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विचार: मनुवादी नहीं संविधानवादी बनने की ज़रूरत

देश की राजधानी दिल्ली सहित देशभर में दलित उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ रही हैं। दलित प्रोफेसर को थप्पड़ मारना उस मनुवादी मानसकिता को दर्शाता है कि दलितों अपनी औकात में रहो।
विचार: मनुवादी नहीं संविधानवादी बनने की ज़रूरत
Image courtesy : Newslaundry

हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली में दलित उत्पीड़न की एक घटना हुई। दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज में एक दलित महिला एसोसिएट प्रोफेसर को सवर्ण महिला प्रोफेसर द्वारा सरेआम थप्पड़ मारने का आरोप है। दलित महिला प्रोफेसर का कसूर यह बताया जा रहा है कि उसने मीटिंग मिनट पर बिना पढ़े हस्ताक्षर नहीं किए थे। इससे पहले भी दलित प्रोफेसर और सवर्ण प्रोफेसर की कॉलेज में आंबेडकर का चित्र लगाने को लेकर झड़प हो चुकी थी। दलित महिला सिर्फ एसोसिएट प्रोफेसर ही नहीं बल्कि अपने विभाग की टीचर इंचार्ज भी हैं। दुखद है कि राजधानी के उच्च शिक्षा संस्थान में जब यह हाल है तो अन्य जगह के हालात की कल्पना की जा सकती है।

उपरोक्त घटना वर्चस्वशाली दबंग सवर्णों द्वारा दलितों को यही सन्देश देती है कि जो भी कहा जाए चुपचाप मानो, जहां भी हस्ताक्षर करने को कहा जाए कर दो, मुंह खोलोगे, नियम से चलने की बात कहोगे तो थप्पड़ खाओगे। क्या ये तानाशाही, जातिवादी, फासीवादी मानसिकता नहीं है? ये थप्पड़ सिर्फ एक दलित प्रोफेसर के ही नहीं बल्कि दलित अस्मिता के गाल पर भी लगा है।

देश की राजधानी दिल्ली सहित देशभर में दलित उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ रही हैं। दलित प्रोफेसर को थप्पड़ मारना  उस मनुवादी मानसकिता को दर्शाता है कि दलितों अपनी औकात में रहो। भले तुम पढ़-लिख गए हो पर अपनी औकात मत भूलो। ये थप्पड़ दलित प्रोफेसर के मनोबल को गिराने के लिए भी है। इससे यह सन्देश भी जाता है कि संविधान, नियम और अधिकारों की बात मत करो। कोई सवाल मत करो। अगर कोई सवाल करोगे या हमसे तर्क करोगे तो इसी तरह मुंह बंद कर दिया जाएगा।

कई कॉलेजों के दलित प्रोफेसरों ने, दलित संगठनो ने और अम्बेडकरवादी लेखक संघ तथा दलित लेखक संघ ने इसकी निंदा की और दबंग प्रोफेसर पर उचित दंडात्मक कानूनी कार्यवाही की मांग की है।

दलित उत्पीड़न की यह कोई अकेली घटना नहीं है। मध्य प्रदेश के छतरपुर के धामची गांव के दलित सरपंच हम्मू बंशकार को 15 अगस्त 2021 को झंडा फहराने की  सजा के तौर पर वहां के सचिव ने उनकी और उनके परिवार की पिटाई कर दी। यानी कि वर्चस्वशाली दबंग, दलित सरपंच को भी झंडा फहराने का हक़ नहीं देना चाहते। इसी प्रकार की घटना हरियाणा के भिवानी क्षेत्र की बीजेपी के दलित विधायक विशंभर सिंह बाल्मीकि के साथ 15 अगस्त 2021 को हुई। पंद्रह अगस्त कार्यक्रम के दौरान उनके लिए स्टेज पर कुर्सी नहीं रखी गई। यह उनकी उपेक्षा और अनादर था। इससे वे इतने आहत हुए कि कार्यक्रम छोड़ कर जाने लगे। उनके शब्द थे- “मैं आज भी गुलाम हूं। मुझे मंच पर कुर्सी पर बैठने नहीं दिया गया।” इस तरह के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं.

हाल ही में उत्तर प्रदेश के सार्वजनिक परिवहन में सफ़र के दौरान एक चर्चा सुनने को मिली जिसका उल्लेख प्रासंगिक है। कुछ सवर्णों की चिंता का विषय था कि –‘दलित अब हमारे हाथ से निकलते जा रहे हैं। अब वे हमारी गुलामी करने को राजी नहीं हैं। जिनके पुरखे हमारे पुरखों के जर-खरीद गुलाम थे उनकी आज की युवा पीढ़ी हमारी गुलामी करने को तैयार नहीं है। जिनके बाप-दादा हमारे सामने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं करते थे। वे हमसे सवाल-जवाब करने लगे हैं। अपनी जात और औकात भूल रहे हैं। इनका इलाज जरूरी है। सबसे पहले तो इन्हें शिक्षा से वंचित किया जाए। अंबेडकर से दूर कर धार्मिक कर्म-कांडो में फंसाया जाए। क्योंकि जब से ये अंबेडकर को जानने और मानने लगे हैं तब से हिन्दू धर्म से दूर होने लगे हैं। इन्हें फिर से धार्मिक और मानसिक गुलाम बनाया जाए...।”

कुछ लोग सरकारी नीतियों की भी आलोचना कर रहे थे कि –“सरकार ने इन दलितों को सर पे चढ़ा लिया है। इनको दिया जाने वाला आरक्षण तुरंत बंद किया जाना चाहिए। एससी/एसटी क़ानून को तुरंत ख़त्म किया  जाए। तब इनकी अक्ल ठिकाने आएगी। हवा में बहुत उड़ रहे हैं। इनके पर काटने की जरूरत है...।”

जाहिर है यह मनुवादी मानसिकता है। जमाना इक्कीसवीं सदी का है और इनकी सोच मनुस्मृति के जमाने की है।

कुछ शातिर मनुवादी मानसिकता वालों ने समय के साथ अपनी रणनीति बदल ली है। वे ऊपर से कुछ और होते हैं और अन्दर से कुछ और! आरएसएस के होसबोले तो आरक्षण का समर्थन करने लगे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी आरक्षण की वकालत कर रहे हैं। पर इनके निहितार्थ समझने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश में चुनाव निकट हैं। इसलिए वहां दलितों पिछड़ों को आरक्षण के समर्थन का लॉलीपॉप दिया जा रहा है। पर सब जानते हैं कि आरएसएस हिन्दू धर्म का कट्टर समर्थक है। और हिन्दू धर्म छूआछूत, भेदभाव  और ऊंच-नीच पर आधारित है। इनकी करनी और कथनी के फर्क को समझने की जरूरत है। सरकार एक तरफ आरक्षण का समर्थन करती है दूसरी ओर सरकारी उपक्रमों का निजीकरण करती जा रही है। जब सरकारी उद्धम ही नहीं बचेंगे तो आरक्षण का लाभ कैसे ले पायेंगे। निजी क्षेत्र में तो आरक्षण की व्यवस्था है नहीं। अगर आरएसएस दलितों की इतनी ही हितैषी है तो क्या वह दलितों के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण को लेकर मांग उठाएगी। इसके समर्थन में सड़क पर आएगी।

समय के साथ दलितों में कुछ प्रतिशत लोग जागरूक होने लगे हैं। उनमें चेतना आ रही है। वे अन्याय और अत्याचार को समझने लगे हैं। अब वे गूंगे नहीं हैं। बोलने लगे हैं। मुंह खोलने लगे हैं। तुम कितने लोगों के मुंह पर थप्पड़ मारकर उन्हें चुप कराओगे। दलित अब वे गुलाम हैं जिन्हें अपनी गुलामी का अहसास होने लगा है। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने भी कहा था कि जिस दिन गुलाम को उसके गुलाम होने का अहसास हो जाता है वह अपनी बेड़ियां तोड़ने लगता है। दलितों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ अब आवाजें उठने लगी हैं। दलित संगठित खड़े होने लगे हैं। मनुवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने लगे हैं। यानी अब अन्याय-अत्याचार और शोषण के खिलाफ आवाजें उठेंगी। विरोध होगा। और हो सकता है कि सवर्ण अत्याचारियों और अपराधियों को उनकी करतूतों की सजा भी मिले।

हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है। इस देश का एक संविधान है जिससे पूरी शासन व्यवस्था चलती है। संविधान में सभी नागरिकों के लिए समता, समानता, न्याय और बंधुत्व के मूल्य हैं। सभी नागरिकों के समान अधिकार हैं। सबको मानवीय गरिमा के साथ जीने का हक़ है।

जरा सोचिए, मनुवाद आपको कैसा इंसान बनाता है। यह आपको अत्याचारी, अन्यायी और अहंकारी बनाता है। आपको दम्भी, अक्खड़ और मिथ्याभिमानी बनाता है। आपको इंसान, इंसान में भेदभाव करना सिखाता है। दलितों और स्त्रियों का उत्पीड़न और शोषण करना सिखाता है। कुल मिलकर आपको अमानवीय बनाता है। बताइए, ऐसे मनुवाद पर कैसे गर्व किया जा सकता है। बाबा  साहेब ने 25 दिसम्बर 1927 में मनुस्मृति को अकारण नहीं जलाया था।

जब हम धर्म शब्द का उच्चारण करते हैं, इस शब्द में पवित्रता और मानव कल्याण की भावना ध्वनित होती है। पर जो धर्म एक इंसान को श्रेष्ठ और दूसरे को नीच बताए, वह धर्म कैसे हो सकता है। जो धर्म, जातियों की ऊंच-नीच पर आधारित हो, उसे धर्म कैसे कहा जा सकता है। यह दुनिया स्त्री और पुरुष दोनों से मिलकर बनी है। दोनों का बराबर का महत्व है। जो धर्म पुरुष को श्रेष्ठ और स्त्री को नीचा समझे क्या उसे धर्म कहा जा सकता है। जो धर्मग्रंथ स्त्री-पुरुष, इंसान-इंसान में भेदभाव करें, उन पर अत्याचार करने को प्रेरित करें, उन्हें धर्मग्रंथ भी कैसे कहा जा सकता है।

आज समय की मांग है कि हम इस तरह की मानसिकता का परित्याग करें और अपने अन्दर मानवीय मूल्यों का विकास करें। हमारे यहां ही “वसुधैव कुटुम्बकम” की बात कही जाती है। यानी पूरा विश्व एक परिवार है। जहां हम पूरे विश्व को परिवार समझते हैं फिर अपने ही परिवार पर अत्याचार कैसे कर सकते हैं। परिवार के प्रति तो प्रेम, सद्भाव और आदर-सम्मान की भावना होनी चाहिए। जब हम इंसानियत को, मानवता को तवज्जो देने लगते हैं। हर मानव की मानवीय गरिमा का आदर करने लगते हैं। उनके हित-कल्याण के कार्य करने लगते हैं। यही कर्म श्रेष्ठ धर्म  होता है। और ये सब मानवीय मूल्य हमारे संविधान में निहित हैं। इसलिए मनुवादी होने की बजाय संविधानवादी  होने में ही समझदारी है। निष्कर्ष आज के समय में मनुवादी मानसिकता को बदलना ही श्रेयस्कर है।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े है, लेख में निहित विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)

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