महाराष्ट्र पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की गूंज दूर तक और देर तक सुनाई देगी
महाराष्ट्र में शिव सेना के उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे गुट के बीच चल रहे कानूनी मामले में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने जो फैसला सुनाया है, वह फौरी तौर पर तो अयोध्या मामले पर दिए गए फैसले जैसा लग सकता। अयोध्या के बाबरी मस्जिद बनाम रामजन्मभूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद बनी थी वह राम जन्मभूमि है, इसके अलावा बाबरी मस्जिद को गिराया जाना भी एक ग़लती थी, लेकिन फिर भी राम मंदिर वहां बनना चाहिए। महाराष्ट्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि महाराष्ट्र अभी जो सरकार है उसके गठन में सांविधानिक प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ है लेकिन उसे बर्खास्त नहीं किया जा सकता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले को इस तरह देखना सतही निष्कर्ष निकालना होगा।
यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उनके गुट के 15 अन्य विधायकों को अयोग्य नहीं ठहराया है। सर्वोच्च अदालत ने एकनाथ शिंदे सरकार को बर्खास्त करने और उद्धव ठाकरे को फिर मुख्यमंत्री बहाल करने से भी इनकार किया है। इससे ऐसा लगता है कि इस फैसले से एकनाथ शिंदे की शिव सेना और भाजपा की साझा सरकार को जीवनदान मिल गया है। लेकिन इसके बावजूद यह फैसला दूरगामी महत्व का है, क्योंकि सर्वोच्च अदालत ने पूरे मामले को लेकर राज्यपाल और स्पीकर के फैसलों को गैर कानूनी करार देते हुए जो तल्ख टिप्पणियां की हैं, वे सिर्फ बेहद गंभीर हैं, जिनकी गूंज दूर तक और देर तक सुनाई देती रहेगी।
सर्वोच्च अदालत ने अपने आदेश में कहा है, ''तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का विधानसभा का सत्र बुलाने का आदेश कानून सम्मत नहीं था, जिसकी वजह से अंतत: उद्धव ठाकरे की अगुआई वाली महा विकास अघाड़ी की सरकार गिरी।’’ अदालत ने इसे गैरकानूनी नहीं कहा लेकिन कानून सम्मत नहीं होने का मतलब भी वही होता है। अदालत ने यह भी कहा कि राज्यपाल के पास कोई ऐसा दस्तावेज नहीं था, जिससे साबित होता हो कि उद्धव ठाकरे की सरकार ने विधानसभा में बहुमत का समर्थन खो दिया है या उनकी सरकार गिरने वाली है, उनको जो चिट्ठी दी गई थी उसमें भी नहीं कहा गया था कि उद्धव ठाकरे की सरकार बहुमत गंवा चुकी है। अदालत की राज्यपाल के कामकाज पर यह एक बेहद गंभीर टिप्पणी है। इससे जाहिर होता है कि राज्यपाल उद्धव ठाकरे की सरकार को गिराने में सक्रिय रूप से रूचि ले रहे थे और इसी खास मकसद से उन्होंने विधानसभा का सत्र बुलाया था।
राज्यपाल के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी परोक्ष रूप से केंद्र सरकार पर और प्रकारांतर से राष्ट्रपति पर भी टिप्पणी है, क्योंकि राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में काम करता है और उसके द्वारा लिए गए फैसलों पर मंजूरी की मुहर केंद्र सरकार की सलाह से राष्ट्रपति की ही लगती है। राज्यपाल तकनीकी रूप से भले ही राष्ट्रपति का प्रतिनिधि कहलाता हो लेकिन व्यावहारिक रूप से तो वह केंद्र सरकार से ही निर्देशित होता है और महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी की सरकार को गिराने में केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी नेताओं की रुचि व सक्रियता भी किसी से छिपी नहीं थी।
यह भी जगजाहिर तथ्य है कि राज्यपाल कोश्यारी शुरू दिन से महा विकास अघाड़ी की सरकार के कामकाज में कदम-कदम पर बाधा डाल रहे थे। उन्होंने राज्य विधान मंडल द्वारा पारित कई विधेयकों और राज्य सरकार के फैसलों को सरकार गिरने तक भी मंजूरी नहीं दी थी। यही नहीं, कोरोना महामारी के दौरान भी वे सरकार के खिलाफ सार्वजनिक बयानबाजी कर लोगों को उकसाने का प्रयास करते रहे थे। उनकी इन सारी कारगुजारियों पर केंद्र सरकार खामोश बनी हुई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में राज्यपाल के साथ ही पूरे मामले में स्पीकर की भूमिका पर भी गंभीर टिप्पणी की है और विधायक दल तथा राजनीतिक दल को एक मानने की सोच पर सवालिया निशान लगाया। संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि शिव सेना के चीफ व्हिप के तौर पर एकनाथ शिंदे गुट के भरत गोगावले की नियुक्ति को मान्यता देने का स्पीकर का फैसला अवैध था। अदालत ने कहा कि स्पीकर का यह मानना कि विधायक दल ही चीफ व्हिप नियुक्त कर सकता है, राजनीतिक दल के गर्भनाल (अम्बिलिकल कॉर्ड) को तोड़ देने जैसा है।
अदालत का यह कहना मामूली नहीं है कि स्पीकर को सिर्फ राजनीतिक दल की ओर से नियुक्त व्यक्ति को ही चीफ व्हिप के तौर पर मान्यता देनी चाहिए। यह टिप्पणी एक तरह से चुनाव आयोग के उस फैसले पर भी है जिसमें उसने उद्धव ठाकरे के दावे को खारिज और एकनाथ शिंदे के दावे को स्वीकार करते हुए उसे ही वास्तविक शिव सेना माना और उसे शिव सेना का आधिकारिक चुनाव चिह्न भी दे दिया। गौरतलब है कि चुनाव आयोग के इस फैसले को उद्धव ठाकरे गुट सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है, जिस पर अभी सुनवाई होना है। इसलिए उस मामले भी सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला महत्वपूर्ण नजीर बनेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के सबसे अंत में कहा कि उद्धव ठाकरे अगर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं देते और सदन के भीतर विश्वास मत का सामना करते तो यह फैसला कुछ और होता। इस पर उद्धव ठाकरे का कहना है कि उन्होंने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया था। उन्हें यह मंजूर नहीं था कि उनकी पार्टी के गद्दार उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाएं और वह उसका सामना करें।
बहरहाल राज्यपाल और स्पीकर की भूमिका पर सख्त टिप्पणियों के साथ उनके फैसले को गैर कानूनी करार देते हुए हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने एकनाथ शिंदे सरकार को बर्खास्त करने का आदेश नहीं दिया है, लेकिन उसके फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि एकनाथ शिंदे की सरकार सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार खो चुकी है। चूंकि देश की सभी संवैधानिक संस्थाएं अनैतिक तरीके इस सरकार को बनवाने में सहभागी रही हैं, लिहाजा उनसे यह उम्मीद करना बेमानी होगा कि वे इस सरकार से इस्तीफा देने को कहे या इसे बर्खास्त कर राज्य की जनता को फिर से अपनी वैधानिक सरकार चुनने का अवसर उपलब्ध कराए। सरकार में शामिल दोनों पार्टियों के नेताओं ने भी पूरी निर्लज्जता के साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अपनी जीत बताते हुए स्पष्ट कर दिया है कि उनसे किसी तरह की नैतिकता की उम्मीद न रखी जाए।
इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कानूनी पहलू के लिहाज से शिव सेना के एकनाथ शिंदे गुट और भाजपा की साझा सरकार पर मंडरा रहा खतरा फिलहाल टल गया है। एकनाथ शिंदे और उनके गुट के लोग इस बात के लिए खुशी मना सकते हैं कि शिंदे सहित 16 विधायकों की सदस्यता फिलहाल बच गई है और कोर्ट ने इस मामले में फैसला करने का काम स्पीकर पर छोड दिया है। स्पीकर भी जल्दी ही फैसला दे देंगे और यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उनका फैसला भी इन 16 विधायकों के पक्ष में ही होगा। यानी यथास्थिति बनी रहेगी और सरकार को कोई खतरा नहीं होगा।
बहरहाल इस फैसले का दूसरा पहलू राजनीतिक है, जो कि किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है और भविष्य की राजनीति खासकर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिहाजा से भाजपा के लिए चिंता पैदा करने वाला है। भाजपा को पिछले एक साल के दौरान यह अहसास अच्छी तरह हो गया है कि शिव सेना के विधायकों और सांसदों का बहुमत भले ही लालच या डर की वजह से एकनाथ शिंदे के साथ आ गया हो लेकिन शिव सेना का काडर अभी भी पूरी तरह उद्धव ठाकरे के साथ है। यह तथ्य पिछले एक साल के दौरान हुए विधानसभा के दो उपचुनावों में भी साबित हो चुका है।
एकनाथ शिंदे गुट के प्रति जनता में अभी भी बेहद नाराजगी है, जिसकी वजह से उसके विधायक और सांसद जनता के बीच जाने से कतरा रहे हैं। इसी वजह से शिंदे सरकार मुंबई में बृहन्नमुंबई महानगर निगम यानी बीएमसी के चुनाव कराने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। देश के सबसे समृद्ध और सबसे ज्यादा बजट वाले इस नगर निगम के चुनाव पिछले एक साल से अधिक समय से रुके हुए हैं। बीएमसी का चुनाव आखिरी बार 2017 में हुआ था और 2022 के शुरू में नए चुनाव होने वाले थे लेकिन पहले कोरोना महामारी की वजह से चुनाव टला। उसके बाद जून में उद्धव ठाकरे की सरकार गिर गई। तब से अब तक चुनाव नहीं कराए गए हैं। दूसरी ओर उद्धव ठाकरे राज्य सरकार को लगातार चुनाव कराने की चुनौती दे रहे हैं।
भाजपा को डर सिर्फ बीएमसी को लेकर ही नहीं है। उसकी असल चिंता 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर है। लोकसभा का पिछला चुनाव भाजपा ने शिव सेना के साथ मिल कर लडा था और राज्य की 48 में से 41 सीटें जीती थीं। भाजपा को अकेले 23 सीटें हासिल हुई थी, जबकि 18 सीटें शिवसेना ने जीती थीं। अब भाजपा के साथ ऐसा कोई सहयोगी दल नहीं है जिसकी मदद से वह पिछले चुनाव का प्रदर्शन दोहरा सके। भाजपा को यह महसूस हो गया है कि एकनाथ शिंदे गुट के साथ वह सरकार का बचा-खुचा कार्यकाल तो पूरा कर लेगी लेकिन लोकसभा चुनाव में महा विकास अघाड़ी के मुकाबले 41 सीटें तो दूर, उसे अपनी 23 सीटें बचाना भी मुश्किल हो जाएगा। ऐसे सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, उससे भी भाजपा और एकनाथ शिंदे गुट के खिलाफ लोगों में नाराजगी बढ़ेगी जो कि लोकसभा चुनाव में उसे नुकसान पहुंचाएगी।
कुल मिलाकर भाजपा और एकनाथ शिंदे की अगुवाई वाली शिव सेना के लिए सत्ता में बने रहते हुए भी आगे की राजनीति का रास्ता बेहद मुश्किल भरा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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