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स्वच्छता अभियान  का मुखौटा उतारना होगा: विमल थोराट

नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स (NCDHR) की को-कन्वीनर और सोशल एक्टिविस्ट व लेखिका प्रोफ़ेसर विमल थोराट आज एक जाना-पहचाना नाम है। पेश हैं उनसे राज वाल्मीकि द्वारा की गई बातचीत के प्रमुख अंश:
VIMAL THORAT

नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स (NCDHR) की को-कन्वेनर और सोशल एक्टिविस्ट व लेखिका प्रोफ़ेसर विमल थोराट आज एक जाना-पहचाना नाम है। वे दलितों-आदिवासियों और महिलाओं के हक़-अधिकारों की लड़ाई कई दशकों से लड़ रही हैं। उनकी चिंता  है कि लम्बे संघर्ष के बाद दलितों-आदिवासियों, महिलाओं और हाशिए के लोगों को कुछ अधिकार बाबा साहेब के संविधान के माध्यम से मिले थे उनको भी अब छीनने का प्रयास मौजूदा सत्ताधारी सरकार के द्वारा किया जा रहा है।

प्रोफ़ेसर विमल थोराट की कुछ पुस्तकें हैं : ‘दलित साहित्य का स्त्रीवादी स्वर’, ‘हिंदी साठोत्तरी कविता और मराठी दलित कविता में सामाजिक-राजनीतिक चेतना’, ‘हिंदी और मराठी के स्वातंत्रयोत्तर उपन्यासों में जाति वर्ग-संघर्ष’, ‘द  साइलेंट वोल्कानो’(दलित महिला कवियों की कविताओं का हिंदी अनुवाद), ‘भारतीय दलित साहित्य का विद्रोही स्वर’ (संपादन), ‘स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण’(संपादन)। चित्रकला में भी उनका योगदान है। फिलहाल वह “दलित अस्मिता” त्रैमासिक पत्रिका का संपादन कर रही हैं।

पेश हैं उनसे राज वाल्मीकि द्वारा की गई बातचीत के प्रमुख अंश:

राज वाल्मीकि - अब 2 अक्टूबर को सिर्फ गाँधी जयंती ही नहीं बल्कि स्वच्छ भारत अभियान के रूप में देखा जाता है? कुछ सरकारी संस्थाएं ‘स्वच्छ भारत सप्ताह’ तो कुछ ‘स्वच्छ भारत पखवाड़ा’ भी मनाने लगी हैं। एक ओर ‘स्वच्छ होता भारत’ और दूसरी ओर ‘मैला ढोता भारत’ सेप्टिक टैंक और सीवर सफाई में मरते सफाई कर्मचारियों वाला ‘अस्वच्छ भारत’ दोनों को आप किस नजरिये से देखती हैं?

विमल थोराट – यह बहुत अहम सवाल है। पिछले सात साल से स्वच्छ भारत चल रहा है। लेकिन स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर इस देश में कोई स्वच्छता या इसके प्रति बढ़ती  हुई अवेयरनेस दिखाई नहीं दे रही है। घर गांव  या बड़े शहरों में आप जाइए खासकर महानगरों में तो चारों  तरफ आपको गन्दगी के ढेर नजर आएंगे। और इसे स्वच्छ करने वाला जो तबका है जिसे इस देश में जाति व्यवस्था के कारण उनके ऊपर ये काम लाद दिया गया है और उनके न चाहने पर भी इस अमानवीय और अत्यंत अस्वच्छ गंदगी भरे काम में उन्हें जबरदस्ती ढकेल दिया गया है। वह अस्वच्छ समाज जिसे स्केवेंजिंग कम्युनिटी के नाम से जाना जाता है। उनकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया है न सरकार की तरफ से योजनाएं लागू हुई हैं न तकनीकी तौर पर कोई व्यवस्था है। देश के जो साइंटिस्ट हैं उन्होंने सीवर या गटर साफ़ करने का कोई यंत्र नहीं बनाया है कि इस काम से पूरे समुदाय को, एक बहुत बड़े तबके को इस काम से छुटकारा मिल सके।

मैला ढोना या सीवर-सेप्टिक टैंक की सफाई - ये काम नहीं है यह गुलामी का बहुत बड़ा अभिशाप है जो दलित समुदाय हजारों साल से झेलता आ रहा है। और ये जाति व्यवस्था जब तक रहेगी, टूटेगी नहीं, तब तक सीवर-सेप्टिक टैंको में जो मौत होती है। इसे हम हत्या कहेंगे क्योंकि बिना किसी सुरक्षा कवच के उन्हें अन्दर उतारा जाता है। अन्दर की जहरीली गैस से जब उनकी मौत होती है तो उनकी जिम्मेदारी कोई नहीं लेता है। सरकारें इस पर चुप रहती हैं। फिर चाहे वह केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार हो। आज तक का रिकॉर्ड है कि अब तक सीवर-सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान जो मौतें हुईं हैं इसके लिए किसी को कोई सजा नहीं हुई है। जबकि इसके लिए 1993 और 2013 के दो-दो कानून बने हुए हैं। किसी से बिना सुरक्षा उपकरण के और जबरन ये काम कराना दंडनीय अपराध है। सरकार का परम्परावादी रवैया है कि इनका तो काम ही देश की सफाई करना है शहर की सफाई करना है और उसी की बदौलत इनकी रोजी-रोटी चल रही है। ये कहां का न्याय है? स्वच्छ भारत के नाम पर दस हजार करोड़ की राशि केंद्र सरकार ने यूं ही फूंक दी है। लेकिन स्वच्छता के नाम पर कोई सफाई  दिखाई नहीं देती है। इसी दिल्ली में अगर आप साउथ दिल्ली को छोड़ दें और पूर्वी दिल्ली उत्तरी दिल्ली या पश्चमी दिल्ली में जाएंगे तो सड़कों पर कूड़े के ढेर के ढेर नजर आएंगे। और इसे सफाई करने की जिम्मेदारी केवल एक समुदाय की है। क्या ये स्वच्छ भारत के नाम पर बहुत बड़ा अन्याय नहीं है? इस अन्याय को दूर करने के लिए स्वच्छता अभियान का जो पहना हुआ मुखौटा है उसे उतारना होगा और सीवर-गटर की सफाई और जो मैला ढोने की प्रथा अभी तक चल रही है उसे रोकने के लिए पुरजोर आंदोलन चलाने होंगे। इसे रोकना होगा।

राज वाल्मीकि - महिलाओं के साथ होने वाला भेदभाव, शोषण, यौन उत्पीड़न और अत्याचार का सिलसिला थम नहीं रहा है। चाहे वह हाथरस की बेटी का मामला हो या दिल्ली की गुड़िया का केस हो। महिलाओं खासतौर से दलित-आदिवासी-पिछड़ी हाशिये की वंचित महिलाओं पर बढ़ते अत्याचारों को आप कैसे देखती हैं?

विमल थोराट – देखिये दलित समुदाय पर जाति के कारण जो यहां कि जाति व्यवस्था है इसमें उन्हें गुलाम से अधिक का दर्जा नहीं दिया गया। और स्वतंत्रा के बाद हमारे संविधान में जो समानता का प्रावधान है उसकी धज्जियां  उड़ाई गईं। दलित महिलाओं की ओर देखने का मनुवादियों का जो दृष्टिकोण है वो हीनतम है और वो ये मानते हैं कि देश कि दलित महिलाएं सिर्फ और सिर्फ उनकी गुलाम हैं। क्योंकि आर्थिक दृष्टि से वो उन पर निर्भर है। वो भूमिहीन मजदूर है। उनके पास कहने को अपनी कोई संपत्ति नहीं है। दूसरी बात दलित महिलाओं का उत्पीड़न, शोषण और उन पर होने वाली यौन हिंसा की जो घटनाएं हैं। वो पहले भी होती रही हैं और उनका रिकॉर्ड हम पिछले पचास वर्षों का भी देखें तो कम से कम पचास हजार महिलाएं इस तरह के शोषण का शिकार हुई हैं। पर इस पर कोई गंभीर चर्चा या कारवाई नहीं की गई।

अभी हाथरस की बेटी का ही उदाहरण लीजिए जिस के बलात्कार के बाद हत्या हुई है उस पर पुलिस द्वारा एक तरह का फिर बलात्कार होता है कि उसके परिवार की बिना रजामंदी के रातों-रात उसके शव को जला दिया जाता है। पुलिस प्रशासन को सबूत रखने होते हैं लेकिन यहां तो वह खुद ही सबूत मिटाने में लगा था। इतनी जघन्य पाशविकता हुई है। उस बेटी का डिक्लेरेशन है। और पिछले सात-आठ सालों में जितनी बलात्कार, शोषण और उत्पीड़न की जो घटनाएं हुई हैं वो वाकई दिल दहला देने वाली हैं। और मुझे लगता है कि एनसीआरबी का जो डेटा है उससे भी ज्यादा संख्या में ये घटनाएं हो रही हैं। लेकिन सबका लेखा-जोखा हमारे पास नहीं पहुंचता  है। क्योंकि गोदी मीडिया चुप है। जिसे नेशनल मीडिया कहते हैं जिसकी जिम्मेदारी है कि हर अन्याय के खिलाफ आवाज उठाए। उसकी जानकारी पूरे भारत को दे। लेकिन ये नहीं हो रहा है। जितनी भी जानकारी मिल रही है वो सोशल मीडिया पर ही मिल रही है। सोशल मीडिया अगर नहीं होता तो शायद हमें ये भी जानकारी नहीं मिलती।

29 सितम्बर 2021 को हाथरस की बेटी की मौत को एक वर्ष बीत चुका है। और अभी तक जितनी  कार्रवाई होनी चाहिए थी। एससी/एसटी एट्रोसिटी प्रिवेंशन एक्ट के तहत इस केस का निपटारा 60 दिनों के अन्दर होना चाहिए था। मुझे लगता है कि एससी/एसटी एक्ट लगने के बावजूद, मामला फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में चलने के बावजूद सरकार, कोर्ट और पुलिस ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया है। शायद इसे दबाने की कोशिश भी हो रही है। यह राज्य सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट की अवमानना है। उत्तर प्रदेश की सरकार नहीं चाहती है कि जो बलात्कारी हैं, शोषणकारी हैं उन्हें कोई सजा मिले। क्योंकि वो दबंग समुदाय से आते हैं। आरोपी अभी जेल में हैं पर हमें नहीं मालूम कि उनके ऊपर जितनी धाराएं लगनी चाहिए थीं वो लगी भी हैं या नहीं। अभी तक इस केस का निपटारा हो जाना चाहिए था।

एक और बात मैं न्यूज़क्लिक के माध्यम से देश की जनता को बताना चाहती हूं। पिछले दो साल में 2019 और 2020 में दलित महिलाओं पर बलात्कार के जो मामले हुए हैं उनमे उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा मामले हैं। उत्तर प्रदेश सबसे पहले रैंक पर आता है। देखिए कितनी विडंबना है कि क्षेत्र के हिसाब से उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। उसमें दलित महिलाओं पर होने वाले रेप की संख्या 1413 है। और एटेम्पट टू रेप, रेप की कोशिश भी महिलाओं के शोषण और अत्याचार का मामला है उसमे 604 मामले अब तक आ चुके हैं। ये हम सिर्फ दो वर्ष के आंकड़े आपके सामने रख रहे हैं और ये नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े हैं। हमारे अपने नहीं हैं। उनकी लज्जा भंग के मामलों की संख्या भी 534 है। इसके अलावा उनके साथ प्रेम का नाटक कर उनके साथ सम्बन्ध बना कर बाद में उन्हें छोड़ देना इनकी संख्या 269 है। दलितों पर होने वाले अत्याचारों पर भी उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है। उन पर होने वाले अत्याचारों की संख्या 10901 है। इतने बड़े स्तर पर दलितों पर अन्याय और अत्याचार की, शोषण और यौन शोषण की घटनाएं हो रही हैं। यह बहुत बड़ी चिंता का विषय हैं। इस पर केंद्र सरकार चुप है और राज्य सरकार भी इन पर कोई कारवाई करने में नाकाम हो रही है।

कहने का मतलब यह है कि दलित और हाशिए की महिलाओं की स्थिति दयनीय है और दिन-ब-दिन और बदतर होती जा रही है। इसी को लेकर 29 सितम्बर को कांस्टीटूशन क्लब में 26 महिला और सामजिक संगठनों ने आवाज उठाई है। और हाथरस की बेटी जो अब हमारे बीच नहीं है उसे न्याय दिलाने की अपील की है। हम इसका विरोध करते हैं कि सरकार ने इस पर चुप्पी साधी हुई है।

राज वाल्मीकि- दलित आदिवासी पिछड़े और हाशिए के वर्ग के उत्थान में आप सोशल मीडिया की भूमिका को कैसे डिफाइन करती हैं?

विमल थोराट – पिछले 6 या 7 साल में देखा गया है कि जिसे मुख्यधारा का मीडिया कहा जाता है या नेशनल मीडिया कहा जाता है। उसे खरीद लिया गया है। औद्योगिक घरानों ने जैसे अम्बानी और अडानी हैं। उन्होंने मुख्यधारा के चैनलों की 50% से ज्यादा भागीदारी खरीद ली है। इसलिए अब मीडिया उन्ही की बात बोलती है। जिसे हम गोदी मीडिया कहते हैं। सरकार की तरफ से उनके ऊपर दबाब है। हो सकता है इसके कई कारण हों। लेकिन इससे जनता की आवाज वहां तक नहीं पहुँच रही है। और खासकर दलित, मुस्लिम और ओबीसी, पिछड़े और घुमंतू समाज है, हाशिए का समाज है, उनके प्रति, किसान आंदोलन के प्रति, यह आंदोलन एक साल से चल रहा है उसके प्रति जो रवैया है गोदी मीडिया का वह बहुत असंवेदनशील है। यह मीडिया इतनी गिर चुकी है कि हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। ये भारत जैसे जनतंत्र में ये एक बहुत बड़ा मोड़ है। क्योंकि मीडिया का ये रोल होता है कि जनता की जो आवाज है, जो उसकी समस्याएं हैं वो सरकार के सामने स्पष्ट रूप से रखे। वह जनता की आवाज बने। इसीलिए उसे जनतंत्र का चौथा खंभा  कहा जाता है। लेकिन ये चौथा खंभा तो कब का गिर चुका है। और गोदी मीडिया में तब्दील हो चुका है तो उसकी ओर तो हम जाते भी नहीं हैं न हम उससे कोई अपेक्षा रखते हैं। लेकिन सोशल मीडिया में जितने भी लोग आए हैं खासकर बहुजन समाज से जो लोग आए हैं और अन्य लोग भी जो वाकई बहुत कमिटेड हैं और चाहते हैं कि जनता की आवाज और जनता की जितनी भी समस्या है उसका निदान हो और उसको न्याय मिले। उनका काम सराहनीय है। किसान आंदोलन की जो मांगे हैं उनको जल्द से जल्द न्याय मिले। सोशल मीडिया के अलावा हमारी आवाज को जनता तक कोई नहीं पहुंचा रहा है। इसलिए हम अभी सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया पर निर्भर हैं और ये हमारी निर्भरता नहीं है ये हमारी आवाज उठाने का एक जरिया बन गया है।

राज वाल्मीकि - ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ संवैधानिक मौलिक अधिकार है। पर आज इस अभिव्यक्ति का उपयोग करने वालों को देशद्रोही कह कर  जेल में डाल दिया जाता है. इस प्रवृति पर आप क्या कहेंगी?  

विमल थोराट – देखिए हमारा देश, दुनिया की सबसे अधिक संख्या वाला लोकतांत्रिक देश है। और इस देश का जो संविधान है, जिसके निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर हैं, उनके सहयोगी  भी शामिल हैं, तो उसमे बहुत स्पष्ट रूप से लिखा गया है, उसकी प्रस्तावना (preamble) में सबसे पहले लिखा गया है कि इस देश के हर नागरिक को समता, स्वतंत्रता, भाईचारे के साथ जीने का हक है। वह इसका हकदार है। और ये जीने का हक हमें संविधान देता है। और संविधान के तहत इस देश का हर नागरिक स्वतंत्र है। वह स्वतंत्र देश का स्वतंत्र नागरिक है। और उसे वो सारे तमाम अधिकार दिए गए हैं जो कानूनी तौर पर संवैधानिक अधिकार हैं। जिसमे जीवन का अधिकार है। जिससे रोजगार का अधिकार है, शिक्षा का अधिकार है, स्वास्थ्य का अधिकार है, व्यक्ति की स्वतंत्रता है। ये तमाम अधिकार हमें संविधान देता है। आज इन तमाम अधिकारों का अवमूल्यन हो रहा है या उनकी अवमानना की जा रही है। या हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनी जा रही है। हमारा समता का अधिकार छीना जा रहा है और भेदभाव की नीति का यहां प्रयोग किया जा रहा है। दलित या आदिवासी समुदाय को या हाशिए के समुदाय को दबाया जा रहा है। महिलाओं को दबाया जा रहा है। उनके अधिकारों की अवहेलना हो रही है। एक लम्बे समय से मांग है महिलाओं की। आज 25 साल हो रहे हैं वो आज तक पूरी नहीं हुई कि विधायिका और संसद में हमें 33% की हमें भागीदारी चाहिए। हमें राजनीतिक भागीदारी में  आरक्षण चाहिए वो उन्हें अभी तक नहीं मिला है।

हम इसे संविधान के मूल्यों की अवमानना मानते हैं। उसका अपमान मानते हैं। अगर आज बाबा साहेब ने भारतीय महिलाओं को जितने अधिकार दिए हैं संपत्ति में अधिकार, शिक्षा का अधिकार, बच्चे को गोद लेने का अधिकार, विवाह करने का अधिकार, पुरुष हैं उन्हें एक पत्नी रखने का अधिकार, पहले पुरुष कई शादियां  कर सकते थे। जब से हमारा संविधान लागू हुआ है जब से हमारा देश गणतंत्र देश कहलाया गया है तब से ये अधिकार महिलाओं को भी मिले हैं। तो ये बहुत बड़ी एक क्रांति इस देश में हुई है। महिलाएं आज बहुत सशक्त होने की कोशिश में हैं। बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं जिनमे पुरुष ये मानते थे कि ये काम महिलाएं नहीं कर सकती हैं। आज महिलाएं पायलट हैं और हवाई जहाज उड़ा रही हैं। आज महिलाएं आर्मी में बड़े ओहदों पर काम कर रही हैं। आज महिलाएं डॉक्टर, इंजीनियर और साइंटिस्ट हैं। आज महिलाएं यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं। वाईस चांसलर हैं। तो ये तमाम जो अधिकार मिले हैं। जो बराबरी का अधिकार मिला है वो हमारे संविधान के तहत मिला है।

आज हमारी ये स्वतंत्रता धीरे-धीरे छीनी जा रही है। और कई ऐसे उदाहरण मैं आपको दे सकती हूं कि किस तरह से हमारे अधिकारों का हनन किया जा रहा है। संवैधानिक अधिकारों को कम किया जा रहा है। इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबसे पहले आती है। हमें बोलने का, लिखने का और हमारे विचार प्रस्तुत करने का ये अधिकार हमारा बुनियादी अधिकार है। संवैधानिक अधिकार है। अगर हमारे इस अधिकार को छीना जाता है तो मुझे लगता है कि इस देश की जो व्यवस्था है। जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था है वह कमजोर हो रही है। जिस सामाजिक लोकतंत्र की कल्पना हमारे बाबा साहब ने की थी। वह कल्पना साकार नहीं हो रही है बल्कि उसे खत्म करने की कोशिश की जा रही है। आज बहुत सारे पत्रकार जो सच्ची पत्रकारिता पर विश्वास रखते हैं और जो देश की वास्तविकता है उस पर बात करना चाह रहे हैं या लिखना चाह रहे हैं उन्हें देशद्रोह के नाम पर जेल में बंद कर रखा है। ये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं हुई। ये हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुत बड़ा आघात है। और हम से हमारी स्वतंत्रता छीनी जा रही है। तो मुझे लगता है कि जो सपना बाबा साहेब ने देखा था – एक जनतांत्रिक समाज, एक समाजवादी लोकतान्त्रिक समाज की जो कल्पना उन्होंने की थी, वो अब हमें लगता है कि  उसे  मौजूदा सत्ताधारी सरकार के द्वारा खत्म करने की पुरजोर कोशिश हो रही है। ये एक बहुत बड़ा खतरा है जो हमारे लोकतंत्र पर मंडरा रहा है।

(साक्षात्कारकर्ता राज वाल्मीकि सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)

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