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पूर्वोत्तर भारत की गुफाओं में छिपा है भविष्य के सूखा संकट का हल

आज शोधकर्ता क़रीब 1,000 साल पुराने जलवायु डेटा का अध्ययन करने की कोशिश कर रहे हैं। पूर्वोत्तर भारत में स्थित गुफा से स्टैलेग्माइट्स में ऑक्सीजन आइसोटोप्स का विश्लेषण करके वैज्ञानिकों ने पाया कि स्पेलोथेम्स में छिपे वर्षा के प्रमाण सूखे और अकाल के कई लिखित तथ्यों से मेल खाते हैं।
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ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के मुताबिक़, 1627 से 1630 के बीच भारत में बहुत कम बारिश हुई थी, जिसके बाद महा-अकाल आया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के एक व्यापारी पीटर मडी ने अपने यात्रा वृतांत में भुखमरी, सामूहिक मृत्यु और यहां तक कि नरभक्षण के दर्दनाक दृश्यों का वर्णन किया है। 1600 के दशक की शुरुआत में ही सूखे और पानी की कमी की वजह से मुग़ल साम्राज्य को अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी छोड़ कर आगरा आना पड़ा था। गर्मियों में कमज़ोर मानसून के कारण 1790 के दशक में भी एक महा-अकाल आया था। हालांकि, आज शोधकर्ता क़रीब 1,000 साल पुराने जलवायु डेटा का अध्ययन करने की कोशिश कर रहे हैं। पूर्वोत्तर भारत में स्थित गुफा से स्टैलेग्माइट्स में ऑक्सीजन आइसोटोप्स का विश्लेषण करके, वैज्ञानिकों ने पाया कि स्पेलोथेम्स में छिपे वर्षा के प्रमाण सूखे और अकाल के कई लिखित तथ्यों से मेल खाते हैं। इस रिसर्च के परिणाम अमेरिका के नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज की कार्यवाही में प्रकाशित हुए थे। स्टडी के लेखकों में से एक और कैलिफ़ोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी, डोमिंगुएज़ हिल्स में अर्थ साइंस के प्रोफेसर आशीष सिन्हा ने कहा कि "प्रॉक्सी डेटा और ऐतिहासिक डेटा के बीच समानताएं देख कर मैं चकित था।"

भविष्य का आकलन

वर्ष 2022 किसानों के लिए बुरे स्वप्न की तरह रहा। बारिश में भारी कमी ने उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल और बिहार को बुरी तरह प्रभावित किया। सेंट्रल एजेंसी महालनोबिस नेशनल क्रॉप फोरकास्ट सेंटर के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश में 300 से अधिक ब्लॉक सूखे से प्रभावित हैं, जबकि 382 ब्लॉक सूखा प्रभावित हैं। इस सेंटर ने बताया है कि उत्तर प्रदेश के 31 ज़िलों के 70 से अधिक ब्लॉक सूखे जैसी स्थिति से प्रभावित हैं, जबकि 71 ब्लॉक सूखाग्रस्त हैं। इधर झारखंड में भी पिछले साल की तुलना में धान की बुआई में 55 प्रतिशत की कमी आई है। बिहार के 32 ज़िलों के 136 प्रखंड सूखा प्रभावित हैं, जबकि हाल ही में बिहार के 11 ज़िलों के कई ब्लॉक को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया है। इसी तरह, पश्चिम बंगाल में, 11 ज़िलों के 55 ब्लॉक प्रभावित हैं, जबकि 63 में सूखे की संभावना है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, इस साल उत्तर प्रदेश में 10 लाख हेक्टेयर से ज़्यादा धान की फ़सल सूख गई है।

अब सवाल यह उठता है कि इस तरह के भयंकर सूखे का आकलन क्यों नहीं किया जा सकता है? तो इसका जवाब एक रिसर्च में छिपा है। एक अंतरराष्ट्रीय शोध दल द्वारा किए गए एक नए अध्ययन से पता चलता है कि भारत कम से कम तीन वर्षों तक लगातार लंबे समय तक चलने वाले सूखे का सामना कर सकता है, जबकि पिछले 150 सालों के दौरान लंबे चलने वाले सूखे के मामले दुर्लभ रहे हैं। लेकिन इस रिसर्च को कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐतिहासिक साक्ष्य बताते है कि "प्री-इंस्ट्रूमेंट पीरियड” के दौरान लंबे समय तक चलने वाली सूखे की घटनाएं बार-बार देखी गई है। प्राचीन जलवायु का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक कहते हैं कि जलवायु परिवर्तनशीलता के स्त्रोत जैसे, कोरल, पराग, बर्फ के टुकड़े, पेड़ के छल्ले, झील तलछट आदि स्रोतों से मिलने वाले डेटा को हमलोग इकट्ठा करते हैं ताकि इंस्ट्रूमेंटल रिकॉर्डिंग शुरू होने से पहले जलवायु को समझ सकें।

गुफा में छिपा है रहस्य

शीआन जियाओतोंग यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर गायत्री काथयात के नेतृत्व में ऐसा ही एक अध्ययन अभी चल रहा है। यह स्टडी पूर्वोत्तर भारत में चेरापूंजी के पास चल रहा है। चेरापूंजी के मावमलुह गुफा में स्थित स्पेलोथेम्स में पाए जाने वाले ऑक्सीजन आइसोटोप का अध्ययन करके पिछले कई सौ सालों के दौरान ये भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून सूखे का पुनर्निर्माण किया गया। स्पेलोथेम्स ऐसे खनिज हैं, जो गुफाओं में एक जगह जमा होते है और फिर एक आकार ग्रहण कर लेते हैं। उनकी ऑक्सीजन आइसोटोपिक संरचना में हाई डेटिंग सटीकता पाई जाती है जो पिछली जलवायु के पुनर्निर्माण के लिए एक मुख्य स्त्रोत है। प्रोफेसर गायत्री काथयात कहती हैं, “हमारे डेटा से पता चलता है कि पिछले कई सौ सालों (मिलेनियम) के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में अक्सर लंबे समय तक सूखे पड़े हैं।“

प्रोफेसर गायत्री का मानना है कि यह सूखा "ऐतिहासिक रूप से लंबे चले सूखे, अकाल, सामूहिक मृत्यु की घटनाओं और क्षेत्र में भू-राजनीतिक परिवर्तनों के का कारण रहे हैं“ प्रोफेसर गायत्री की टीम का कहना है कि इस अध्ययन के निष्कर्ष संबंधित क्षेत्र के जल संसाधनों और ऐसी नीतियों का पुनर्मूल्यांकन करने में मदद कर सकते हैं जो लंबे समय तक बने रहने वाले सूखे की आशंका को ध्यान में रख कर नहीं बनाए जाते हैं। प्रोफेसर गायत्री कहती है कि हालांकि हमारा डेटा साल-दर-साल पूर्वानुमान में सुधार के लिए उपयुक्त नहीं है, लेकिन इसका उपयोग भविष्य में लंबे समय तक चलने वाले सूखे की संभावना के दीर्घकालिक अनुमान प्रदान करने के लिए किया जा सकता है।"
आईआईएस बेंगलुरु भी है सहमत

बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के डीवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट स्टडीज के वैज्ञानिक जयरामन श्रीनिवासन भी प्रोफेसर गायत्री के रिसर्च से सहमत है। जयरामन कहते हैं, "मैं मानता हूं कि बारिश को मापने के 150 साल का डेटा यह अनुमान लगाने के लिए पर्याप्त नहीं है कि भविष्य में भारतीय मानसून कैसे बदल सकता है।" उनका साफ कहना है कि 16 वीं से 19 वीं शताब्दी की अवधि में मेगाड्रॉट्स (महासूखा) को ऐतिहासिक रिकॉर्ड में दर्ज किया गया है और कुछ जलवायु मॉडल द्वारा इसका अनुकरण भी किया गया है। वैज्ञानिक जयरामन श्रीनिवासन के मुताबिक़, गुफाओं से मिलने वाले प्रॉक्सी डेटा बहुत उपयोगी होते हैं लेकिन वे स्थानीय क्षेत्र में वर्षा का संकेत देते हैं और पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं। पिछले 1,000 वर्षों में भारतीय मानसून में किस तरह से बदलाव आया है, इसका सही अंदाजा लगाने के लिए हमें और डेटा की ज़रूरत है।

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