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कोविड सिलसिले में दो हाई कोर्ट के तीन आदेशों पर सुप्रीम कोर्ट की सिलसिलेवार रोक

तत्कालीन सीजेआई, एसए बोबडे की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने प्रयागराज, लखनऊ, वाराणसी, कानपुर नगर और गोरखपुर में लॉकडाउन लगाने के इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी थी।
कोविड सिलसिले में दो हाई कोर्ट के तीन आदेशों पर सुप्रीम कोर्ट की सिलसिलेवार रोक

सुप्रीम कोर्ट की अवकाश पीठ ने पांच दिनों के भीतर कोविड-19 महामारी से संबंधित हाई कोर्ट के तीन आदेशों पर रोक लगा दी है। इन तीन में से दो फ़ैसले इलाहाबाद हाई कोर्ट और तीसरे राजस्थान हाई कोर्ट ने दिये थे।

इस सिलसिले में 20 अप्रैल की उस तारीख़ को भी याद किया जा सकता है, जब तत्कालीन सीजेआई, एसए बोबडे की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने प्रयागराज, लखनऊ, वाराणसी, कानपुर नगर और गोरखपुर में लॉकडाउन लगाने के इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी थी। उस पीठ ने हाई कोर्ट के आदेश पर अंतरिम रोक लगाने का कोई कारण नहीं बताया था। विडंबना यह है कि इसके कुछ ही दिनों बाद जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने सुझाव दिया था कि राज्य लोक कल्याण के हित में वायरस की दूसरी लहर को रोकने के लिए लॉकडाउन लगाने पर विचार करें। ग़ौरतलब है कि इस समय उत्तर प्रदेश में आंशिक लॉकडाउन लागू है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के "राम भरोसे" आदेश पर सुप्रीम कोर्ट की रोक

21 मई को जस्टिस विनीत सरन और बीआर गवई की सुप्रीम कोर्ट की अवकाश पीठ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी थी, जिसमें राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया था कि राज्य के प्रत्येक बी और सी ग्रेड शहर को कम से कम 20 एम्बुलेंस और हर गांव को गहन देखभाल सुविधाओं के साथ कम से कम दो एम्बुलेंस उपलब्ध कराये जायें। ।

हाईकोर्ट ने कहा था कि एक महीने के भीतर ये एंबुलेंस उपलब्ध करा दी जायें।

हाई कोर्ट ने राज्य को प्रत्येक बिस्तर पर ऑक्सीजन इकाई वाले सभी नर्सिंग होम की कार्यशीलता पर ग़ौर करने के लिए कहा, और 20 से ज़्यादा बेड वाले नर्सिंग होम में कम से कम 40 प्रतिशत बिस्तर गहन देखभाल यूनिट होनी चाहिए और निर्धारित 40 प्रतिशत के भीतर 25 प्रतिशत वेंटिलेटर वाले बेड और 25 प्रतिशत बेड हाई फ़्लो नेज़ल कैनुला वाले होने चाहिए। हाई कोर्ट ने आगे कहा था कि 40 प्रतिशत आरक्षित बेडों में से 50 प्रतिशत बेड बीआईपीएपी मशीनों से लैस हों, जिसे राज्य के सभी नर्सिंग होम और अस्पतालों के लिए अनिवार्य होना चाहिए।

हाईकोर्ट ने सरकार से यह भी पूछा था कि वह बड़े पैमाने पर वैक्सीन के उत्पादन की कोशिश क्यों नहीं कर रही है।

हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों और गांवों में चिकित्सा व्यवस्था भगवान भरोसे या 'राम भरोसे' है।

हाई कोर्ट की "राम भरोसा" वाली यह टिप्पणी तब आयी थी, जब ऐसा पाया गया था कि मेरठ के मेडिकल कॉलेज में भर्ती एक कोविड-19 रोगी के शव को किसी अज्ञात व्यक्ति के तौर पर चिह्नित किया गया था, शव को एक बैग में पैक कर दिया गया था और उसका निपटान कर दिया गया था।

इसके अलावा, हाई कोर्ट ने सरकार से दुनिया के किसी भी वैक्सीन निर्माता से फ़ॉर्मूला लेने और बड़ी चिकित्सा कंपनियों को वैक्सीन बनाने की आवश्यकता की व्यवाहारिकता की जांच-पड़ताल करने और उसके बाद उत्पादन शुरू करने के बाद के लिए भी कहा था।

उस आदेश से परेशान होकर यूपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था और तर्क दिया था कि हाई कोर्ट द्वारा जारी निर्देश को लागू कर पाना मुमकिन नहीं है। जस्टिस सरन और गवई की बेंच ने सॉलिसिटर जनरल से सहमति जतायी थी और हाईकोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी थी। हालांकि, इस स्थगन आदेश में इस बात का कारण नहीं बताया गया था कि हाई कोर्ट द्वारा जारी निर्देशों को लागू कर पाना आख़िर मुमकिन क्यों नहीं है।

दिलचस्प बात यह है कि राज्य के प्रत्येक बी और सी ग्रेड शहर को कम से कम 20 एम्बुलेंस और प्रत्येक गांव में गहन देखभाल सुविधाओं वाले कम से कम दो एम्बुलेंस मुहैया कराने को सुनिश्चित करने के लिए कहने के अलावा सॉलिसिटर जनरल ने तर्क दिया था कि उस आदेश का दूसरा भाग ‘निर्देशों का हिस्सा’ नहीं था। वे स्पष्ट रूप से ऐसे सुझाव थे, जिनमें हाई कोर्ट ने राज्य को इस पर ग़ौर करने के लिए कहा था।

"राम भरोसे" वाली टिप्पणी का उल्लेख करते हुए सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि इस टिप्पणी में नागरिकों के बीच दहशत पैदा होने और उन डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ़ की भावना को हतोत्साहित करने वाला असर है, जो दिन-रात काम कर रहे हैं, कोरोना मरीज़ों की बढ़ती संख्या का पूरा-पूरा ध्यान रखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सॉलिसिटर जनरल की दरख़्वास्त में उसे वज़न तो दिखता है, लेकिन वह उस संदर्भ को नोटिस नहीं कर पा रहा है, जिसमें इसे रखा गया है। हाई कोर्ट की "राम भरोसा" वाली टिप्पणी तब आयी थी, जब एक जांच के बाद पाया गया था कि मेरठ के मेडिकल कॉलेज में भर्ती एक कोवि-19 मरीज़ के शव को एक अज्ञात शख़्स के शव के तौर पर चिह्नित किया गया था, उस शव को एक बैग में पैक किया गया था, और उसका निपटान कर दिया गया था। ऐसे में वह टिप्पणी बेबुनियाद नहीं थी। यह टिप्पणी एक ऐसी वास्तविक भयावह घटना पर आधारित थी, जो यूपी के बड़े शहरों में से एक के मेडिकल कॉलेज में घटी थी। इसके बावजूद, हाई कोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी गयी और वरिष्ठ अधिवक्ता निधेश गुप्ता को एमिकस क्यूरी (जो आरोपी फ़ीस नहीं दे सकने की वजह से वकील नहीं कर पाते, उन्हें अदालत सरकारी ख़र्च पर वकील मुहैया करवाती है। ऐसे ही वकील को एमिकस क्यूरी कहा जाता है। इसके लिए राज्य सरकार से केस लड़ने की फ़ीस मिलती है। इसके अलावा किसी मामले में कोर्ट की सहायता के लिए भी अदालत एमिकस क्यूरी नियुक्त करती है) नियुक्त किया गया।

कोविड-19 के आधार पर अग्रिम ज़मानत दिये जाने के आदेश पर रोक 

उसी अवकाश पीठ ने 26 मई को इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक अन्य आदेश पर भी रोक लगा दी थी, जिसमें कहा गया था कि कोविड-19 महामारी के चलते होने वाली मौत की आशंका किसी आरोपी को अग्रिम ज़मानत देने का आधार है।

हालांकि, इस पीठ ने कथित जालसाज़ी, ठगी और धोखाधड़ी में शामिल आरोपी, प्रतीक जैन को विशेष रूप से दी गयी अग्रिम ज़मानत को रद्द करने से इनकार कर दिया था, लेकिन यह भी साफ़ कर दिया था कि अगर वह सुनवाई की अगली तारीख़ पर जैन पेश नहीं होते हैं, तो वह उनकी ज़मानत को रद्द करने पर विचार करेगी। 

सॉलिसिटर जनरल ने तब कहा था कि एक बड़ा मुद्दा दांव पर लगा हुआ है क्योंकि हाई कोर्ट द्वारा मौजूदा कोविड की स्थिति में ज़मानत देने के सिलसिले में विभिन्न निर्देश जारी किये गये हैं।

एक बार फिर अपने आदेश में बिना कारण बताये सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उन निर्देशों पर रोक लगा दी थी। शीर्ष अदालत ने कहा था कि वह "मौजूदा हालात के तथ्यों और परिस्थितियों की समग्रता को ध्यान में रखते हुए" यह आदेश जारी कर रही है। लेकिन, अपने आदेश में उन तथ्यों और परिस्थितियों का कोई ज़िक़्र नहीं किया था जिन पर अदालत ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी थी।

हाई कोर्ट के वह तर्कपूर्ण आदेश उस सुस्थापित न्यायशास्त्र पर आधारित था, जिसके मुताबिक़ संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत विचाराधीन क़ैदियों को जीवन का अधिकार हासिल है। यह सिद्दीक़ी कप्पन मामले में सुप्रीम कोर्ट के उस फ़ैसले पर आधारित था, जिसमें उसने कहा गया था कि बिना शर्त जीवन का मौलिक अधिकार एक विचाराधीन क़ैदी को भी हासिल है।

यह जेलों में भीड़ को कम करने के स्वत: संज्ञान वाले मामले में शीर्ष अदालत के फ़ैसले पर भी आधारित था।हाई कोर्ट ने पाया कि सरकार ने उन अभियुक्तों को कोई आश्वासन नहीं दिया था, जो जेल में थे और जिन्हें जेल भेजा जा सकता था या फिर जिन्हें कोरोनवायरस के संक्रमण से सुरक्षा प्रदान की जा सकती थी।

राजस्थान हाई कोर्ट के आदेश पर रोक

एक अन्य अपील में इस बार सरकार द्वारा नहीं, बल्कि उच्च न्यायालय द्वारा अपनी ही एकल पीठ के एक फ़ैसले के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय ने 25 मई को कोविड-19 की स्थिति के चलते अधिकतम तीन साल की क़ैद वाले अपराध वाले अभियुक्तों की गिरफ़्तारी से पुलिस को 17 जुलाई तक रोकने के हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी थी। इस बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश पर रोक लगाने का कोई कारण नहीं बताया।

हाई कोर्ट ने तब कहा था कि कोई व्यक्ति, जिसे गिरफ़्तार किया गया और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और उसके बाद जेल भेज दिया गया, अगर वह कोविड-19 संक्रमण का एक वाहक निकला, तो जेल के बाक़ी क़ैदी ख़तरे में पड़ जायेंगे।

हाई कोर्ट ने तब कहा था कि यह तथ्य मौजूद है कि संज्ञेय और ग़ैर-ज़मानती अपराधों में पुलिस को आरोपी को गिरफ़्तार करने का अधिकार है, लेकिन उन मामलों में ऐसा करना प्रतिकूल साबित होगा, जहां मौजूदा परिस्थितियों में क़ैद को तीन साल तक बढ़ा दिया गया हो और प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय हो। हाई कोर्ट ने यह भी कहा था कि लॉकडाउन को लागू करने में ज़्यादा अहम भूमिका निभाने रही पुलिस को 17 जुलाई, 2021 तक आरोपी और उसके जैसे अन्य लोगों को गिरफ़्तार नहीं करने का निर्देश दिया जा सकता है।

अधिकतम तीन साल की जेल की सज़ा वाले अपराधों के आरोपियों को गिरफ़्तार नहीं करने के अदालत के सुझाव से राजस्थान सरकार के वकील के सहमत होने के बाद उच्च न्यायालय ने यह आदेश पारित किया था। हैरानी का बात है कि हाई कोर्ट ने प्रशासनिक पक्ष पर उस आदेश के ख़िलाफ़ अपील करने का फ़ैसला किया था।

जहां हाई कोर्ट कोविड-19 के चलते पैदा हुए असाधारण परिस्थितियों को देखते हुए इस तरह के तर्कसंगत आदेश दे रहे हैं, वहीं सुप्रीम कोर्ट उन आदेशों पर एक झटके में रोक लगा दे रही है। इससे न सिर्फ़ न्यायाधीशों का मनोबल गिरेगा, बल्कि उन हाई कोर्ट के अधिकार भी कमज़ोर होंगे, जो कि ख़ुद भी संवैधानिक अदालत हैं।

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

(पारस नाथ सिंह दिल्ली स्थित वकील हैं। इनके विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Three Covid Orders by Two High Courts Stayed by SC in Quick Succession

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