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भारत
राजनीति
उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्गों के ‘विद्रोह’ की जड़ें योगी राज की जीवंत वास्तविकता में छिपी हैं
पहले, धर्मनिरपेक्षता और बहुलवाद के प्रति किसान आंदोलन की प्रतिबद्धता ने भाजपा को झकझोर कर रख दिया। और अब, उत्तरप्रदेश के अन्य पिछड़े वर्गों के द्वारा सामाजिक न्याय के एजेंडे को पुनार्जिवित किया जा रहा है, जिसने इसे चुनाव से पहले ही बेहद बैचेन कर दिया है।
एस एन साहू 
21 Jan 2022
uttar pradesh
मात्र प्रतीकात्मक उपयोग।

यदि ऐतिहासिक कृषि आंदोलन ने हिंदुत्व के प्रतिवाद के तौर पर धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और धार्मिक बहुलवाद के पुनरुत्थान के संकेत दिए हैं, तो अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के द्वारा सामाजिक न्याय के एजेंडे को फिर से बहाल किये जाने की मांग ने उत्तरप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की चुनावी सफलता की संभावनाओं को और भी ज्यादा संकट में डालने का काम किया है। भाजपा का शीर्षस्थ नेतृत्व, जिसका केंद्र और उत्तरप्रदेश में शासन है, ऐसा प्रतीत होता है कि उसे कुछ सूझ नहीं रहा है क्योंकि टिप्पणीकारों ने फरवरी में होने वाली विधानसभा चुनावों को लेकर उनकी पार्टी की कमजोर होती संभावनाओं के बारे में खुलकर बात करनी शुरू कर दी है।

किसान आंदोलन ने इस बीच भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति के तिलिस्म को तोड़ते हुए पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जाट-मुस्लिम विभाजन को पाट दिया है। मुजफ्फरनगर दंगों के मद्देनजर पार्टी नेतृत्व ने जिस धार्मिक विभाजन को हवा दी थी, उसके चलते 2014 के आम चुनाव में उसे बड़े पैमाने पर राजनीतिक लाभ हासिल हुआ था। सांप्रदायिक विभाजन के साथ-साथ जोरदार राष्ट्रवादी भावना के उभार ने 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनावों में इसकी सफलता में योगदान दिया था। उन चुनावों में जाट किसानों ने भाजपा के पक्ष में एकमत होकर मतदान किया था, जिसे इस क्षेत्र के मुसलमानों के साथ अपनी एकता को तोड़ते हुए, भाजपा के लिए अभूतपूर्व चुनावी जीत की स्क्रिप्ट लिखने में मदद की जिसने इसके हिंदुत्व के एजेंडे को और भी मजबूत करने का काम किया।

प्रत्येक चुनावी सफलता के बाद भाजपा ने उस एजेंडा को आक्रामक ढंग से आगे बढ़ाया जिसमें मुस्लिमों को बाहर रखने और उनकी आस्था, खानपान और यहां तक कि पहनावों की आदतों के आधार पर भी उन्हें शातिर और हिंसक तरीके से निशाना बनाया। कई मुसलमानों को गौ मांस के नाम पर पीट-पीटकर मार डाला गया और कई लोगों पर तथाकथित लव-जिहाद के नाम पर हमला किया गया, एक ऐसा विषय जिस पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने तो विभाजनकारी और विवादास्पद कानून तक बना दिया है।

जब केंद्र के द्वारा हितधारकों के साथ बिना किसी विचार-विमर्श के कृषि कानूनों को पारित करा दिया गया, तो इसने किसानों के एक व्यापक स्तर के आंदोलन को गति दे दी, जिसने सभी धर्मों को मानने वालों को एकजुट कर दिया। मुजफ्फरनगर में आयोजित किसान महापंचायत ने इस क्षेत्र के किसान समुदायों के बीच में एक बार फिर से एकजुटता की बहाली की बेहतरीन मिसाल को पेश किया। सभी धर्मों के सदस्यों ने राकेश टिकैत के अल्ला हू अकबर के नारे पर हर हर महादेव के नारे से जवाब दिया। सिखों ने वाहे गुरु (सच्चा गुरु या गुरु ग्रन्थ साहिब में एक ईश्वर) जबकि कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने “हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, आपस में सब बहिन-भाई” का नारा लगाया। धार्मिक बहुलवाद के इस प्रदर्शन ने, जो कि धर्मनिरपेक्षता के लिए सबसे अहम है, ने हिंदुत्व के एजेंडे के एकदम उलट राह चुनी है, जिसका आधार ही ध्रुवीकरण और विभाजन है। टिकैत सहित कई अन्य नेताओं ने अतीत में विभाजनकारी राजनीति के आगे घुटने टेकने की बात स्वीकार की और नफरत और हिंसा को परास्त करने का संकल्प लिया। टिकैत ने कहा, “वे बांटने की बात करते हैं; हम एक होने की बात करते हैं। भाजपा की राजनीति की कसौटी ही नफरत है।”

एकता के ऐसे प्रदर्शनों ने भाजपा के चुनावी किस्मत पर प्रतिकूल असर डाला है। इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने का फैसला क्यों किया, लेकिन तब तक पहले ही बहुत देर हो चुकी थी। किसानों की एकता में धार्मिक बहुलवाद और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बेहद शानदार रूपों में प्रकट हुई जिसने भाजपा की ध्रुवीकरण परियोजना को बुरी तरह से प्रभावित किया, आगामी चुनाव में उसकी जीत की संभावनाओं को धूमिल कर दिया है।

सामाजिक न्याय का एजेंडा

किसान आंदोलन के साथ-साथ अब सामाजिक न्याय के एजेंडे की जोरदार तरीके से बहाली का मुद्दा कहीं और से नहीं बल्कि भाजपा के कई विधायकों की तरफ से आ रहा है, जिसमें उत्तरप्रदेश सरकार के तीन मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी भी शामिल हैं। विख्यात नेताओं के रूप में, जिनका उत्तरप्रदेश के पिछड़े वर्गों के सदस्यों के बीच में अच्छे-खासे समर्थक हैं, वे उन पर अच्छा खासा प्रभाव रखते हैं। उन्होंने यह कहते हुए भाजपा और राज्य सरकार से इस्तीफ़ा दे दिया है कि भाजपा ने सामाजिक न्याय को सोशल इंजीनियरिंग के मातहत कर दिया है, जो कि कुछ और नहीं बल्कि तथाकथित सवर्ण जातियों को पिछड़ी जातियों और दलितों को हिंदुत्व की परियोजना को सफल बनाने के लिए आवश्यक संख्यात्मक बहुमत की आपूर्ति करने की इस परियोजना का ही एक दूसरा नाम है।

इन नेताओं ने यह भी कहा है कि राज्य सरकार ने अल्पसंख्यकों की कीमत पर अभिजात्य जातियों के सदस्यों को पदोन्नत किया है और उन्हें अलग-थलग और निशाने पर लिया जा रहा है। उत्तरप्रदेश सरकार ने ओबीसी और अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित आरक्षण को इस आधार पर लागू नहीं किया कि उन्हें इसके लिए कोई भी योग्य उम्मीदवार नहीं मिला जो गैर-अभिजात्य वर्गों से संबंधित हो। नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की अवहेलना से वंचित समूहों के सदस्यों के बीच में असंतोष फ़ैल गया, जिन्हें पहले से ही रोजगार की बेहद तंगी वाले परिदृश्य में नौकरियों से पूरी तरह से वंचित कर दिया गया था।

इसके साथ ही मुख्यमंत्री जिस ठाकुर जाति से आते हैं, उसके सदस्यों को कथित तौर पर प्राथमिकता दिए जाने की वजह से भी भीतर ही भीतर एक असंतोष की लहर है। राजनीतिक एवं प्रशासनिक मशीनरी के ठाकुरों के द्वारा महत्वपूर्ण पदों पर काबिज होने से यह धारणा बनी है कि इस समुदाय का उत्तर प्रदेश के समाज पर दबदबा है। इस भावना ने गैर-कुलीन जातियों के सदस्यों के बीच में इस भावना को प्रबल कर दिया है कि हिंदुत्व के द्वारा सत्ता पर काबिज होने के लिए उनके वोटों का इस्तेमाल किया जाता है, और फिर उनके अधिकारों और वाजिब हकों को भुला देता है। और इस प्रकार यह समझ बनती जा रही है कि हिंदुत्व की परियोजना न सिर्फ अल्पसंख्यकों को बल्कि पिछड़े और दलित वर्गों को भी हाशिये पर रख रही है।

ओबीसी समुदाय के छोटे एवं सीमांत किसानों को बढ़ते आवारा मवेशियों के कारण सबसे अधिक नुकसान झेलना पड़ रहा है, जो उनके खेतों में बेरोक-टोक घुसकर फसलों को चौपट कर रहे हैं। वे इस संकट के लिए सारा श्रेय योगी सरकार की हिंदुत्व से संचालित गौ रक्षा नीति को देते हैं। यह भी अजीब विडंबना है कि सत्तारूढ़ शासन के गौ रक्षा प्रयासों से यदि किसी को आर्थिक तौर पर नुकसान पहुंच रहा है तो वे ओबीसी हैं, जो खुद हिंदू हैं।

बेरोजगारी में तीव्र वृद्धि, रोजगार चाहने वालों की संख्या में तीव्र वृद्धि, असहनीय मूल्य वृद्धि, खाद्य सुरक्षा का अभाव और स्वास्थ्य सेवा में संकट की स्थिति उत्तरप्रदेश के सभी लोगों के लिए बेहद कष्टदायी हैं। किंतु पिछड़े वर्गों, वंचितों और गरीबों को इसके दुष्प्रभावों का सबसे अधिक सामना करना पड़ रहा है। उत्तरप्रदेश के लोगों के दिमाग में अभी भी कोविड-19 महामारी की घातक दूसरी लहर की यादें ताजा हैं जिसमें आम जन ऑक्सीजन, अस्पताल की सुविधा और दवा के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर थे, जो शायद ही किसी को उपलब्ध हो पा रही थी। नतीजा यह हुआ कि हजारों की संख्या में लोग बेमौत मारे गये। जो परिवार अंतिम संस्कार का खर्च उठा पाने की स्थिति में नहीं थे, वे अपने परिवार के मृतक सदस्यों को गंगा नदी में बहा देने के लिए विवश थे। लोगों की पीड़ा मौजूदा समय में सार्स-सीओवी-2 के ओमिक्रोन वैरिएंट से उभर रही तीसरी लहर से अभी भी लगातार बनी हुई है, जो वायरस कोविड-19 रोग का कारण बनता है। योगी शासन का महामारी के समय कुप्रबंधन के साथ साथ इसने राज्य के स्वास्थ्य, मानव एवं खाद्य सुरक्षा को ध्वस्त करके रख दिया और आम लोगों के कष्टों को बढ़ाया।

इसके अलावा, केंद्र और राज्य सरकार के मोदी शासन ने ओबीसी नेताओं की जातिगत जनगणना कराए जाने की मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया। ओबीसी वर्गों के बीच में इस अस्वीकृति का अच्छा असर नहीं पड़ा है, जो खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव की हालिया घोषणा में कहा गया है कि यदि उनकी पार्टी अगली सरकार बनाती है तो तीन महीने के भीतर उत्तर प्रदेश में जातिगत जनगणना के काम को शुरू कर दिया जायेगा, जो ओबीसी को उनके पाले में आकर्षित करने और भाजपा को नुकसान वाली स्थिति डाल देगा।

असल में वस्तुगत सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितयां पिछड़े वर्गों के लिए जीवन को दुष्कर बनाती जा रही हैं, जिसके चलते उन्होंने अपने प्रतिनिधियों को भाजपा और हिंदुत्व से अलग होने के लिए मजबूर कर दिया है। उन्हें अब अहसास हो रहा है कि हिंदुत्व की विचारधारा ने उनके अस्तित्व को ही संकट में ला कर खड़ा दिया है। यही वजह है कि जिन नेताओं ने भाजपा से नाता तोड़ा है उन्होंने यह घोषणा करनी शुरू कर दी है कि सत्तारूढ़ दल ने ओबीसी, दलितों और अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण सामाजिक न्याय के एजेंडे को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया है।

इसलिए, कृषि आंदोलन के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और धार्मिक बहुलवाद और ओबीसी नेताओं के सामाजिक न्याय के एजेंडा ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जिसमें भाजपा के लिए चुनावी राजनीति के उबड़- खाबड़ और लुढ़कने वाली राह से जूझना बेहद कठिन होता जा रहा है। भाजपा के नेताओं द्वारा जिस तीव्रता के साथ मुस्लिम विरोधी बयानों को बेहद आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाया जा रहा है वह उनके हालिया नुकसान पर उनकी बैचेनी को स्पष्ट तौर पर नुमाया करता है। यह उन्हें ओबीसी के उन बेशकीमती वोटों से महरूम कर सकता है, जो उसके हिंदुत्व परियोजना को बनाये रखने के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं।

आदित्यनाथ का यह फार्मूला कि यह चुनाव 80% बनाम 20% के बीच का है, एक प्रकार से डॉग-व्हिस्ल पॉलिटिक्स का एक रूप था जो लगातार हिंदू बनाम मुस्लिम की बहस को खड़ा करता है। जिन आंकड़ों का उन्होंने हवाला दिया वे राज्य की आबादी में दोनों समुदायों के सापेक्ष हिस्से के अनुरूप हैं। इस प्रकार के बयान उस हिंदुत्व की परियोजना की पुष्टि करते हैं जिसमें मुस्लिमों के बहिष्करण और सामाजिक न्याय को नकारना ही इसका अभिप्राय होता है। राम मनोहर लोहिया के जमाने में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (समसोपा) का नारा हुआ करता था, “समसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पाएं सौ में साठ”।

सामाजिक न्याय के पुनरुत्थान ने मंडल बनाम कमंडल की राजनीति की भी फिर से याद को ताजा कर दिया है, जिसमें सामाजिक न्याय ने धार्मिक राजनीति को पंद्रह वर्षों के लिए रोके रखा था। कमंडल ने सामाजिक न्याय की ताकतों को कमजोर करने और हिंदुत्व की राजनीति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ही प्रधानता ग्रहण की थी। नीचे से आने वाली समता और न्याय की मांगों की धार को कुंद करने के लिए भाजपा और इसके सहयोगियों के द्वारा अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण और काशी कॉरिडोर परियोजना को शुरू करने की बात जोर-शोर से की जा रही है। एक बार फिर से हिंदुत्व के नेताओं का उद्देश्य सामाजिक न्याय के मुद्दे को गुमनामी की खोह में धकेलने के लिए हिंदू पहचान पर जोर देने का है।

लैंगिक न्याय का मुद्दा

हाल ही में कांग्रेस पार्टी ने उत्तरप्रदेश की 40% विधानसभा सीटों पर महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का फैसला किया है। इसने निहायत ही पुरुष-प्रधान एवं पितृसत्तात्मक समाज में राजनीति को एक बेहद आवश्यक नया आयाम देने का काम किया है। इसने ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के 2019 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी बीजू जनता दल की 33% सीटों पर महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के फैसले की याद दिला दी है। कांग्रेस का यह फैसला महिला विरोधी हिंदुत्व के एजेंडे पर भी प्रतिकूल असर डालने वाला साबित हो सकता है। इस बात को ठीक ही कहा जाता है कि धर्मनिरपेक्षता का संघर्ष महिलाओं के अधिकारों का संघर्ष है। राजनीति में लैंगिक आयाम धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में है और हिंदुत्व को नकारता है।

इसे ध्यान में रखने की जरूरत है कि उत्तर प्रदेश में कई सालों के बाद सामाजिक न्याय की बात हो रही है। यदि अन्य कारकों के साथ इसे जोड़कर देखें तो यह न सिर्फ उम्मीद ही जगाता है बल्कि भाजपा के लिए अच्छी-खासी जमीन खोने की स्थितियों को भी पैदा कर सकता है। आगामी विधानसभा चुनाव ऐसे चौंका देने वाला परिणाम दे सकता है जो राष्ट्रीय राजनीति को निर्णायक तौर पर प्रभावित करने वाला साबित हो सकता है और ‘भारत की अवधारणा’ के पीछे सभी धर्मनिरपेक्ष ताकतों को प्रेरित कर सकता है। हिंदुत्व के उग्र मार्च की राह पर अवरोध लगाने का बड़ा श्रेय किसानों, पिछड़े वर्गों के सदस्यों और लैंगिक न्याय का प्रतिनिधित्व करने वाली ताकतों को जाता है।

लेखक भारत के पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के ओसडी और प्रेस सचिव रह चुके हैं। व्यक्त किये गए विचार निजी हैं।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Backward Class ‘Revolt’ in Uttar Pradesh has Roots in Lived Reality of Yogi Rule

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