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मेरे मुसलमान होने की पीड़ा...!

जब तक आप कोई घाव न दिखा पाएं तब तक आप की पीड़ा को बहुत कम आंकता है ये समाज, लेकिन कुछ तकलीफ़ों में हम आप कोई घाव नहीं दिखा सकते फिर भी भीतर की दुनिया के हज़ार टुकड़े हो चुके होते हैं।
muslim women
सुल्ली डील, बुल्ली बाई डील के विरोध की एक तस्वीर। साभार

मेरा गांव उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में है, तियरी नाम है गांव का। आज से 30 बरस पहले पढ़ाई का सफर उसी गांव से प्रारम्भ किया था। शेख सय्यदों का गांव। ऊॅंची ज़ात का गुमान ब्राहमणों की तरह सय्यदों में भी खूब है। पढ़ाई लिखाई का सिलसिला चलता रहा, वो दौर जब बाबरी मस्जिद ढहा दी गई, मेरे रिश्तेदारों की लाशें बिछा दी गईं, माहौल बहुत खराब होता चला गया। उसी सिलसिले में बात करने एक दिन मेरे विद्यालय में एक स्थानीय पत्रकार जगन्नाथ वर्मा आए। मेरा तर्क ये था कि अयोध्या को एक ऐसा स्थल बना दिया जाना चाहिए जहां हिन्दू और मुसलमान सभी आएं, उनके इबादतगाह भी हों, पर्यटन का केन्द्र भी हो, इससे हमारे आपसी झगड़े ख़त्म हो जाएंगे। इस बयान का अखबार में छपना था कि मुसलमानों की ओर से मुझपर गालियों की बौछार होने लगी, हम भाई बहन डर-सहम गए। एक तो लड़की होने के नाते दूसरा ऐसी प्रतिक्रिया।

हमारा घर स्कूल से 14-15 किलोमीटर दूर था। साइकिल से आना जाना। हमेशा डर लगा रहता था किसी अनहोनी का। इस बयान पर हमारे माता-पिता को भी परेशान किया जाने लगा। तैश खाए मुसलमानों ने अखबार में माफी मांगने का दबाव बनाया कि हम कहें ये मस्जिद मुसलमानों की थी! है! और रहेगी! बस्स!! और कुछ भी नहीं!! हमें काफिर करार दिया गया। उम्र इतनी नहीं थी कि इस सियासत को समझ पाती। भला यही लगा कि झगड़ा समाप्त हो जाए, सो कह दिया। बहुत अपमानित हुई। मजहब बचाने वालों ने निशाने पर ले लिया। छोटी उम्र में एक विचार बना कि ये गांव वाले बहुत दकियानूस होते है, शहरों में ऐसा नहीं होता, वहां लोग शिक्षित व खुले विचारों के होते हैं।

कुछ समय बाद शिक्षा के सिलसिले में लखनऊ आना हो गया। लखनऊ विश्वविद्यालय से एम0फिल0 किया। फिर कुछ दिनों बाद एक महिला मानवाधिकार संगठन में नौकरी कर ली। यहां आकर यह भरम धराशाई हो गया कि हम भी ऊॅंची ज़ात वाले हैं। यूं कहूं तो एक एहसास-ए-कमतरी ने घेर लिया। यहां सिर्फ मुसलमान नाम होना काफी था एक विशेष प्रकार से देखे जाने के लिए।

एक दिन मेरी एक हम-उम्र सहकर्मी ने यूं ही हॅंसते-हॅंसते किसी की बात बताई और उसे मुसल्टा (मुसलमान को) कह कर सम्बोधित किया। इसके फौरन बाद उसने मेरी ओर पलट कर देखा, दोबारा उपहास मिश्रित हॅंसी के साथ बोली, वैसे तुम लोग भी हिन्दुओं को किसी न किसी नाम से पुकारते ही होंगे...! उसमें जरा भी अपराधबोध नहीं था, वो एक पैर पर एक पैर रखे उसे धीरे-धीरे हिला रही थी, और ऐसे हॅंस रही थी जैसे किसी कला फिल्म की नायिका अपना दोहरा किरदार निभा रही हो। उसे ये एहसास भी नही हुआ कि उसके कलेजा चीर देने वाले शब्दों से मेरे अन्दर कितना कुछ टूट बिखर गया है। मुझे हिन्दू मित्रों को किस उपनाम से पुकारना है ये मेरे परिवार ने कभी नहीं सिखाया था। मैं उसे क्या जवाब देती, एक अपमानित सा मुंह लिए वहां से उठ गई। ये मेरे साथ शहर आने के बाद पहला वाकया था जिसने खुले विचारों की पूर्वधारणा को तोड़ना आरम्भ किया था।

ऐसा मौका कई बार आया जब मेरी एक अन्य सहकर्मी साथ खाना खाने से कतराती रहती थी, कभी खा भी लेती तो मेरे डब्बे से एक निवाला भी न चखती। ये सिलसिला लम्बा चलता रहा। कष्ट किसी को नहीं था इस बात से, सिवाय मेरे। वक्त गुज़रता गया। दिल की बात जुबां तक आने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। गुरुदेव कहते हैं जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन....। यानी मेरे बिना कुछ बताए पूछे ही वह निष्कर्ष पर पहुंच गई थी कि मुसलमान का अन्न और मन कैसा होता है। मैं निरूत्तर हो गई कि ये अन्तर्यामी लोग अपने आप सबकी कुण्डलियां देख चुके हैं। मेरे अन्दर पता नही क्या-क्या होने लगा था। क्या करती रहना तो यहीं था। अपने मन को समझाती रही जितना समझा सकती थी। उसी दौरान अपने लिए एक किराए का मकान ढूंढ रही थी, अखबारों में हर रविवार छपे इश्तेहार को लेकर निकलती थी मकान की तलाश में। कई बार ऐसा वाकया पेश आया जब पढ़े लिखे भली नौकरियों में ओहदेदार लोगों ने मकान देने से न सिर्फ मना कर दिया बल्कि डील फाइनल होने पर जब मेरे नाम की खासी तफतीश की तो उन्हें पता चला कि मैं इसाई नहीं मुस्लिम हूं। उछल गए। अररे बाप रे...। मानो अचानक ही कोई बुरा मन्जर आंख से गुजरता हुआ तेज़ी से निकल गया। मेरी आंखों ने ऐसी प्रतिक्रियाएं अनेक बार देखी। एक माह में अनेक मकान देखने में मेरे पैरों में मोटे गट्ठे पड़ गए थे। आखीर में जब एक मुसलमान के मकान में गए, लगा शायद अब सब ठीक हो जाएगा। भावना में बहते हुए उनसे पिछले दिनों गुजरी पूरी कहानी बयान कर डा़ली, उन्होंने मजबूरी जानकर इतनी शर्तें रख दीं कि दोबारा एक बार हिम्मत जवाब दे गई।

सन् 2002, गुजरात दंगों के दौरान अहमदाबाद वालेन्टियर कैम्प में काम करने गई तो मेरा ट्रेन का रिज़र्वेशन सुनीता के नाम से कराया गया, ताकि मेरी मुसलमान शिनाख़्त को छुपाया जा सके। ये साथियों की नेकनीयती थी लेकिन इस वाकये ने एक बार फिर मुझे झकझोरा। एक लोकतान्त्रिक मुल्क में आखिर मुझे अपनी पहचान क्यों छुपानी पड़ रही है। मैं भी इस देश की पूरी नागरिक हूं! ये बात बहुत अर्से तक मुझे सालती रही।

मेरे मित्रों ने कई बार बड़ी बेबाकी से मुझसे ये बात कही है “तुम मुसलमान हो, पर लगती बिल्कुल नहीं हो”। इस बात पर कई बार मैं मुस्कुरा दी, पर कई बार मेरी भी ज़बान में कडवाहट घुल गई। रोज-रोज इन बेहूदा सवालों से दो चार होती रही, कई बार हृदय को चीरती व्यंगात्मक मुस्कान ने बहुत सी अनकही बातों का भी उत्तर दे दिया था। मेरी जिज्ञासा अब ये जानने में हो गई थी कि मुसलमान कैसे लगते हैं। मेरे साथ पढ़ी लड़कियों में और मुझमें क्या फर्क है, ये मुझे कभी पता ही नहीं चला। पर न जाने कौन सा फर्क उनकी जांचती निगाहें ढूंढती रहीं। यह एक बहुत कॉमन सवाल रहा जिसे अनेक बार अनेक जगह पर मुझसे पूछा गया। बात ये है कि मैं तो लगना चाहती हूं, वही मुसलमान, जिसकी मेरे अज़ीज़ साथियों के मन में तस्वीर है, उनसे जानने की इच्छा भी है कि हमें कैसा लगना चाहिए। अगर वो हमें समझा सकें।

इन सवालों को तथाकथित महिला अधिकार के पैरोकारों के सामने उठाने पर ज्यादातर को यही लगा कि मैं सवाल ज्यादा ही करने लगी हूं। ये मेरी गुस्ताख़ी है, पर सवाल तो वही ज्यादा करता है जिसके हिस्से में संघर्ष ज़्यादा होता है। जिसे छोटी-छोटी चीजों के लिए बेजा परेशानियों से दो चार होना पड़ता है।

क्रिकेट गेम मुझे कभी भी पसन्द नहीं रहा, मैं आज भी इसके बारे में बहुत नहीं जानती। थोड़ा बहुत तब जान पाई जब एक दिन अचानक मेरे घर के सामने ढोल ताशे बजने लगे। बाहर निकल कर देखा और पता किया तो मालूम हुआ कोई मैच इंडिया, पाकिस्तान से जीत गया है, इसलिए मुसलमानों के घर के आस पास खुशी का इजहार किया जा रहा है। नफरत ने हमारे बीच जो पूर्वाग्रह गढ दिए हैं उसकी आंच हर तरफ महसूस होती रही कि हिन्दुस्तान में रहने वाला हर मुसलमान हिन्दुस्तान का नहीं पाकिस्तान का हिमायती है। मुझे भी अपने राष्ट्र प्रेम को बहुत बार साबित करना पड़ा है।

सवालों को छोटा बताकर कई बार चुप कराने की चेष्टा हुई। ये छोटे सवाल नहीं हैं। ये गम्भीर कलेजा कुतरने वाले सवाल हैं। किसी परिस्थिति को देखकर कुछ कहना और उसे जी कर कुछ कहना दोनों में बड़ा फर्क होता है। इन सवालों को जीने की पीड़ा बड़ी गहरी होती है।

मेरे गुरुओं ने महिला मानवाधिकार के जो मूल्य हमें सिखा दिए थे वो मेरे भीतर बड़े गहरे बैठ गए उससे इतर जाने का कभी सोचा ही नहीं। लेकिन मुस्लिम की पहचान उनके चश्में से क्या दिखती है, खुले आम गिनाते मेरी सहकर्मी बहनों को भी कभी गुरेज नहीं हुआ। न आंखों की शर्म न जुबान पर लगाम।

महिला संगठन में तो हम बहनापे का दर्द बांटने आए थे, उसे मजबूत बनाने, हमे पता ही नहीं था की हमारे बहनापे के दरमियान भी गहरी मोटी लकीरें हैं। जो हमें हिन्दू-मुस्लिम के अलग अलग खानों में ही रखती हैं।

इसके पीछे वजह जो मुझे नजर आती है वो ये कि भारत में महिला आन्दोलन के झण्डाबरदारों में ज्यादातर उच्च वर्ग व उच्च कही जाने वाली हिन्दू जातियों से आई महिलाएं थीं और हैं। जो ऐतिहासिक तौर पर अप्रत्यक्ष रूप से शोषणकारियों का ही वर्ग रहा है। जिन्होंने कठिनाइयों पर चर्चा तो की है पर उसे जिया नहीं है। तो अन्जाम ये हुआ कि वो यहां भी उसी जमात में शामिल रहीं । इसलिए अंतर्कलह व द्वन्द काफी नज़र आया जिसे सामान्य होने में अभी नस्लें खत्म होंगी। जब तक कि पीड़ित वर्ग मज़बूती से लामबन्द नहीं हो जाता।

मेरे गुरु भाई जैसे एक शख़्स, देखने में पुरकशिश, सुनहरे लम्बे बाल, दानिशमन्द, मुझे उनकी नज़्मों को सुनना उनसे बातें करना बहुत पसन्द था। घण्टों बैठकर गपशप करते थे। वैसे ज्यादातर तो वही बोलते थे हम तो श्रोता ही बने रहते थे। उनकी कई कमज़ोरियों के बावजूद उनके लिए सम्मान बहुत था मेरे मन में। एक दिन अचानक ही मुझे समझाने लगे कि आप क्यों लगी है मुसलमानों के बढावे में! मुसलमान कभी सेक्यूलर हो ही नहीं सकता...! उसका इतिहास तो खून से रंगा है....! इतिहास गवाह है उसने कितने फसाद किए है...। ऐसी फसादी कौम कैसे नियंत्रित हो सकती है? भला सोचिए! उनका एक-एक शब्द पर जोर देकर अचानक धारा प्रवाह बोलना एक प्रवचन जैसा लगने लगा जैसे अभी किसी शाखा से उठ कर आए हैं। इतने दिनों का उनका साथ मेरे लिए ये सोच पाना भी मुमकिन नहीं था कि मै उनका अपमान करुं। उनका इस बारे में धाराप्रवाह बोलना मेरे अन्दर तीर की तरह चुभता रहा। मेरे कलेजे पर हथैाडा मारता रहा। कुछ देर बाद दुखी मन से वहां से निकली और रास्ते भर रोती घर लौट आई।

जब तक आप कोई घाव न दिखा पाएं तब तक आप की पीड़ा को बहुत कम आंकता है ये समाज, लेकिन कुछ तकलीफों में हम आप कोई घाव नहीं दिखा सकते फिर भी भीतर की दुनिया के हजार टुकड़े हो चुके होते हैं। इतनी मानसिक यातना से गुजरते हुए एक दिन ये सोचा कि बहुत सुन लीं मुसलमानों पर टिप्पणियां, तो क्यों न अब उन्हीं के बीच जाकर बदलाव का कुछ काम किया जाए।

शुरुआत एक ग़रीब इलाके से की। मेहनतकश और जज़्बाती इन्सान के सपनों का संसार धीरे-धीरे यहां भी दरकने लगा। मुझे वजू करने, कुरान की सूरत, और नमाज़ पढ़ कर दिखाने तक का सबूत यहां भी देना पड़ा, खांटी मुसलमान हूं कि नहीं। अपनी मुसलमानियत यहां भी साबित करनी पड़ी। ऐसा मौक़ा जल्दी ही आ गया जब मस्जिदों में मेरे खिलाफ़ मीटिंग बुलाई गई। क़ौम को बिगाड़ देने वाली विदेशी रंडी की उपाधि मिल गई। जो धंधेबाज है, औरतों को बेचती है। यहूदी है। इस्लाम का सौदा करने वाली है। मौलानाओं का सख्त पहरा हो गया कि हमें घरों में न दाखिल होने दिया जाए। अल्लाह के तथाकथित प्रतिनिधि मौलानाओं ने बेहद तंग किया। हमारा कुसूर बस इतना था कि हम लड़कियों को तालीम देना चाहते थे। मदरसे में नहीं मुख्यधारा के स्कूलों में। औरतों को घर की चहार-दीवारी से बाहर लाना चाहते थे। एक बुजुर्ग शहरी महिला जो गरीब परवर कही जाती थी। ज़कात (दान) के पैसों से हफ़्ते मे एक बार ग़रीब मुसलमानों को दवा देने का काम भी करती थी। एक रोज एक महिला को दवा देने से इन्कार कर बैठीं, वजह! उस महिला का मियां मन्दिर में ढोल बजाने का काम करता था जो उन्हें बहुत नागवार लगा। ढोल बजाना उसका पेशा था वो उससे दो वक्त की रोटी जुटाता था। उसके पैर से ज़ार-क़तार पीप बहती रही, वो तड़पता रहा दवा के लिए, लेकिन, मज़हब की पहरेदारी करने वाली उन ख़ातून का दिल नही पसीजा, पैर काटना पड़ गया। मुझे उस पल आसमान और ज़मीन घूमते से लगे। मैं जैसे बिल्कुल बौनी और निरीह हो गई। मेरी सब पैरोकारी धरी की धरी रह गई।

ये सिलसिला यूं ही आगे बढ़ता गया। एक दिन महिला आरक्षण बिल के समर्थन में एक कार्यक्रम में हमने भी अपना पक्ष रखते हुए बहस कर डाली। वो बहस, मेरी बहस नहीं समझी गई वो एक औरत का एक मौलाना के साथ जुबान कैंची की तरह चलाना समझा गया। मेरी ये जुर्रत कैसे हुई? कुछ मौलाना इतने बिफर गए कि फोन करके कहा.. तेरी मां को....... रंडी, पता बता अपने बाप का। मा......द! उनकी धाराप्रवाह गालियों ने तो मेरी पूरी कायनात को ही हिला दिया। मैं भीतर तक कांप गई। घर पर आकर इस्लाम पर न बोलने की धमकी भी दे गए। मानो इस्लाम उनके रूमाल में गोया पान इलाइची के बीड़े की तरह रहता हो।

मामला दोनों तरफ एक जैसा ही लगा, जिसमें औरतें भी बराबर की शरीक हैं। कहीं ज़्यादा कहीं कम वाले हालात रहे। जो मेरा भरम तोड़ते रहे, और मैं समुदाय के भीतर और बाहर दोनों जगह अपने मुसलमान होने की पीड़ा को जीती रही। ऐसे न जाने कितने और दर्द हैं जिन्हें कलमबन्द तो नहीं किया जा सकता। ये महज कुछ नजीरें हैं, जिसे आप जरूर समझ पायेंगे। दोनों तरफ फैली नफ़रत की आग ने जिसने कभी मुझे काफिर करार दिया, कभी मुसल्टा, कभी कटवे की औलाद।

मैं समझ नहीं पाती कि ये कैसे धर्म हैं जिसकी इबादत हमें इन्सान से नफरत पैदा कराती है। एक दूसरे से दूर रहने के नुस्खे देती है। मेरा यक़ीन है कि मज़हब नफरत करना नहीं सिखाता, धर्म की ठेकेदारी करने वाले स्वघोषित नेता और स्वार्थी धार्मिक गुरू नफ़रत फैलाने का कारोबार करते हैं। मज़हब की ग़लत समझ रखने वाले भी ये काम करते है। मज़हब की सियायत करने वाले भी नफ़रत व दुर्भावना फैलाने में आगे रहते हैं। हमारी कोशिश ये होनी चाहिए कि हम उनकी साज़िश का शिकार न हों। 

बदलते तो गांव शहर है हम, विचार तो हमारे साथ-साथ ही सफर करते हैं। वो तो ऐसे ही चिपके रहते हैं जब तक कि हम उन्हें झटक कर फेंक न दें। हमें तय करना होगा किसी की उच्छृंखलता की हद तक आज़ादी किसी के लिए घुटन न बन जाए।

न जाने ऐसे ही कितने उपनामों ने आपका भी दिल दुखाया होगा। यकीनन, जिस माहौल में हम जी रहे हैं वहां आप की भी हिन्दू, दलित, या इसाई होने की कोई पीड़ा ज़रूर होगी। मैं उसे कुरेदना नहीं चाहती। आप का दिल दुखाना नहीं चाहती, लेकिन एक इलतेजा ज़रूर है कि हो सके तो दोनों ओर बढ़ती मजहबी हदबन्दियां ख़त्म करने के लिए हम आगे आएं। वरना, ये हदबन्दियां एक दूसरे से टकराकर इन्सानी नस्ल को हमेशा नेस्तोनाबूद करती रहेंगी। उम्मीद की लौ अभी भी बुझी नहीं है।

अपनी पीड़ा से गुजरते हुए मुझे बार-बार ये शेर याद आया।

जाहिदे तंग नज़र ने मुझे काफ़िर जाना।

और काफ़िर ये समझते हैं मुसलमान हूं मैं।।

(लेखिका एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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