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विचार: विपक्षी एकता के प्रयासों में तीन दृष्टियां बड़ी बाधा

एक दृष्टि जो 1967 से पहले कांग्रेस के संदर्भ में थी और अब भाजपा के संदर्भ में व्याप्त हो गई है और वह है राजनीतिक नियतिवाद।
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फाइल फ़ोटो।

सन 2024 में भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए विपक्षी एकता के प्रयासों में तीन दृष्टियां बड़ी बाधा हैं। पहली दृष्टि है गैर-कांग्रेसवाद जो मर मर कर जिंदा हो जाती है। दूसरी दृष्टि है विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय अस्मिता के रूप में जीवित विपक्ष की अपने अस्तित्व को बचाए रखने की चिंता। तीसरी दृष्टि जो 1967 से पहले कांग्रेस के संदर्भ में थी और अब भाजपा के संदर्भ में व्याप्त हो गई है और वह है राजनीतिक नियतिवाद। यानी कोई कुछ भी कर ले नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चल रही भाजपा की मौजूदा चुनावी मशीन को रोका नहीं जा सकता।

अगर आज समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव यह कहते हैं कि उन्हें कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का निमंत्रण नहीं मिला और भाजपा व कांग्रेस एक जैसी पार्टियां हैं या बसपा प्रमुख मायावती कहती हैं कि वे यात्रा से सैद्धांतिक रूप से सहमत हैं लेकिन वे उसमें शामिल नहीं होंगी या फिर रालोद के अध्यक्ष जयंत चौधरी उस समय विदेश चले जाते हैं जब उनके क्षेत्र से भारत जोड़ो यात्रा गुजरती है, तो इन सारे राजनीतिक कार्यक्रमों के पीछे इन्हीं तीन दृष्टियों में से कोई एक या सभी दृष्टियां काम कर रही होती हैं।

विपक्ष को एकजुट करने में लगे नीतीश कुमार जैसे नेता अगर इन चीजों पर काम नहीं करेंगे तो विपक्षी एकता का सपना एक सपना ही रह जाएगा।

अगर बीसवीं सदी के नौवें दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का गठन गैर कांग्रेसवाद का चरम था तो उस सदी का आखिरी दशक गैर- कांग्रेसवाद से उबरने और गैर भाजपावाद की रचना करने का काल रहा। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को गैर- कांग्रेसवाद का चरम इसलिए कहा जा सकता है कि कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिए उनकी सरकार को एक ओर भाजपा समर्थन दे रही थी तो दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टियां। लेकिन कांग्रेस के प्रति अस्पृश्यता की राजनीति को स्वयं चंद्रशेखर ने तब खत्म कर दिया जब वे कांग्रेस के समर्थन से यह कहते हुए कि बोफोर्स की जांच कोई इंस्पेक्टर कर सकता है, प्रधानमंत्री बने। उससे पहले राजीव गांधी ने उनके जन्मदिन पर गुलदस्ता भेजकर कहा था कि यंग टर्क नेवर एजेज यानी युवा तुर्क कभी बूढ़ा नहीं होता। सन 1991 में कांग्रेस की सत्ता में वापसी स्थिरता लाने और सामाजिक विभाजन मिटाने के मुद्दे पर हुई थी और उसमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या ने सहानुभूति का तत्व जोड़ दिया था।

लेकिन उसके बाद पहले अटल बिहारी वाजपेयी जैसे समावेशी राजनेता का तेरह दिन की सरकार में बहुमत न जुटा पाना और फिर तेरह महीने वाली सरकार का महज एक वोट से गिरना यह बताता है कि तब गैर-भाजपावाद की राजनीति अपने उफान पर थी। हालांकि भाजपा ने उसे थामा और अयोध्या में राममंदिर, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता के मुद्दे को किनारे रखकर फिर गैर-कांग्रेसवाद को मजबूती प्रदान की और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में चार साल सरकार चलाई। इस बीच कभी एच डी देवगौड़ा तो कभी इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी के बाहरी सहयोग से जनता दल परिवार की जो सरकारें बनीं उसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भी सरकार में बड़े पदों पर शामिल हुए। यह स्थितियां बताती हैं गैर-भाजपावाद अपनी रफ्तार पकड़ रहा था क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा और संघ परिवार का प्रभाव और चुनौती बढ़ रही थी।

बाद में सन 2004 से 2014 तक डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चली यूपीए की सरकार इस बात का प्रमाण है कि गैर-कांग्रेसवाद एक अप्रासंगिक विचार हो रहा था और गैर-भाजपावाद भारतीय लोकतंत्र के लिए एक अनिवार्य रणनीति और विचार बनता जा रहा था। कम्युनिस्ट पार्टियों से लेकर क्षेत्रीय दलों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा उसे बढ़ावा देने में लगा था। हालांकि एटमी करार के मुद्दे पर वाममोर्चा का सरकार से अलग होना और डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में समाजवादी पार्टी का शामिल न होना उसकी जटिलता को भी व्यक्त करते हैं।

लेकिन गठबंधन धर्म की मजबूरियों और उदारीकरण पर नियंत्रण कायम न कर पाने के कारण जो भ्रष्टाचार और अनियमितताएं हुईं उसने कांग्रेस को फिर हाशिए पर ठेल दिया और न सिर्फ गैर-भाजपावाद ध्वस्त हुआ बल्कि हिंदुत्व ने अच्छे दिन और सबका साथ सबका विकास के नाम पर फिर गैर कांग्रेसवाद की पीठ पर सवारी करते हुए अपनी मजबूत सत्ता कायम की। गैर-कांग्रेसवाद को लोग लाख खारिज करें लेकिन सामाजिक और राजनीतिक हकीकत यही है कि उसी भावना के चलते भाजपा के ताकतवर नेता कांग्रेस मुक्त भारत कहने का साहस जुटा पाते हैं। वे कांग्रेस को परिवारवाद, भ्रष्टाचार और हिंदूविरोध से जोड़ देते हैं।

आज एक ओर कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण नेता राहुल गांधी नफरत के विरुद्ध प्रेम और भाईचारे का संदेश देते हुए गैर कांग्रेसवाद को अप्रासंगिक करने और गैर-भाजपावाद को विपक्ष का मुख्य मुद्दा बनाने के लिए 3500 किलोमीटर की भारत जोड़ो यात्रा कर रहे हैं तो दूसरी ओर एनडीए का साथ छोड़कर राजद के साथ आए साफ सुथरी छवि के नीतीश कुमार विपक्ष को जोड़ने में लगे हैं। लेकिन राहुल गांधी की इस यात्रा से महज तमिलनाडु में द्रमुक के नेता स्तालिन, महाराष्ट्र में शिवसेना के नेता आदित्य ठाकरे और एनसीपी की नेता सुप्रिया सुले ही उत्साहपूर्वक जुड़ सकीं। बाकी उनके साथ खड़े होने में न तो आम आदमी पार्टी के नेता केजरीवाल उत्साहित हैं और न ही समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव न ही तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी। जबकि यह एक यथार्थ है कि इन पार्टियों के साथ एकजुटता कायम हुए बिना किसी प्रभावशाली विपक्षी एकता की कल्पना करना कठिन है।

इन पार्टियों की ओर से कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी का सिद्धांत एक ओर उनकी अस्मिता को बचाता है तो दूसरी ओर सत्तारूढ़ भाजपा का घोर विरोधी होने का संदेश देने से रोकता है। इसी रणनीति पर चलते हुए कभी तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी अमित शाह और नरेंद्र मोदी से मिलते हुए दिखाई देती हैं तो कभी जनता दल (एस) के नेता देवगौड़ा तो कभी समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव और तो कभी आम आदमी पार्टी के नेता केजरीवाल अपनी अलग राह तलाशते हुए। हालांकि वे सब मौजूदा निजाम की एजेंसियों के या तो निशाने पर हैं या फिर आ चुके हैं। निश्चित तौर पर जिन राज्यों या इलाकों में चुनाव जीतने और सत्ता में आने की संभावना कम्युनिस्ट पार्टियों के पास है वहां वे भी कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी बनाए रखती हैं। इसीलिए केरल में लंबे समय तक चली भारत जोड़ो यात्रा पर कम्युनिस्ट पार्टी की आपत्तियां रही हैं। अगर यात्रा बंगाल से गुजरती तो उस पर तृणमूल कांग्रेस भी वैसी ही आपत्ति करती। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में जब यात्रा गई तो न तो उसे तेलंगाना राष्ट्र समिति का सहयोग मिला और न ही वाईएसआर कांग्रेस का। अगर वह उड़ीसा जाती तो नवीन पटनायक भी किनारा करते। इसलिए अखिलेश के बयान को भी क्षेत्रीय दलों की अपनी अस्मिता से जोड़कर देखना चाहिए।

लेकिन क्या अपने राज्यों से बाहर चुनाव लड़ लेने और वोटों के प्रतिशत के लिहाज से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पा लेने से इन पार्टियों को राष्ट्रीय विचार और संगठन से लैस मान लिया जाना चाहिए। इस बारे में राहुल गांधी का यह कथन उचित ही है कि सिर्फ कांग्रेस पार्टी ही ऐसी पार्टी है जिसके पास एक राष्ट्रीय दृष्टि है और जिसकी राष्ट्रीय उपस्थिति है। इसलिए विपक्ष को एकजुटता के साथ एक वैकल्पिक योजना की भी जरूरत है। राहुल गांधी की एक बात यहां महत्त्वपूर्ण है, ``मैं विपक्ष की इज्जत करता हूं उनके नेताओं को पसंद करता हूं लेकिन अगर आप समाजवादी पार्टी को देखें तो उसकी कोई राष्ट्रीय विचारधारा नहीं है। उसकी उत्तर प्रदेश में उपस्थिति है और वे इसलिए नहीं आएंगे(यात्रा में साथ) क्योंकि उन्हें उस जगह की रक्षा करनी है। लेकिन समाजवादी पार्टी का विचार केरल, कर्नाटक और बिहार में काम नहीं करेगा। इसलिए एक केंद्रीय विचारधारा और संगठन की आवश्यकता है जो सिर्फ कांग्रेस प्रदान कर सकती है।’’

लेकिन कांग्रेस यह विचारधारा और संगठन कैसे प्रदान कर सकती है इस बारे में गंभीरतापूर्वक विचार की आवश्यकता है। उसके लिए सिर्फ आत्मा से काम नहीं चलेगा बल्कि शरीर भी होना आवश्यक है। अगर राहुल गांधी अपनी यात्रा को एक संवाद बताते हैं तो उस संवाद को कई विचार मंचों पर ले जाने की जरूरत है। उस विचारधारा का एक पक्ष यह है कि कांग्रेस पार्टी को अगर अपने को पुनर्जीवित और अपनी नए सिरे से खोज करनी है तो उसे भारत की फिर से खोज करनी होगी। उस खोज का एक प्रयास उनकी भारत जोड़ो यात्रा है। लेकिन वह पूरी नहीं है। कांग्रेस को अपने को स्वाधीनता से पूर्व वाली स्थिति में ले जाना है। जहां हर तरह की विचारधारा को कांग्रेस अपने अनुकूल लगे। जाहिर सी बात है कि उस समय कांग्रेस में सरदार पटेल, केएम मुंशी, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे दक्षिणपंथी थे तो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की छतरी के नीचे आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी और ईएमएस नंबूदिरीपाद व श्रीपाद अमृत डांगे जैसे कम्युनिस्ट भी थे। क्या कांग्रेस अपने उस उदार और समावेशी ढांचे को बहाल कर सकेगी जो सभी तरह के बौद्धिकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक मंच बने? कांग्रेस का वही वैचारिक और सांगठनिक ढांचा वैकल्पिक भारत का खाका होगा और वही लोकतंत्र को कमजोर कर रही भाजपा को उत्तर होगा।

अगर कांग्रेस को वैसा करना है तो उसे आचार्य नरेंद्र देव जैसे मार्क्सवादी और नंबूदिरीपाद जैसे कम्युनिस्ट और डॉ. लोहिया व जेपी जैसे सोशलिस्टों से भी कुछ न कुछ ग्रहण करना होगा। उनके प्रति अपने पूर्वाग्रह को दरकिनार करना होगा। उन्हें कुछ न कुछ सरदार पटेल और मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय से भी लेना होगा और लोकमान्य तिलक को भी पूरी तरह भूलना नहीं होगा। कांग्रेस ने उन लोगों को दरकिनार करके ही अपने को संकुचित किया है। लेकिन यह काम सिर्फ कांग्रेस की पहल से नहीं चलेगा। इसमें समाजवादी पार्टी और जनता दल परिवार के दलों को भी आगे आना होगा। उन्हें नेहरू की उस कड़ी आलोचना को छोड़ना होगा जिसे डॉ. राम मनोहर लोहिया ने प्रस्तुत किया था और जिसके चलते समाजवादी पार्टियां संघ के करीब गईं। इसी के साथ कांग्रेस पार्टी को उदारीकरण की उस प्रक्रिया के बारे में भी सोचना होगा जिसे भारत में आरंभ करने का श्रेय और दोष उसी के कंधों पर जाता है। अगर इस प्रक्रिया ने भारत की अर्थव्यवस्था को दुनिया से जोड़ा और आर्थिक संकट से निकाला तो इसी प्रक्रिया ने बहुसंख्यकवाद और संकीर्णता को बढ़ावा भी दिया। उसके चलते भ्रष्टाचार का परिमाण बढ़ गया। आज अगर लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं पर संकट है तो उसकी जड़ में कहीं न कहीं उस प्रक्रिया का योगदान है।

लेकिन इन दो बातों के अलावा एक तीसरी बात ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। वह है राजनीतिक नियतिवाद। भाजपा की संगठित चुनावी मशीनरी और आक्रामक प्रचार शैली ने विपक्षी दलों को इस कदर भयभीत कर रखा है कि वे भारतीय लोकतंत्र को लेकर एक प्रकार के राजनीतिक नियतिवाद में फंस गए हैं। इसका यह अर्थ है कि चुनाव कोई भी लड़े पर जीतेगी भाजपा ही। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में और संघ परिवार के सहयोग से काम कर रही भाजपा को हराना संभव नहीं है। इसलिए वे अब सोचने लगे हैं कि जब भाजपा को हराना संभव नहीं है और उसी को सत्ता में आना है तो कांग्रेस के साथ गठबंधन करके क्यों उससे कड़ी दुश्मनी पाली जाए। अपनी क्षेत्रीय अस्मिता वाली और आर्थिक राजनीतिक विचार वाली वैकल्पिक दृष्टि को उसी के व्यापक खांचे में रखा जाए ताकि उनकी पार्टियों और सरकारों को केंद्रीय आर्थिक इमदाद देती रहे और उन पर केद्रीय एजेंसियों के माध्यम से कड़ी कार्रवाई न करे। यह राजनीतिक नियतिवाद लोकतंत्र के भविष्य और उसकी जीवंतता के लिए सबसे घातक सोच है। यह एक प्रकार का पराजयवाद और हताशा है जो हमारे बहुत सारे क्षेत्रीय दलों और उसके नेताओं में व्याप्त है। वह उन्हें नए किस्म से सोचने का मौका नहीं देती और न ही किसी नए मार्ग पर चलने का साहस देती है। यह सोच उनके क्षेत्रीय किलों को ज्यादा समय तक बचा नहीं सकती। अगर कांग्रेस पार्टी को संघीय ढांचे को बचाने के लिए क्षेत्रीय मानस को समझना होगा तो इन क्षेत्रीय दलों को राजनीतिक नियतिवाद से भी बाहर निकलना होगा। इन दलों को यह मानकर चलना होगा कि भाजपा के एकाधिकार को तोड़ा जा सकता है और उसे हराया जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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