, तो यही मल्लाह ही थे जिन्होंने संकट के समय राम को नदी पार कराई थी, लेकिन आज इनके संकट का सरकार को कोई अहसास नहीं।

यह स्टोरी पूरी करते करते अंधेरा हो चला था, बोटिंग का लुत्फ़ उठाकर लोग जा चुके थे और नाविक भाई भी अपने नावों को किनारे लगा चुके थे। जिनका घर नजदीक था वे जाने की तैयारी कर रहे थे और जो वहीं रहते थे वे अपनी नावों को ही रैन बसेरा बनाने की तैयारी में जुटे हुए थे। अगले दिन की जद्दोजहद अभी बाकी थी। मेले का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद इन नाविकों को मलाल है कि इस माघ मेले में सरकार इनके प्रति उदासीन बनी हुई है।

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार  है। 

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