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 ‘सबक़’ सिखाते हुए न्यायपालिका को संदेश है जस्टिस मुरलीधर का तबादला

12 फरवरी को कोलिजियम ने ट्रांसफर की फाइल आगे बढ़ाई। 15वें दिन 26 फरवरी को इस पर एक्शन हुआ।फैसला कोलिजियम का है लेकिन वक्त सत्ताधारी दल के लिए सटीक है।
 मुरलीधर का तबादला

जस्टिस एस मुरलीधर के ट्रांसफर को लेकर पैदा हुए विवाद में दो बातें महत्वपूर्ण हैं- एक जो बीजेपी कह रही है कि यह कोलिजियम की सिफारिश पर तय प्रक्रिया के अनुरूप लिया गया फैसला है। और, दूसरा जो कांग्रेस कह रही है कि यह न्यायपालिका में ईमानदारी से काम करने वालों को दबाने की कोशिश है। इन दोनों महत्वपूर्ण बातों के बीच यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि जब प्रक्रिया में कोलिजियम है तो आरोप केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर क्यों?

जस्टिस मुरलीधर को दिल्ली हाईकोर्ट से पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में तबादला करने की अधिसूचना राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मंजूरी के बाद 26 फरवरी की रात जारी की गयी। जबकि, उसी तारीख को दिन में जस्टिस मुरलीधर ने दिल्ली में हालात बिगड़ने के लिए बीजेपी नेताओं के भड़काऊ भाषणों पर सख्त तेवर दिखाए थे। सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता और जस्टिस मुरलीधर के बीच तीखा संवाद देखने को मिला था।

तबादले की अधिसूचना से पहले जस्टिस मुरलीधर के तेवर से ऐसा संदेश लेने की आज़ादी हमें थी कि चूंकि उनके तबादले की बात कोलिजियम कर रहा है और इस पर दिल्ली हाईकोर्ट बार एसोसिएशन विरोध जताते हुए पुनर्विचार की मांग कर रहा था तो कहीं न कहीं इस प्रक्रिया से खुद जस्टिस मुरलीधर भी नाखुश रहे होंगे। मगर, तबादले की अधिसूचना के बाद यह संदेश मिलता दिख रहा है कि सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर की याचिका की सुनवाई करते हुए जस्टिस मुरलीधर ने जिस तरीके से बीजेपी नेताओँ के उत्तेजक भाषणों पर डीसीपी राजेश देव को डांट पिलाई, उससे केंद्र की बीजेपी सरकार आहत हो गयी।

12 फरवरी को कोलिजियम ने ट्रांसफर की फाइल आगे बढ़ाई। 15वें दिन 26 फरवरी को इस पर एक्शन हुआ। न इसे समय से पहले और न ही इसे देरी से उठाया गया कदम बताया जा सकता है। मगर, क्या उपयुक्त समय कहा जा सकता है? कतई नहीं। एक जस्टिस के ट्रांसफर के लिए यह समय कतई सही नहीं कहा जा सकता। इसका संदेश गलत जाता है। संदेश यह निकलता है कि ट्रांसफर या ऐसे ही किसी मामले में प्रक्रिया अगर लंबित है तो ‘विरोधी स्वर’ अंजाम भुगतने को तैयार रहें। निश्चित रूप से कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रियाएं यही कहती दिख रही हैं चाहे वह प्रियंका गांधी के ट्वीट हों या फिर राहुल गांधी के, और इसी तरह कांग्रेस के प्रेस कॉन्फ्रेंस हों।

महत्वपूर्ण बात यह भी है कि एस मुरलीधर को ट्रांसफर करने के लिए कोलिजियम बहुत पहले से बेचैन रहा है। दिसंबर 2018 को सबसे पहले कोलिजियम में यह प्रस्ताव आया। तब चीफ जस्टिस रंजन गोगोई थे जो कोलिजियम का नेतृत्व कर रहे थे। जनवरी 2019 में भी ऐसी कोशिश हुई। मगर, कोलिजियम को सफलता नहीं मिल सकी। तब कोलिजियम में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई के अलावा जस्टिस एके सीकरी, जस्टिस एसए बोबड़े, जस्टिस एन वी रमन्ना और जस्टिस अरुण मिश्रा थे। कोलिजियम में इस कोशिश पर मतभेद लगातार दिखे।

फरवरी 2020 में चीफ जस्टिस एसए बेवड़े के नेतृत्व वाले कोलिजियम ने एक बार फिर मुरलीधर के तबादले की कोशिश की। इस वक्त कोलिजियम में रंजन गोगोई की जगह जस्टिस भानुमती और जस्टिस एके सीकरी की जगह जस्टिस आर.एफ नरीमन जुड़ चुके थे। अब कोलिजियम में कोई मतभेद नहीं था, लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट के बार एसोसिएशन ने इस पर विरोध जताया। विरोध की वजह तबादला नहीं, बल्कि प्रोन्नति रहा है। वरिष्ठता के आधार पर जस्टिस मुरलीधर का तबादला हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के तौर पर होना चाहिए, लेकिन कोलिजियम ने ऐसी सिफारिश नहीं की।

फैसला कोलिजियम का है, वक्त सत्ताधारी दल के लिए सटीक है। पूरी कोलिजियम व्यवस्था ही सवालों के घेरे में आ जाती है। मोदी सरकार ने इस कोलिजियम सिस्टम को खत्म करने की पहल की थी जब उसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम बनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया। फिर भी केंद्र सरकार ने हार नहीं मानी। एक समय ऐसा आया जब कॉलिजियम के चार सदस्यों ने 12 जनवरी 2018 को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर न्यायपालिका को ही आईना दिखाने का काम किया। उन्होंने संविधान को खतरे में बताया।

बाद के दिनों में कोलिजियम का स्वरूप बदलता चला गया। केंद्र के साथ तकरार की घटनाएं भी हुईं। मगर, यह तकरार क्रमश: केंद्र सरकार के साथ मेल-जोल में बदलता चला गया। एक समय जस्टिस केएम जोसेफ को वरीयता का नुकसान हुआ क्योंकि कोलिजियम की अनुशंसा के विरुद्ध वरीयता का आधार केंद्र सरकार ने बदल दिया। माना यही गया कि उत्तराखण्ड में हरीश रावत की सरकार बहाल करने के आदेश के कारण वे राजनीतिक प्रतिशोध का शिकार बने। स्वास्थ्य के आधार पर केएम जोसफ तबादले की मांग करते रहे, लेकिन वह भी अनसुना कर दिया गया।

2014 में कोलिजियम ने वकील गोपाल सुब्रमण्यम के नाम की संस्तुति जज के लिए की थी, लेकिन केंद्र सरकार ने उसे मानने से इनकार कर दिया। माना यही गया कि सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ केस में न्यायालय के सहायक रहने की वजह से केंद्र सरकार का यह रुख रहा। इस मामले में अमित शाह मुख्य आरोपित थे।

मद्रास हाईकोर्ट की महिला चीफ जस्टिस विजया के ताहिलरमानी का तबादला अपेक्षाकृत छोटे मेघालय हाईकोर्ट कर दिया गया। उन्होंने इस पर पुनर्विचार की अपील की, मगर कोलिजियम ने उनकी नहीं सुनी। आखिरकार ताहिलरमानी ने इस्तीफे का रास्ता चुना। ताहिल रमानी ने गुजरात से महाराष्ट्र ट्रांसफर हुए बिलकिस बानो केस में सामूहिक दुष्कर्म के सभी 11 दोषियों की सज़ा बरकरार रखी थी। गुजरात दंगे से जुड़े इस मामले को भी ताहिलरमानी के अनुचित तबादले से जोड़ा जाता है। तबादले के वक्त वह देश में मुख्य न्यायाधीशों की वरीयता सूची में टॉप पर थीं।

कर्नाटक हाईकोर्ट जज जयंत पटेल ने भी इलाहाबाद हाईकोर्ट ट्रांसफर किए जाने के बाद इस्तीफा दे दिया था। हालांकि उन्होंने इस्तीफे की कोई वजह नहीं बतायी थी। मगर, वे भी गुजरात हाईकोर्ट मेंजज रहते हुए इशरत जहां मामले में सीबीआई जांच के निर्देश दे चुके थे।

उदाहरण कई और भी हैं जो कोलिजियम पर केंद्र सरकार के दबाव का आभास कराते हैं। देखने में यह जरूर लगता है कि वरिष्ठ जजों के तबादले के अधिकार कोलिजियम के पास हैं, लेकिन जजों से जुड़ी घटनाएं और उनके हितों को नुकसान पहुंचाते फैसले बताते हैं कि उन्हें भी ‘सबक’ सिखाया जाता है। इसी वजह से यह सवाल उठता है कि जस्टिस एस मुरलीधर का तबादला क्या सामान्य तबादला है? एक कोशिश जो 2018 से चल रही थी, वह 2020 में सफल होती है। और, उसकी टाइमिंग ऐसी है जो न सिर्फ भुक्तभोगी न्यायाधीश के लिए ‘सबक’ है बल्कि दूसरों के लिए संदेश भी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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