विचार: नई पीढ़ी के ख़ुशहाल भविष्य के लिए सदिच्छा नहीं, ठोस नीतिगत विकल्प की ज़रूरत
मोदी जी के शासन के 8 साल वैसे तो सभी क्षेत्रों और समाज के सभी तबकों के लिये तबाही लाने वाले रहे हैं, पर छात्रों-युवाओं के लिए तो वे किसी दुःस्वप्न से कम नहीं साबित हुए हैं। शिक्षा और रोजगार तलाशती एक पूरी पीढ़ी का भविष्य आज दांव पर लग गया है। उनके शिक्षा, रोजगार, लोकतांत्रिक अधिकारों सब पर गाज गिरी है।
17 सितंबर को लगातार तीसरे साल मोदी जी के जन्मदिन को नौजवानों ने उनके द्वारा पैदा की गई असह्य बेरोजगारी से जोड़कर प्रतिवाद दर्ज कराया। छात्र-युवा संगठनों के आह्वान पर ट्विटर पर #बेरोजगारी दिवस टॉप ट्रेंड करता रहा और 10 लाख से अधिक बार रीट्वीट किया गया।
इस अवसर पर रोजगार आंदोलन का नेतृत्व कर रहे युवामंच ने रोजगार को संविधान में मौलिक अधिकार बनाने, हर परिवार के एक सदस्य को नौकरी, संविदा व्यवस्था खत्म करने और एक करोड़ रिक्त पड़े पदों को समयबद्ध ढंग से भरने तथा रोजगार मिलने तक बेरोजगारी भत्ता देने की मांग लोकप्रिय ढंग से उठाई।
बेरोजगार नौजवान-छात्र तो पहले से ही इसका दंश झेल रहे थे और लड़ रहे थे, अब पूरा देश मान रहा है कि आज यह सबसे बड़ा संकट बन गया है। NCRB के आंकड़ों के अनुसार रोज काम की तलाश करने वाले दिहाड़ी श्रमिकों तथा अनिश्चित भविष्य से जूझ रहे छात्रों की आत्महत्या के आंकड़ों में सर्वाधिक वॄद्धि दर्ज की गई है।
अगस्त में बेरोजगारी दर साल भर की रेकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई 8.3%, जुलाई में यह 6.8%थी। अगस्त के महीने में 20 लाख लोग बेरोजगार हो गए।
आज यह राष्ट्रीय राजनीतिक प्रश्न बनता जा रहा है। वामपंथी दलों की प्राथमिकता सूची में तो यह हमेशा ही ऊपर रहा है, अब विपक्ष का शायद ही कोई नेता हो जो रोजगार के सवाल को नजरअंदाज कर सके। 17 सितंबर को राहुल गाँधी ने भी, जिनकी सरकार के दौर को भी jobless ग्रोथ का दौर कहा गया था, नौजवानों के सुर में सुर मिलाया है। #राष्ट्रीय_बेरोजगार_दिवस टैग लाइन के साथ उन्होंने लिखा, " 8 चीते तो आ गए, अब ये बताइए, 8 सालों में 16 करोड़ रोज़गार क्यों नहीं आए? युवाओं की है ललकार, ले कर रहेंगे रोज़गार।"
नीतीश कुमार ने बिहार में महागठबंधन की बागडोर और देश में विपक्ष को एकजुट करने की कमान हाथ में लेते हुए अपने राज्य में 10 लाख ही नहीं 20 लाख नौकरियों का वायदा कर दिया।
मोदी जी ने भी मौके की नजाकत को भाँपते हुए अगले डेढ़ साल में केंद्र सरकार के खाली पड़े 10 लाख पदों को भरने का पिछले दिनों वायदा किया है। हालाँकि स्वयं उनके मंत्री के बयान के अनुसार पिछले 8 साल में उनकी सरकार ने 22 करोड़ प्रार्थियों में से महज 7 लाख को नौकरी दी है। स्वाभाविक है उनके अनगिनत वायदों को जुमला साबित होते देख चुके बेरोजगारों में अब शायद ही उनसे कोई उम्मीद बची हो।
दरअसल, नई पीढ़ी पर, छात्र-युवा समुदाय पर मोदी-राज में यह मार चौतरफा है। पूरी शिक्षा-व्यवस्था को चौपट किया जा रहा है। नई ' राष्ट्रीय शिक्षा नीति ' के माध्यम से, शिक्षा के पूरे ढांचे को केंद्रीकृत करके, आत्मनिर्भर बनाने के नाम पर उसे महंगा करके तथा निजीकरण की ओर धकेलकर, पाठ्यक्रमों का साम्प्रदायीकरण करके, अपने चहेते संदिग्ध अकादमिक गुणवत्ता के लोगों को संस्थानों के शीर्ष पदों पर बैठकर इन्हें रसातल में पहुंचाया जा रहा है।
इसके लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा, इलाहाबाद विश्वविद्यालय का जो उत्तर भारत के सर्वोत्कृष्ट शिक्षाकेंद्र, प्रतियोगी छात्रों के सबसे बड़े केंद्र तथा लोकतांत्रिक छात्र राजनीति के सबसे गौरवशाली केंद्रों में रहा है, जिसने देश को न सिर्फ अनेक बुद्धिजीवी, सांस्कृतिक व्यक्तित्व, न्यायविद, नौकरशाह दिये हैं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में विभिन्न धाराओं के अनेक राजनेता दिए हैं। उस विश्वविद्यालय की मौजूदा दुरवस्था, प्रशासन की निरंकुशता और चौतरफा व्याप्त अराजकता एक टेस्ट केस है। केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने के बावजूद वहाँ शैक्षणिक गुणवत्ता में भारी गिरावट आयी है, प्रतियोगी परीक्षाओं में इतनी सोचनीय स्थिति है कि आये दिन वहां से प्रतियोगी छात्र/ छात्राओं की खुदकशी की खबरें आती रहती हैं। हाल ही में वहां 400% की अकल्पनीय फीस बढ़ोत्तरी कर दी गयी है।
दरअसल सरकार की दिशा यह है कि शिक्षण संस्थानों को "आत्मनिर्भर" होना है अर्थात सारा बजट छात्रों की फीस से वसूला जाय। इसके भयावह परिणाम की कल्पना की जा सकती है। छात्र लगातार इसके खिलाफ आंदोलनरत हैं और सड़क पर उतर रहे हैं। उनके खिलाफ संगीन धाराओं में मुकदमे दर्ज किए गए हैं।
छात्रसंघ भंग कर दिया गया है। पिछले 25 महीने से उसकी बहाली के लिए छात्र लगातार आन्दोलन चला रहे हैं, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन/सरकार के कान पर जूं नहीं रेंग रही। यही हाल देश में तमाम छात्रसंघों का है।
पूरे देश में अकादमिक समुदाय के भारी विरोध के बावजूद विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए केंद्रीकृत CUET test व्यवस्था शुरू कर दी गयी है। इसका भयानक दुष्परिणाम यह होगा कि इंजीनियरिंग मेडिकल की तरह विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए भी कोचिंग संस्थाओं का जाल बिछ जाएगा, छात्र इनके दोहन के शिकार होंगे और निम्न आयवर्ग के छात्रों के लिए इंजीनियरिंग, मेडिकल की तरह विश्वविद्यालय के दरवाजे भी बंद हो जायेंगे। हालत यह है कि अक्टूबर आने वाला है, स्नातक प्रवेश के लिए अभी नतीजे आये हैं, कोई नहीं जानता स्नातकोत्तर कक्षाओं के लिए कब तक admission होंगे।
दरअसल यह पूरा एक पैकज है और एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। छात्रसंघ अगर रहा होता तो सरकार के इशारे पर विश्वविद्यालय प्रशासन इस तरह फीस बढोत्तरी की हिम्मत नहीं कर सकता था। 80 के दशक में इसी तरह इलाहाबाद में तत्कालीन कुलपति ने कुछ फीस बढ़ाई थी, लेकिन तब छात्रसंघ के नेतृत्व में ऐतिहासिक आंदोलन हुआ था, जिसमें शहर की तमाम लोकतांत्रिक ताकतें भी समर्थन में उतरी थीं। उस आंदोलन में अनेक छात्राएं भी जेल गयी थीं। 73-74 में गुजरात के इंजीनियरिंग कालेज की मेस में हुई फीस वृद्धि के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन ने बिहार तक पहुंचते पहुंचते राजनीतिक स्वरूप ग्रहण कर लिया था और अंततः सत्ता परिवर्तन का कारण बना। उस आंदोलन में पटना, BHU आदि छात्रसंघों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण थी।
छात्रसंघ के कारण शासन-प्रशासन को छात्रविरोधी कदम उठाने में सौ बार सोचना पड़ता था। नवउदारवादी अर्थनीति के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था को ढालने के लिए यह जरूरी था कि छात्रसंघ के मंच को खत्म किया जाए। इसी तरह रोजगार संकट के कारण आज जो विस्फ़ोटक स्थिति है उसे संभालने के लिए भी यह जरूरी था कि छात्रसंघ जैसे मंच न रहें।
इस प्रश्न पर तमाम सरकारों का रिकॉर्ड बेहद अलोकतांत्रिक रहा है। छात्र राजनीति को धनबल-बाहुबल का अखाड़ा बनाकर पहले उसे छात्रों और पूरे समाज में बदनाम किया गया और फिर अराजकता खत्म करने और सुधार के नाम पर लिंग्दोह कमेटी के माध्यम से dilute करते हुए धीरे-धीरे छात्रों की अभिव्यक्ति के लोकतांत्रिक मंच-छात्रसंघों- को ही खत्म कर दिया गया।भाजपा राज में छात्रों-युवाओं के तमाम आंदोलनों को बर्बर दमन का शिकार होना पड़ रहा है।
आज लाख टके का सवाल यही है कि नयी पीढ़ी के शिक्षा, रोजगार, लोकतांत्रिक अधिकारों पर जो तलवार लटक रही है, क्या उससे उन्हें मुक्ति मिलेगी ? संकटग्रस्त नवउदारवादी अर्थनीति का जो jobless growth का दौर है, क्या उसका अंत होगा ?
क्या विनाशकारी नई शिक्षानीति को पलटा जाएगा ? क्या कैम्पस लोकतन्त्र, संस्थानों की स्वायत्तता और अकादमिक स्वतंत्रता बहाल होगी ?
आज देश में अनेक यात्राएं, रैलियां, अभियान चल रहे हैं। क्या इस अमृत मंथन से 8 साल से बोए गए विष वृक्ष का नाश होगा और शिक्षा, रोजगार, लोकतन्त्र, जनता की बेहतरी और राष्ट्रनिर्माण का वैकल्पिक मॉडल उभरेगा? भाजपा की कोशिश है कि भारत नफरत के आधार पर बंटे ताकि जीवन के, राष्ट्र के मूलभूत सवाल न उठें। इसके बरख़िलाफ़ सभी देशभक्त, लोकतांत्रिक ताकतों का कर्तव्य है कि भारत एकजुट हो। लेकिन इसकी सार्थकता तभी है जब जीवन को बेहतर बनाने के लिए, देश को सुंदर बनाने के लिए सही सवाल उठें और उसके लिए महज सदिच्छा नहीं, ठोस नीतिगत विकल्प उभरे।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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