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जब इबादत ही जुर्म बन जाए

कई देशों में ऐसे मामले बढ़ रहे हैं, जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा अपने खुदा की इबादत को भी जुर्म के तौर पर देखा जा रहा है।
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Image courtesy : The Telegraph

कुछ समय पहले  ईरान से आयी यह ख़बर सूर्खियों में थी, जिसमें वहां की दो महिलाओं-फरीबा दालिर और साकिन /मेहरी/बेहजाती -  को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरे में’ डालने के आरोप में मिली जेल की सज़ा का जिक्र था।

गौरतलब था कि न वह स्त्रियां किसी आतंकी गतिविधियों में मुब्तला थी और न ही उन्होंने देशद्रोह का कोई काम किया था, बस वह अपने तरीके से अपने खुदा को याद करना चाह रही थीं। ईसाई धर्म स्वीकार चुकी उन महिलाओं ने अपने घर में ही प्रार्थना का आयोजन किया था, जिसमें उनके कुछ करीबी शामिल हुए थे।
 
अपने आप को इस्लामिक गणतंत्र कहलाने वाले ईरान में, जहां इस्लाम राज्य का धर्म माना जाता है, जहां आबादी का 90 फीसदी से अधिक हिस्सा शिया है और जहां स्वधर्मत्याग की सज़ा मौत है, उनका यह कदम प्रशासन को नागवार गुजरा और उसने उन स्त्रियों पर यह कार्रवाई की।

वैसे लोगों को पूजा के अपने अधिकार से वंचित करने के मामले में, इबादत को ही जुर्म साबित करने में ईरान अकेला मुल्क नहीं कहा जा सकता। ऐसे मामले जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा अपने खुदा की इबादत की कोशिशों का ही अपराधीकरण किया जाए - कई देशों में बढ़ रहे है। इस सूची में सबसे अव्वल नाम है, भारत का जो अपने आप को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र घोषित करता है और दुनिया में अपनी बहुलता का गुणगान करता रहता है।

इस सिलसिले में सबसे ताज़ा प्रसंग जिला शाहजहांपुर का है, जहां पश्चिम बंगाल से अपने प्राइवेट बस में अजमेर यात्रा पर निकले अठारह लोगों के समूह को - जब उन्होंने सड़क पर नमाज अता करने की कोशिश की - तब न केवल हिन्दुत्ववादी उदंडों के हाथों प्रताडना झेलनी पड़ी बल्कि उन्हें पुलिस थाने ले जाया गया, उनसे उठक बैठक करवाया गया, लिखित माफी मंगवायी गयी। इस घटना की ख़बर तभी चल सकी जब इसे लेकर एक वीडियो वायरल हुआ जहां वह पीड़ित मुस्लिम कान पकड़े या उठक बैठक करते दिख रहे थे।

जाहिर है, प्रभारी पुलिस अधिकारी ने यह सोचने की जहमत उठायी कि उनका यह व्यवहार संविधान के अनुच्छेद 25 से कितना अनुकूल है, जिसके तहत ‘ज़मीर/अंतःकरण एवं पेशे की आज़ादी , धर्म विशेष पर व्यवहार तथा उसके प्रचार प्रसार की आज़ादी’ को सुनिश्चित किया गया है, बशर्ते इस आचरण से सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य पर असर न पडें’(Article 25. Freedom of conscience and free profession, practice and propagation of  religion (1) Subject to public order, morality and health and to the other provisions of this Part,  all persons are equally entitled to freedom of conscience and the right freely to profess, practise and propagate religion”)

और क्या सड़क किनारे नमाज़ अता करने से सार्वजनिक व्यवस्था पर, नैतिकता आदि पर कोई विपरीत असर पड़ा था क्या ? या उसने यह भी नहीं सोचा कि उसका यह व्यवहार क्या अलग-अलग समुदायों में भेदभाव नहीं करता क्योंकि अभी कुछ समय पहले ही कांवडयात्रा के दौरान पुलिस महकमे द्वारा विशेष इंतज़ाम किए गए थे, यहां तक कि पुलिस बल के वरिष्ठ अधिकारियो कांवड़ियों पर हेलीकाॅप्टर से फूल बरसाये थे।

शाहजहांपुर की घटना के चंद रोज पहले ही सूबा यूपी के जिला बरेली का एक प्रसंग सूर्खियों में था जहां जिला मुरादाबाद के दुल्हेपुर गांव में किसी चंद्रपाल सिंह की शिकायत पर उसके पड़ोसियों के घर पर छापा डाला गया था और वहां अपने मित्रा के घर में ही नमाज़ अता कर रहे 26 लोगों पर संगीन धाराओ मे मुकदमे दर्ज कराए गए थे। 24 अगस्त 2022 की घटना में पुलिस की तरफ से पहले कहा गया कि ‘‘बिना किसी पूर्वसूचना के लोग इकटठा हुए थे और इसके पहले भी उन्हें इस संबंध में चेताया गया था। इस प्रसंग को लेकर पुलिस एवं प्रशासन की इतनी आलोचना हुई कि उन्होंने इन सभी ‘अभियुक्तों’ का बाइज्जत बरी किया और अपनी तरफ से एक कमजोर सा स्पष्टीकरण पेश किया।

जुलाई माह में यू.पी पुलिस ने लखनउ में नए बने लुलू माॅल में अचिन्हित लोगों के खिलाफ - जिन्होंने कथित तौर पर वहां नमाज़ अता की थी - धारा 153 1 ( दो समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना), धारा 295 ए ( धार्मिक भावना जबरन भड़काने की कार्रवाई ) जैसी संगीन धाराओं मे मुकदमा दर्ज किया और बाद में कुछ गिरफ्तारियां भी कीं।

दरअसल ऐसी घटनाएं पूरे देश में आम होती जा रही है, जहां धार्मिक अल्पसंख्यक महज अपने इबादत करने के चलते दक्षिणपंथी उद्दंड समूहों और राज्य की पुलिस मशीनरी के साझा हमले का शिकार बन रहे है। विडम्बना ही है कि प्रबुद्ध कहे जाने वाले मध्यम वर्ग की तरफ से भी ऐसी घटनाओं के प्रति न विरोध जताया जाता है बल्कि अपने मौन से वह ऐसे तत्वों को शह ही देते रहते हैं

गौरतलब है कि अपने-अपने आराध्य के सामने इबादत करने पर  जिस संबंध में संविधान का अनुच्छेद 25 से लेकर अनुच्छेद 30 तक बहुत कुछ लिखा गया है और उनकी सुरक्षा की गयी है, लांछन लगाने या उस प्रसंग का अपराधीकरण करने का यह सिलसिला महज मुसलमानों के खिलाफ केन्द्रित नहीं है।’

सूबा यूपी से ही बाइबिल प्रार्थना समूहों को निशाना बना कर और गैरकानूनी धर्मांतरण के आरोप उन पर लगा कर की गयी कई कार्रवाई अख़बार में प्रकाशित होती रहती आयी है। मई माह में ‘आर्टिकल 14’ जैसी वेब पत्रिका ने इस संबंध में एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें ऐसे कई प्रसगों पर रौशनी डाली थी जिसके तहत बताया गया था कि किस तरह वहां पादरियों को ‘गैरकानूनी धर्मातरण’ के आरोपों में गिरफ्तार किया गया है। उनके पास से मौजूद बाइबिल और अन्य धार्मिक साहित्य को सबूत के तौर पर पेश किया जा रहा है।
 
भाजपा शासित अन्य राज्यों में भी धर्मांतरण कानून को सख्त करने के बहाने प्रार्थना में जुट ईसाई हमले का निशाना बने हैं। खुद सूबा कर्नाटक में भी यह सिलसिला लंबे समय से चलता रहा है। इस दौरान जगह-जगह प्रार्थना में जुटे ईसाइयों पर हमले किए गए।

दिसम्बर 2021 में पीयूसीएल कर्नाटक की तरफ से ऐसे संगठित हमलों की विधिवत जांच के बाद 75 पेज की रिपोर्ट भी जारी की गयी थी , जिसमें ऐसे 39 प्रसंगों का जिक्र था, जहां पीड़ित लोगों, पादरियों तथा ईसाई समुदाय के आम लोगों से बात की गयी थी। इस बात को स्पष्ट किया गया था कि ऐसी घटनाओं में आ रही तेजी ने पूरे अल्पसंख्यक समुदाय में डर और आतंक का निर्माण किया है।

पीड़ितों ने ईसाई धर्मोपदेशकों ने उस पैटर्न का बखूबी वर्णन किया कि किस तरह चर्च में आयोजित साप्ताहिक प्रार्थना के वक्त़ ही दक्षिणपंथी समूहों की तरफ से हमले होते हैं।  हमले शुरू होने के 10 -15 मिनट बाद ही पुलिस पहुँचती है और पीड़ितों की डराने-धमकाने की बात करती है, ताकि वह शिकायत आगे न बढ़ाए।

पीयूसीएल की तरफ से ऐसे मामलों को रोकने के लिए प्रस्तुत सिफारिशों मे एक अहम सिफारिश यह है कि आला अदालत ने ‘तहसीन पूनावाला बनाम भारत सरकार’ [AIR 2018 SC 3354]  के मामले में , जिनका फोकस झुंड की हिंसा और निशाना बना कर की गयी हत्याओं(mob violence and lynching) पर था, पुलिस को साफ निर्देश दिया था कि वह ऐसे मामलों मे बिना विलंब एफ आई आर दर्ज करा दे, इतना ही नहीं पीड़ितों के परिवारजनो की प्रताडना रोके और ऐसे मामलों को फास्ट टैक कोर्ट को सौंपा जाए ताकि अपराधियों पर जल्द से जल्द और सख्त कार्रवााई हो सके। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया था कि सरकार को चाहिए कि वह ऐसे हमलों को रोकने में असफल पुलिस अधिकारियों पर भी कार्रवाई करे तथा पीड़ितों को तत्काल मुआवजा राशि देने का प्रबंध करे।

संविधानसभा में जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता के मसले पर चर्चाएं चल रही थीं और फिर इसका विस्तार अंतःकरण की स्वतंत्राता आदि की दिशा में बढ़ रहा था और जब स्वाधीन भारत की संविधान सभा में धार्मिक अधिकारों के प्रावधानों को विस्तार से रखा जा रहा था, तब शायद वहा एकत्रित सम्मानित सदस्यों में से किसी के मन में यह खयाल नहीं आया होगा कि संविधान के लागू होने के 70 साल बाद यह मसला भी सूर्खियां बनेगा कि अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों को अपने तरीके से इबादत करने के रास्ते में खुद संविधान की कसम खायीं सरकारें बाधा बन कर खड़ी होगी।

बहरहाल, इन हमलों के बारे में अल्पसंख्यक समुदाय की इबादत को ही जुर्म साबित करने की इस कवायद को हम एक तरह से धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के राजनीतिक-सामाजिक हाशियेकरण की व्यापक प्रक्रिया के हिस्सा के तौर पर देखा जाना चाहिए। केन्द्र में आठ साल पहले सत्तासीन भाजपा शासन में ऐसी कोशिशें तेज हो चली हैं, जिसे कई स्तरों पर अंजाम दिया जा रहा है।
 
मौजूदा संसद में धार्मिक अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों का प्रतिशत आज़ादी के बाद सबसे न्यूनतम पर है। हम याद कर सकते हैं कि सत्ताधारी पार्टी ने जब 2019 के चुनाव हो रहे थे तब किसी एक मुसलमान को उन्होंने प्रत्याशी के तौर पर खड़ा करने की जरूरत भी नहीं समझी। इसी समझदारी का प्रतिबिम्बन कुछ माह पहले राज्यसभा के चुनावों के दौरान भी हुआ था, जब मुख्तार अब्ब्बास नकवी - जो भाजपा के बचेखुचे एकमात्रा मुस्लिम सदस्य थे - जब रिटायर हो रहे थे तब भाजपा के नेत्रत्व ने किसी हिन्दू को उनके स्थान पर टिकट दिया न कि किसी मुसलमान को।

क्या इसे भुला जा सकता है कि राजस्थान उच्च अदालत के प्रमुख न्यायाधीश के तौर पर सेवानिव्रत हुए न्यायमूर्ति निसार अहमद कुरैशी - जो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के भी बन सकते थे, उनके रास्ते में किस तरह की बाधाएं इसी हुकूमत द्वारा खड़ी की गयी ?

अल्पसंख्यकों के हाशियेकरण को सामाजिक -आर्थिक तौर पर भी बेहद सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया जा रहा है, जिसमें व्यापक समाज की निगाह में उन्हें ‘अन्य’ प्रमाणित करने की पूरी कोशिश होती है। इसके लिए चाहे ‘लव जिहाद’, ‘कोरोना जिहाद’ जैसे तमाम शिगूफे छोड़े जाते हैं, इतनाही नहीं उनका ‘आर्थिक बहिष्कार’ करने के भी समय समय पर आवाहन होते रहते हैं।

हिजाब विवाद को जिसके तहत मुस्लिम बच्चियों के हिजाब पहन कर स्कूल कालेज जाने पर प्रतिबंध लगाने का ऐलान कर्नाटक की भाजपा सरकार ने किया था, इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए ताकि मुसलमान लड़कियां किसी न किसी तरह से तालीम को हासिल न कर सकें।

ईसाई समुदाय के बारे में उनकी रणनीति थोड़ी अलग भी है, जहां वह उन्हें ‘प्रलोभन एवं दबाव डाल कर धर्मांतरण की साजिश में मुब्तला दिखाते हैं और उन पर हमले करते है।
 
वैसे यह समूचा सिलसिला स्वतंत्र, स्वाधीन, धर्मनिरपेक्ष एवं जनतांत्रिक भारत को हिन्दु राष्ट्र  में तब्दील करने की समूची परियोजना का हिस्सा है, जिसके बारे में पूरी स्पष्टता हमें संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर के विचारों में दिखती हैं कि किस तरह वह मुसलमानों, ईसाइयों एवं कम्युनिस्टों को किस तरह ‘आंतरिक दुश्मन’ के तौर पर देखते थे (  देखें, बंच आफ थाॅटस - विचार सुमन/) और कैसे वह ‘वी एण्ड अवर नेशनहुड डिफाइंड’ में साफ मानते हैं कि ‘अल्पसंख्यकों को हिन्दुओ की दया पर ही रहना पड़ेगा।’ वही विवादास्पद किताब जिसमें वह जर्मनों  द्वारा यहूदियों के नस्लीय शुद्धिकरण की तारीफ करते दिखते हैं।

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