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इस बजट की चुप्पियां और भी डरावनी हैं

इस तरह, जनता को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ती मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन, मोदी सरकार को तो इस सब को देखना और पहचानना तक मंज़ूर नहीं है। लेकिन, यह अपने आप में अनिष्टकारी है क्योंकि जब भुगतान संतुलन संभालना मुश्किल हो जाएगा, मोदी सरकार बचाव पैकेज की मांग लेकर, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का ही दरवाजा खटखटाने जा रही है।
Nirmala Sitharaman

हाल की याददाश्त में कोई भी बजट, अर्थव्यवस्था के इतने बुरे हालात के बीच पेश नहीं किया गया था। बेरोजगारी का मामला इतना बिगड़ा हुआ है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में रोजगार के लिए दंगे हो रहे हैं। संपत्ति और आय की असमानता के मामले में भारत की स्थिति दुनिया भर में सबसे बुरी हो चुकी है। महामारी और लॉकडाउन के चलते करोड़ों और लोगों को गरीबी की खाई में धकेला जा चुका है। और बेरोजगारी के शिखर छू रहे होने के बावजूद, मुद्रास्फीति बढ़ती ही जा रही है। इन हालात में फौरन ऐसी रणनीति की जरूरत है जो आर्थिक बहाली को उछाल दे और ऐसा करने के साथ ही गरीबों को राहत दे और मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने में मदद करे। 2022-23 के संघीय बजट को, ठीक ऐसी ही रणनीति प्रस्तुत करनी चाहिए थी। लेकिन, ऐसा करना तो दूर रहा, वह तो इस समस्या को पहचानने तक का संकेत नहीं देता है। बजट से पहले दिन, संसद में जो इकॉनमिक सर्वे पेश किया गया था, उसमें भारी आत्मतुष्टिï का प्रदर्शन किया गया था और बजट में उसे और आगे पहुंचा दिया गया है। 

2022-23 के लिए सरकार का कुल बजटित खर्च 39.45 लाख करोड़ रु0 रखा गया है, जो कि 2021-22 के संशोधित अनुमान से सिर्फ 4.6 फीसद ज्यादा बैठता है। इसका मतलब यह है कि इसमें रुपयों में बढ़ोतरी, मुद्रास्फीति की दर से भी कम है यानी वास्तविक मूल्य के लिहाज से तो कमी ही हो रही है। और इसलिए, यह बढ़ोतरी वास्तविक जीडीपी में इकॉनमिक सर्वे में आंकी गयी वृद्घि दर से भी, जो 8 से 8.5 फीसद तक आंकी गयी है, नीचे ही रहने जा रही है। इससे साफ है कि यह सरकार, यही नहीं मानती है कि उसके खर्चे की अर्थव्यवस्था को उत्प्रेरण देने में कोई भूमिका होगी। उल्टे उसका तो यही सोच लगता है कि सरकारी खर्चे का असर अर्थव्यवस्था को ठंडा करने का ही हो सकता है। बेशक, सरकार के पूंजी व्यय में 35 फीसद बढ़ोतरी का प्रस्ताव किया जा रहा है। लेकिन, सकल मांग की नजर से, समग्रता में खर्च का ही महत्व होता है न कि सिर्फ पूंजी खर्च का।

यह बजट अगर आर्थिक बहाली लाने के लिए, मांग को उत्पे्ररित करने के लिए कुछ भी नहीं करता है, तो यह मेहनतकश जनता को राहत देने के लिए भी कुछ भी नहीं करता है। गरीबों को राहत देने वाले अनेकानेक कार्यक्रमों के लिए आवंटनों को वास्तव में, 2021-22 के संशोधित अनुमानों के मुकाबले घटा ही दिया गया है। इस तरह, मगनरेगा के लिए सिर्फ 73,000 करोड़ रु0 का प्रावधान किया गया है, जबकि 2021-22 का संशोधित अनुमान 98,000 करोड़ रु0 का था और 2020-21 के लिए खर्चा 1,11,000 करोड़ रु0 का रहा था। बेशक, यह दलील दी जाएगी कि मगनरेगा तो एक मांग-संचालित कार्यक्रम है और इस कार्यक्रम के लिए फंड की मांग ज्यादा होगी तो इसके लिए और ज्यादा फंड उपलब्ध करा दिए जाएंगे। लेकिन, इस तरह से अतिरिक्त फंड जारी किए जाने में देरी से, इस कार्यक्रम के तहत मजदूरी के भुगतानों में देरी होगी और इस तरह, शुरूआती आवंटन का मांग के मुकाबले कम रखा जाना तो, इस कार्यक्रम के अंतर्गत काम की मांग ही घटाएगा क्योंकि मजदूरी के भुगतान में देरी होने से मजदूर इस योजना के अंतर्गत काम मांगने से ही हतोत्साहित हो रहे होंगे। इसी प्रकार, खाद्य सब्सीडी में 2021-22 के संशोधित अनुमान की तुलना में, 28 फीसद की कटौती कर दी गयी है। उर्वरक सब्सीडी में 25 फीसद की, पैट्रोलियम सब्सीडी में 11 फीसद की और अन्य सब्सीडियों में 31 फीसद की कटौती कर दी गयी है। दोपहर का भोजन योजना तथा पीएम-किसान कल्याण योजना के आवंटन करीब-करीब जस के तस बने रहे हैं, जिसका अर्थ है वास्तविक मूल्य में गिरावट होना।

यह और भी ज्यादा कष्टïकर है कि स्वास्थ्य व परिवार कल्याण के बजट को रुपयों में जहां का तहां बनाए रखा गया है और इस तरह वास्तविक मूल्य में घटा ही दिया गया और ऐसा किया गया है, महामारी के बीच में। सरकार ने स्वास्थ्य के लिए आवंटन बढ़ाकर जीडीपी के 3 फीसद के बराबर करने का जो वादा किया था, उसे पूरा करने के लिए इस पर आवंटन को उत्तरोत्तर बढ़ाने के बजाए, हम अनुमानित जीडीपी के अनुपात के रूप में बजट में स्वास्थ्य पर खर्च में कटौती ही देख रहे हैं। बेशक, शिक्षा के लिए आवंटन में 18.5 फीसद की बढ़ोतरी किए जाने की बात है, लेकिन इस बढ़ोतरी का ज्यादातर हिस्सा तो डिजिटल शिक्षा के लिए ही है। इसके अलावा, उक्त बढ़ोतरी के बावजूद शिक्षा पर खर्चा, जीडीपी के अनुपात के रूप में करीब 3.1 फीसद ही बैठेगा, जो इसे बढ़ाकर 6 फीसद करने के लक्ष्य से कोसों दूर है। केंद्र सरकार ने सामाजिक क्षेत्र पर खर्चों में तो भारी कटौतियां की ही हैं, उसने राज्यों के पक्ष में संसाधनों के वितरण को भी घटा दिया है। इस आवंटन में रुपयों में 9.6 फीसद की बढ़ोतरी की बात है, जिसका मतलब है जीडीपी अनुपात के रूप में इसमें कटौती होना। 2021-22 के संशोधित अनुमान में इसे 6.91 फीसद आंका गया था, जो अब 6.25 फीसद ही रह जाने का अनुमान है।

और यह सब इस बजट में मनमाने तरीके से किए गए प्रावधानों का ही मामला नहीं है। यह सब उस राजकोषीय रणनीति से निकला है, जो मोदी सरकार काफी समय से चला रही है। यह रणनीति है निजी निवेशों को उत्प्रेरित करने की उम्मीद में अमीरों को कर रियायतें देने की और इस तरह जो कर राजस्व छोड़ दिया जाए, उसकी भरपाई करने के लिए अप्रत्यक्ष करों में तथा खासतौर पर तेल पर करों में बढ़ोतरी करने की और अगर भरपाई के लिए इतना भी काफी नहीं हो तो सरकारी खर्चों में ही कटौतियां करने की। यह राजकोषीय रणनीति ही उस मुद्रास्फीतिकारी मंदी का मुख्य कारण है, जिसे हम आज देख रहे हैं। इस राजकोषीय रणनीति को पलटा जाएगा, तभी अर्थव्यवस्था अपने संकट से निकल पाएगी। लेकिन, मोदी सरकार तो इस विकृत रणनीति से आगे और कुछ देखने में ही असमर्थ है। यह इसके बावजूद है कि यह अब तक तो पूरी तरह से साफ हो ही चुका है कि इस तरह की कर रियायतों से उत्प्रेरित होने के बजाए, निजी निवेश तो इससे पैदा होने वाली मंदी के चलते वास्तव में पहले से भी सिकुड़ता ही है। चालू बजट तक में उक्त रणनीति को ही काम करते हुए देखा जा सकता है। अतिरिक्त उत्पाद शुल्क लगाने के जरिए, तेल की कीमतों में 2 रु0 प्रति लीटर की बढ़ोतरी कर दी गयी है (जो कि अनब्लैंडेड तेल पर लागू होगी, जिस श्रेणी में भारत का ज्यादातर तेल उपभोग आ जाता है)। यह तेल सब्सीडियों में इस बजट में की गयी कटौती के ऊपर से है, जो वैसे भी परोक्ष कर बढ़ाने के ही समान है।

इस औंधी रणनीति के दायरे में, न तो किसी आर्थिक बहाली के लिए गुंजाइश है और न ही जनता के लिए किसी राहत की। सरकार ज्यादा से ज्यादा इतना ही कर सकती है कि कुछ पैसा, अपने एक हाथ से निकाल कर दूसरे में रख दे और फिर गोदी मीडिया का सहारा लेकर इसका ढोल पिटवाए कि उसने कितनी उदारता दिखाई है। इस बजट में भी इस तरह की नुमाइशी टीम-टाम किए जाने की उम्मीद की जाती थी। लेकिन, हैरानी की बात यह है कि इस बजट में ऐसा नुमाइशी टीम-टाम भी नहीं किया गया है। इस बजट में आय कर की दरों में कोई बदलाव नहीं किया गया है। इसमें आयकर देने वाले मध्य वर्ग को कोई रियायतें नहीं दी गयी हैं। इसमें, मुद्रास्फीति की दर को नीचे लाने के लिए, अप्रत्यक्ष करों में कोई कटौतियां भी नहीं की गयी हैं। ऊपर से सामाजिक योजनाओं के खर्चों में एक के बाद एक कटौतियां और कर दी गयी हैं। और यह सब तक किया गया है जब अनेक राज्यों में विधानसभाई चुनाव होने ही वाले हैं। इस सरकार का ऐसा करने की जुर्रत करना, उसके इसके भरोसे को ही दिखाता है कि जनता को भले ही अभूतपूर्व बदहाली को झेलना पड़ रहा हो, वह सिर्फ सांप्रदायिक धु्रवीकरण ही बल पर, वोटों को अपनी ओर खींचने में कामयाब हो जाएगी।

यह बजट जनता की इस बदहाली का कोई उपचार करने की कोशिश तो नहीं ही करता है, सारे के सारे आसार इसी के हैं जिनता की यह बदहाली आगे-आगे और बढ़ जाने वाली है। ऐसा होने के कारण, खुद भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ भी लगे हुए हैं और विदेशी घटनाविकास के साथ भी जुड़े हुए हैं। इसके पीछे काम कर रहा मुख्य घरेलू कारक है, निजी उपभोग का बैठा हुआ रहना। वास्तविक मूल्य के लिहाज से यह उपभोग अब भी, 2019-20 के स्तर से नीचे ही बना हुआ है। इसका अर्थ यह है कि अगर उपभोक्ता मालों के क्षेत्र में उत्पादन क्षमता, 2019-20 के स्तर पर ही बनी रहे तब भी, उत्पादन क्षमता का पहले से ज्यादा बड़ा हिस्सा अनुपयोगी पड़ा रहेगा। लेकिन, सचाई यह है कि इन क्षेत्रों में स्थापित उत्पादन क्षमता में कुछ न कुछ बढ़ोतरी ही हुई है, जो कि 2019-20 से पहले दिए गए निवेश आर्डरों के इस दौरान पूरे होने का नतीजा है। इसका अर्थ यह है कि  ठाली पड़ी उत्पादन क्षमता का अनुपात और भी बढ़ जाने वाला है। इसका अर्थ यह है कि इस समय जो निवेश-संचालित बहाली दिखाई भी दे रही है, वह भी टिकी नहीं रह पाएगी। इसके चलते आर्थिक मंदी और बेरोजगारी, दोनों की ही स्थिति बद से बदतर ही होने जा रही है।

लेकिन, ऐसा ही मुद्रास्फीति के मामले में भी होने जा रहा है। यह अंतर्निहित रूप से बाहरी घटनाक्रमों के चलते होने जा रहा है। इन बाहरी कारकों का नतीजा यह होगा कि महंगाई पर अंकुश लगाने की कोशिश में, मंदी और बेरोजगारी का संकट और बढ़ाया ही जा रहा होगा। एक ओर तो अंतर्राष्टï्रीय बाजार में तेल के दाम बढ़ रहे हैं। इसके अलावा अमरीका में मुद्रास्फीति बढऩे के चलते, वहां पर ब्याज की दरें, काफी अर्से से लगभग शून्य के स्तर पर रोक कर रखे जाने के बाद, अब ऊपर उठनी शुरू हो रही हैं। याद रहे कि वहां जब ब्याज की दरें शून्य के करीब थीं, भारत जैसे देशों के लिए, अपने भुगतान संतुलन घाटों की भरपाई करने के लिए, वैश्विक वित्त के प्रवाह हासिल करना आसान बना रहा था। लेकिन, अब जबकि  अमरीका में तथा दूसरी जगहों पर ब्याज की दरें बढऩे जा रही हैं, हमारे लिए भुगतान संतुलन के घाटे की भरपाई करना मुश्किल हो जाएगा। इसके चलते, रुपए  के विदेशी विनिमय मूल्य में गिरावट आएगी और हमारे आयातों का रुपया मूल्य बढ़ जाएगा और इसमें तेल आयातों का रुपया मूल्य भी होगा, जबकि अंतर्राष्टï्रीय बाजार में तेल के दाम तो वैसे भी बढ़ रहे होंगे। आयात मूल्य में इस बढ़ोतरी को चूंकि जनता पर ही डाला जा रहा होगा, जोकि इस सरकार की रणनीति ही रही है, आने वाले दिनों में मुद्रास्फीति की दर और भी बढ़ जाने वाली है।

इस तरह, जनता को ज्यादा से ज्यादा बढ़ती मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन, मोदी सरकार को तो इस सब को देखना तथा पहचानना तक मंजूर नहीं है। लेकिन, यह अपने आप में अनिष्टïकर है क्योंकि जब भुगतान संतुलन संभालना मुश्किल हो जाएगा, मोदी सरकार बचाव पैकेज की मांग लेकर, अंतर्राष्टï्रीय मुद्रा कोष का ही दरवाजा खटखटाने जा रही है। और ऐसी नौबत आती है तो देश पर सरकारी खर्च में और ज्यादा कटौतियां थोप दी जाएंगी और भारत को, तीसरी दुनिया के अधिकांश कर्जदार देशों के ही दर्जे में डाल दिया जाएगा। हालांकि, नवउदारवाद ने हमारे देश में नीति-निर्धारण की स्वायत्तता को पहले ही खोखला कर दिया है क्योंकि पूरा जोर वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी का ‘भरोसा’ जीतने पर ही रहा था, अब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के शिकंजे में फंसना तो, ऐसी स्वायत्तता को पूरी तरह से ही खत्म कर देगा। ग्रीस इसका उदाहरण है कि अगर ऐसा हुआ तो उसका क्या मतलब होगा। बेशक, भारत अब तक इसी नौबत आने से बचा रहा है। लेकिन, इस मुकाम पर देश में ऐसी सरकार का होना, जिसे अर्थशास्त्र की कोई समझ ही नहीं है, हमें उसी रास्ते पर धकेलने का ही काम करेगा। इसलिए, इस बजट की चुप्पियां, जनता के लिए दुर्भाग्यपूर्ण तो हैं ही, इसके अलावा हमारे देश के लिए अनिष्टकारी भी हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

A Budget Whose Silences are Ominous

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