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पूंजी और इसके मुनाफ़े में डूबे भारतीय समाज के लिए बहुत मुश्किल है कोरोना की लड़ाई!

पिछले तीन दशक से जिस तरह से हमने मुक्त अर्थव्यवस्था को गले लगाया है उसकी वजह से हमारी बुनायादी संरचनाएँ ऐसी बनी हैं जिनसे यह तय हुआ कि हम कोरोना का सामना करने में पूरी तरह से कमज़ोर हैं।
पूंजी और इसके मुनाफ़े में डूबे भारतीय समाज के लिए बहुत मुश्किल है कोरोना की लड़ाई!
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: सोशल मीडिया

इधर कोरोना से होने वाली मौतों के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं और उधर लोगों का एक धड़ा मन ही मन यह सोच रहा है कि अगर लॉकडाउन लग जाए तो इसमें कुछ कमी आए। इस तरह से सोचने वाले धड़े के अधिकतर लोग अमीर वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। वह देख रहे हैं कि भारत की बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं तहस-नहस के कगार पर पहुंच चुकी हैं। उनके लिए फ़ायदेमंद यही है कि लॉकडाउन लगे और उन्हें कुछ राहत मिले। यह केवल इनकी ही बात नहीं है बल्कि कुछ राज्य सरकारें भी कहीं ना कहीं लॉकडाउन की प्लानिंग अपने दिमाग़ में लेकर चलती हैं। तो आइए भारत में कोरोना से बचने के उपाय के तौर पर लॉकडाउन को थोड़ा वैचारिक तौर पर समझते हैं।

प्रकृति और इंसानों के बीच का रिश्ता बहुत गहरा है। दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्रकृति हमें किस तरह से प्रभावित कर रही है, यह तो हम महसूस कर लेते हैं लेकिन हम किस तरह से प्रकृति को प्रभावित करते हैं, यह महसूस करना कठिन होता है।वायरोलॉजी की दुनिया में काम करने वाले वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारे और प्रकृति के बीच का रिश्ता एक दूसरे के सहयोग और टकराव दोनों का होता है। लेकिन जब टकराव अधिक बढ़ जाता है तब जाकर ऐसे वायरस का जन्म होता है, जिनका हमारे शरीर के साथ सहयोग का नाता नहीं बन पाता। हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को भेदकर हम पर हावी हो जाते हैं। कोरोना भी एक ऐसा ही वायरस है।

इसका नाता किसी एक व्यक्ति,किसी एक समूह, किसी एक देश से नहीं बल्कि पूरी मानव जाति से है। इसलिए कोरोना से बचने के उपाय उतने ही मज़बूत होंगे जितने मज़बूत मानवों के अपने समाज को संभालने के लिए बने आपसी सामाजिक संबंध होंगे। वह सामाजिक संबंध और सामाजिक रिश्ते जिनकी इंसानों को रचने और गढ़ने में सबसे बड़ी भूमिका होती है। अगर इंसानों के आपसी सामाजिक संबंध और अनुबंध मज़बूत हैं, तब वह इस वायरस से कम से कम नुकसान झेलेंगे लेकिन अगर सामाजिक रिश्ता कमज़ोर है, तब वायरस इंसानों पर बहुत बड़ा घाव छोड़ते चलेंगे।

हमारे आपसी समाजिक संबंध हमारे स्वभाव को निर्धारित करते हैं। इसमें कैद होना नहीं लिखा है। घर के अंदर कहीं चुपचाप बैठना नहीं लिखा है। यहां विज्ञान से ज्यादा सामाजिक विश्वास को तवज्जो दी जाती है। सामाजिक विश्वास है कि धार्मिक आयोजन होंगे। हिंदुओं के भी होंगे, मुस्लिमों के बीच होंगे। लाखों की भीड़ आएगी। एक सरकार बनानी है। इसलिए केंद्र, राज्य, पंचायत के चुनाव होंगे। 

इसके भीतर भले ही बहुत ज्यादा अनैतिक काम होते हैं लेकिन ऊपरी तौर पर यह एक तरह से स्थापित मान्यता बन चुकी है की वोट देना हमारा कर्तव्य है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अगर इन्हें सरकार चाहती तो रोक सकती थी लेकिन सरकार नहीं चाहती तो जनता इन्हें नहीं रोक सकती थी। कुंभ का आयोजन होता ही होता। शादी ब्याह में लोग जाएंगे ही जाएंगे। भले कम आयोजन होंगे वहां कम लोग आएंगे लेकिन इन्हें पूरी तरह से रोकना बहुत मुश्किल है। इस तरह से कोरोना की दूसरी लहर पूरे देश भर में फैलना निश्चित था। इसे रोकना बहुत मुश्किल था। अब भी हो रहा है। यानी हमारा सामाजिक ताना-बाना ऐसा है जिसमें वायरस को फैलने से रोकना हमारे बस की बात नहीं थी।

आर्थिक तौर पर हमारा आपसी सामाजिक रिश्ता समानता वाला नहीं है। आर्थिक तौर पर गैर बराबरी नहीं बल्कि बराबरी होगी, यह बात महज किताब और संविधान के प्रावधानों में कैद होकर रह गई है। इसे लागू करने की कोशिश ही नहीं हुई। इसलिए व्यक्ति का जीवन मूल्य उपभोग की प्रकृति को अपनाता है और अधिक से अधिक धन संचय करने की चाहत रखता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि भारत में 80 फ़ीसदी से अधिक लोग ऐसे हैं जिनकी अगर महीने की आमदनी ना आए तो उनके घर की दीवार गिर जाएगी। ऐसे में वह कैसे किसी भी तरह के लॉकडाउन का बोझ सहन कर सकते हैं। लॉकडाउन की वकालत करना भी इस बड़ी आबादी के मन के अंदर डर के बीज बोने की तरह बन चुका है। बची खुची सूखी रोटी वह जो भी खा रहे है, उसे भी गंवा देने की तरह है। 

एक ऐसे देश में जहां अधिकतर लोग सार्वजनिक क्षेत्र में काम करते हैं, वहां पर कोरोना से लड़ने के लिए लॉकडाउन लगाया जा सकता है। इस देश के कामगार बहुत दिनों तक काम पर ना आएंतब भी उन्हें मेहनताना मिलता रहेगा। उनकी सैलरी उनके खाते में जाती रहेगी। लेकिन अगर देश ऐसा है जहां पर महज़ एक फ़ीसदी लोग ही सरकारी कर्मचारी हैं और अधिकतर लोग प्राइवेट क्षेत्र और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं तो वहां पर लॉकडाउन लगाना तो लोगों को मौत के मुंह में धकेलने की तरह है। मुक्त बाजार व्यवस्था से चल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के अंतर्गत केवल मालिक के पास यह हैसियत है कि वह घर के अंदर रहकर निश्चिंत होकर रह सके। लेकिन मजदूरों की हैसियत नहीं होती। मालिक के पास पड़ा मुनाफा कभी मजदूरों में नहीं बंटता। लेकिन सरकारी कर्मचारी को आसानी से हर महीने की सैलरी मिलती रहती है। यहां मुनाफे के ऊपर मुनाफा और केवल मुनाफा कमाने जैसी कोई बात ही नहीं है। ऐसे में सोच कर देखिए कि कोरोना महामारी से लड़ने के लिए कौन सी व्यवस्था बढ़िया होगी? वह व्यवस्था जिसमें घर से बाहर निकल कर ही जिंदा रह जा सकता है या वह व्यवस्था जिसमें अगर घर के अंदर भी रहा जाए तो भूखे मरने की नौबत ना आए? अफसोस हिंदुस्तान एक ऐसा मुल्क है कि जहां पर दो वक्त की रोटी जुगाड़ आने के लिए बहुत बड़ी की आबादी को घर से बाहर निकलना पड़ता है।

बड़े-बड़े शहरों में बड़ी-बड़ी स्लम बस्तियां भी होती हैं। इन बस्तियों के टीम के एक छत के नीचे 4 से 5 लोग रहते हैं। कई कई बार यह संख्या इससे भी अधिक होती है। हवा कभी साफ नहीं मिलती है। पानी दिन में एक बार मुश्किल से मिल पाता है। इनके लिए मास्क, साबुन से दिन में कई बार हाथ धोना, सोशल डिस्टेंसिंग अपनाना जैसी सारी बातें बेईमानी है। लॉकडाउन का इनके लिए तो कोई मतलब ही नहीं बनता। 

इसके अलावा भारत में तकरीबन 13 करोड़ ऐसे लोग हैं जो दिन भर चाय की दुकान, छोटा सा खोमचा, रेहड़ी पटरी, कंस्ट्रक्शन मजदूर जैसे कई छोटे-मोटे काम करके अपनी जिंदगी चलाते हैं। इनकी जिंदगी अपने हुनर पर आधारित है। इन्हें किसी भी तरह की सुरक्षा नहीं मिली है। सड़क पर लोगों की आवाजाही बंद और इनकी जिंदगी की आमदनी बंद। इनकी जिंदगी की यह कहानी है। कोरोना की लड़ाई में अगर इन्हें घर के अंदर कैद करके रखा जाएगा तब तो इनके ऊपर मार पड़ेगा ही पड़ेगा लेकिन अगर दूसरे भी घर के अंदर रहेंगे तब भी इन्हें नुकसान झेलना ही पड़ेगा।

इन सबके साथ भारत की बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं। अगर कार्य बल में शामिल 85 फ़ीसदी से अधिक लोग ₹10000 से कम की आमदनी पर जीते हैं। तो इसका साफ मतलब है की प्राइवेट अस्पताल बड़े-बड़े शहरों को छोड़कर भारत के दूसरे इलाकों में नहीं पहुंचेंगे। अगर पहुंचेंगे भी तो इतनी अधिक वसूली करेंगे कि लोगों की जिंदगी भर की कमाई टूट जाए। और यह सब होते चला रहा है। डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मियों के देशभर में मौजूदगी के आंकड़े तो यही बताते हैं कि भारत का बुनियादी स्वास्थ्य ढांचा पहले से ही मरा हुआ है। लेकिन इस पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। परिणाम यह हुआ की महामारी में लोग बिस्तर और अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से मर रहे हैं। दवाई की कीमत 5 गुना से लेकर 10 गुना अधिक बढ़ गई है। कालाबाजारी अपने चरम पर है। 

कहने का मतलब यह है कि इस महामारी से मार तो पड़ती ही पड़ती लेकिन अगर फ्री मार्केट यानी मुक्त बाजार वाली व्यवस्था की जगह सरकारी व्यवस्था होती तो यह मार कम पड़ती। काम देने वाले लोगों में सरकार मौजूद होती तो जनकल्याणकारी स्वरूप होता। लोग इस महामारी में घर बैठते तो इस चिंता से मुक्त होकर बैठते कि उन्हें पेट भर खाना नहीं मिलेगा। जिन देशों ने खुले तौर पर मुक्त बाजार व्यवस्था को अपनाया है और जिनकी सरकारों ने अपनी जनता को अनाथ बच्चों की तरह छोड़ दिया है उन्हें अधिक मार झेलनी पड़ रही है। इस संदर्भ में भारत भी एक ऐसा ही मुल्क है।

ध्यान से पांच मिनट बैठकर अपने देश के बारे में सोचा जाए तो यह सारे हालात सबको दिख जाते हैं। सरकार को भी दिखे होंगे। लेकिन सरकार ईमानदार कहां होती है? अगर इमानदार होती तो मरते हुए लोगों का दर्द समझ पाती। दर्द समझती तो उनका भी दर्द समझती जिनका देश के कई इलाकों में लोग धाम की वजह से सुबह शाम का चूल्हा नहीं जल रहा है। जो मानसिक तनाव में जी रहे हैं। अगर यह सब भी भारी था तो कम से कम इतना करती कि पूरे भारत के लिए मुफ्त में वैक्सीन पहुंचा देती। लेकिन सरकार ने कुछ भी नहीं किया।

वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार औनिंद्यो चक्रवर्ती लिखते हैं कि पिछले तीन दशक से जिस तरह से हमने मुक्त अर्थव्यवस्था को गले लगाया है उसकी वजह से हमारी बुनायादी संरचनाएं ऐसी बनी हैं जिनसे यह तय हुआ कि हम कोरोना का सामना किस तरह से कर पाएंगे। इसलिए जो हो रहा है वह लगभग हमारी ही नीतियों का परिणाम है। इस महामारी से यही सीखना है कि हमें बदलना चाहिए। लेकिन पूंजी और इससे जुड़ा फ़ायदा हमारे समाज में इतने गहरे तक धंस चुका है कि बदलाव की कोई भी दिशा नहीं दिखती।

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