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'गोदी मीडिया' के दौर में, 'गुड मीडिया' की है बड़ी जिम्मेदारी

’ब्रेकिंग न्यूज’ के मामले में विवेक का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, तब जब परिवार व्यक्तिगत नुकसान का सामना कर रहे हों और निस्संदेह एक ऐसे शासन में जो अपने सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है, जहां आवाज़ उठाने के खतरनाक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।
Godi Media

दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा के दौरान की गई मीडिया कवरेज, यहां तक कि कथित तौर पर 'गुड मीडिया' कहलाए जाने वाले मीडिया को भी कई पहलुओं में अनुपस्थित पाया गया है।

'कहानी के दो पहलू', ‘यह एक दंगा है', 'हिंसा दोनों ओर से हुई है', 'यहां तक कि प्रदर्शनकारी भी पथराव कर रहे थे' जैसे वाक्यांशों का इस्तेमाल सिर्फ 'गोदी मीडिया' ही नहीं बल्कि उस मीडिया द्वारा भी किया जा रहा है जो अपने आप को स्वतंत्र और उद्देश्यपूर्ण मीडिया मानते है।

पूर्वोत्तर दिल्ली में भीड़ द्वारा हिंसा, जिसकी शुरुआत 23 फरवरी से हुई थी, स्पष्ट रूप से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता कपिल मिश्रा द्वारा दिल्ली पुलिस को सार्वजनिक रूप से एक अल्टीमेटम देने के बाद शुरू हुई थी। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी वहां मौजूद थे और कहा कि अगर सीएए विरोधी प्रदर्शनकारी तीन दिनों के भीतर सड़कें साफ नहीं करते हैं तो वे खुद इस काम को अंजाम देंगे। पुलिस मुक खड़ी रही। सनद रहे कि दिल्ली पुलिस गृह मंत्री अमित शाह के अधीन आती है।

मिश्रा के दिए गए अल्टीमेटम के बाद ही घमासान शुरू हो गया और तीन दिनों में पूर्वोत्तर दिल्ली की सड़कें जैसे युद्ध क्षेत्र में बदल गईं, जिसमें अब तक लगभग 42 लोगों की जानें जा चुकी हैं। यदि आप इस हिंसा में मारे गए लोगों के नामों, जिन क्षेत्रों में यह हिंसा हुई, हिंसा के कारण, संपत्ति को नष्ट करने, घर जलाने पर गौर करें तो यह स्पष्ट है कि इस हिंसा का निशाना कौन थे।

कम से कम चार मस्जिदों के साथ तोड़फोड़ या आगजनी की गई। जबकि, इन क्षेत्रों के सभी मंदिर बरकरार हैं। और भारत में मंदिर जंगली मशरूम की तरह हैं, जो हर कोने में उग आए हैं, यहां तक कि मुस्लिम बहुल इलाकों में भी इनकी भरमार है। यह तथ्य दिल्ली हिंसा की वास्तविक कहानी बताता है।

हालांकि, इस हिंसा की कहानी के दो पक्षों को बताने के प्रयास में, मीडिया, विशेष रूप से 'गुड मीडिया', समानता की एक झूठी कहानी का निर्माण करने की कोशिश कर रहा है, जिससे न केवल वे प्रभावित लोगों के साथ अन्याय कर रहे हैं बल्कि अपने पेशे के साथ भी अन्याय कर रहे हैजिस पेशे का उद्देश्य ही सच्चाई बताना है।

मंदिरों की रक्षा करने वाले मुसलमानों की कहानियां अपने आप में दिल दहला देने वाली हैं, हिंदू मुसलमानों को सुरक्षित पनाहगाह मुहैया कराते हैं और उन्हें पीटने से बचाते हैं और साथ मिलकर राहत सामग्री इकट्ठा करते हैं और उसका वितरण करते हैं। सिख समुदाय ने हिंसा से प्रभावित लोगों के लिए गुरुद्वारों के दरवाजों को खोल दिया है, बड़े पैमाने पर राहत का काम किया जा रहा है और लोगों तक पहंचने की कोशिश की जा रही है। लेकिन, इस सब के बीच, हमें मीडिया द्वारा स्थापित की जाने वाली कहानी पर से नजर नहीं हटानी चाहिए।

बेशक, खास किस्म के मीडिया चैनल और समाचार पत्र उर्फ 'गोदी मीडिया' मुसलमानों की अगुवाई में हिंसा को पेश करने के अपने प्रसिद्ध एजेंडे का पालन कर रहे हैं, लेकिन जो चिंताजनक बात है वह यह कि कई 'गुड मीडिया' भी दोनों ओर से 'हिंसा' हुई बताकर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं', ऐसा करते वक़्त वे ‘संविधान में निहित' ‘जीवन के अधिकार' की आत्मरक्षा के मूल अधिकार को भूल जाते हैं।

नस्ल, धर्म या जाति-आधारित हिंसा के दौर में, भीड़ के अपराधियों के बीच और अपनी आत्मरक्षा करने वालों में एक बुनियादी फ़र्क होता है। दोनों स्थिति को एक तराजू में नहीं तोला जा सकता है। उन लोगों के बारे में मीडिया रिपोर्ट जिन्होंने बड़ी संख्या में बाहर से आई हिंसक भीड़ जिनके हाथों में बड़ी मात्रा में पेट्रोल बम, एसिड, रसायन, पत्थर और लाठी थे उसका मुक़ाबला करने के लिए पत्थर, कांच की बोतलें, या लाठी का इस्तेमाल किया है, एक समान नहीं हो सकती हैं। कुछ इलाकों के वीडियो भी कथित रूप से यह दिखा रहे हैं कि पुलिस या तो दंगाइयों के साथ खड़ी है या उनके समर्थन में खड़ी है, या फिर उन्हें रोकने का भी कोई प्रयास नहीं कर रही हैं।

स्पष्ट रूप से, एक खास समुदाय ने इस हिंसा के भयानक परिणाम को भुगता है क्योंकि सबसे अधिक मृतक और घायल इसी समुदाय से है।

जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार और लेखक उमैर अहमद ने एक ट्वीट में कहा कि, "कुछ लोग इसलिए परेशान हैं कि कुछ मुसलमान" शांतिपूर्वक ढंग से "खुद को मारे जाने की इजाजत नहीं दे रहे हैं, उनके घरों में आग लगा दी गई और उनके जीवन को खत्म कर दिया गया।"

और ‘गोदी मीडिया’ का अपना एक एजेंडा है और जिसका काम है मुसलमानों के खिलाफ हुई हिंसा को बयान करने से ध्यान हटाना और हिंसा के खिलाफ हुई कार्रवाही या दिल्ली और उसके नेताओं की निष्क्रियता, और मुसलमानों पर झूठी कहानियां सुनाकर पूरे मीडिया समुदाय को बदनाम करने की कोशिश करना।

इसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से शांतिपूर्ण सीएए-एनआरसी-एनपीआर प्रतिरोध आंदोलन को खारिज करना है, जिसमें मुस्लिम महिलाएं मुख्य भूमिका निभा रही हैं, जो देश भर में फैल गया हैं। दिल्ली में, पिछले दो महीनों से, इस तरह के सभी विरोध प्रदर्शन और धरने शांतिपूर्ण और संगठित ढंग से चल रहे हैं, और ये सब संविधान को कायम रखने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं।

हालांकि, काफी समय से हमारा ‘गुड मीडिया’ सीएए विरोध जारी रहना चाहिए या नहीं की कहानी को गढ़ रहा है, और इस प्रकार वह शांतिपूर्ण विरोध के अधिकार को हानि पहुंचा रहा है।

दिल्ली की हिंसा ने एक अन्य विकराल प्रवृत्ति को जन्म दिया है जिसने ‘गुड मीडिया’ की व्यक्तिगत मानवीय त्रासदी के प्रति बड़ी संवेदनशीलता को चिंता का विषय बना दिया है।

फैजान के मामले को ही लें तो बुधवार की रात 23-24 वर्षीय इस लड़के की मौत हो गई। ‘ब्रेकिंग न्यूज’ की दौड़ में, मीडिया को शोकाकुल परिवार के प्रति संवेदनशीलता और सांप्रदायिक माहौल में परिवार पर पड़ने वाले संभावित असर को नहीं भूलना चाहिए था।

फैजान एक वीडियो में दिखाए गए उन लड़कों में से एक है जिन्हें कुछ पुलिसकर्मी पीट रहे हैं और राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर करते नजर आ रहे हैं। कुछ मित्रों के साथ, मैं बुधवार दोपहर को दिल्ली के एलएनजेपी अस्पताल में फैजान और उनके परिवार से मिला। जो कुछ वहां हुआ था, उसके बारे में बात करने के लिए उनका परिवार घबरा रहा था।

उनके साथ कुछ घंटे बिताने के बाद, मैंने उन्हें अपना नंबर दिया और कहा कि अगर उन्हें किसी चीज की जरूरत है तो मुझे फोन पर संपर्क करें। उनके भाई ने उसी रात लगभग 9 बजे फोन किया और कहा कि उन्हें जांच के लिए ऊपर-नीचे भेजा जा रहा है। उन्होंने कहा कि अस्पताल से किसी किस्म का भी सहयोग नहीं मिल रहा है, जबकि फैजान बहुत तकलीफ में है और वह खड़ा भी नहीं हो पा रहा है।

यह महसूस करने के बाद कि वीडियो में फैजान उन व्यक्तियों में से एक था जिस मामले में अभी तक कोई प्राथमिकी भी दर्ज नहीं की गई है, और यह भी कि उसके परिवार को डर था क्योंकि वे चाहते थे कि उनके बेटे का शव मिले और वे उसे इज्जत से दफन कर दें। हमने महसूस किया कि परिवार को शव मिलने तक इस स्टोरी को रोका जाए।

पहले से ही भयभीत परिवार पर परेशानी बहुत अधिक थी। कथित तौर पर फैजान को सोमवार शाम को पुलिस ने उठाया, पीटा, फिर जीटीबी अस्पताल ले जाया गया, टांके लगाए गए, फिर पुलिस स्टेशन ले जाया गया, वहां 22 घंटे तक रखा गया, और फिर परिवार को सौंप दिया गया। परिजन उसे अगली सुबह बुधवार को अस्पताल ले गए, जहां देर रात उसकी मौत हो गई।

परिवार की स्थिति और उनके भय को जानने के बाद कम से कम 'गुड मीडिया' को 'ब्रेकिंग न्यूज' देने से पहले सब्र रखना चाहिए था, जब तक कि परिवार को शव न मिल जाए, या इन-कैमरा पोस्टमार्टम न हो जाए और एक प्राथमिकी दर्ज़ न कर ली जाए। हालांकि, ऐसा नहीं हुआ, और कई ‘गुड चैनलों' ने शुक्रवार शाम को ही इसे ‘ब्रेकिंग स्टोरी’ बता कर चला दिया।

तब से, फैजान के परिवार को मीडिया हाउसों ने परेशान और भयभीत किया हुआ है, मीडिया ने ऐसे हालत पैदा करने की कोशिश की कि यहां तक कि वे अपने बेटे को इज्जत से दफना भी न सकें। उन्हें पुलिस से खतरा महसूस हो रहा है और उन्हें डर है कि कहीं मृत फैजान को दंगाई या हिंसा का 'मास्टरमाइंड' करार न दे दिया जाए।

ये वास्तविक खतरे हैं जिनका सामना परिवारों द्वारा किया जा रहा है जो अभी तक हुए नुकसान से वे उबर भी नही पाए हैं।

एक ऐसे समय में जब हमारा समाज का सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकरण हो रहा है, उस ‘गोदी मीडिया’ का शुक्रिया जो सत्तारूढ़ बीजेपी के पक्षधर, विभाजनकारी और घृणित अभियान को आगे बढ़ा रहा है, इन हालत में ‘अच्छे, स्वतंत्र, उद्देश्यपूर्ण मीडिया की ज़िम्मेदारी बड़ी हो जाती है – ताकि जनता और देश के सामने सच लाया जा सके। ताकि वह अधिक संवेदनशील हो और 'ब्रेकिंग न्यूज' के जाल में नहीं पड़े, खासकर तब जब एक मानवीय त्रासदी सामने हो और हिंसा से प्रभावित परिवार गहरे संकट का सामना कर रहे हों।

लेखक विभिन्न सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। व्यक्त विचार निजी हैं। लेखक से ट्विटर @fightanand पर संपर्क किया जा सकता है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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