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तिरछी नज़र: आख़िर विश्व कप में हमारी क्रिकेट टीम क्यों हारी

"अरे भई, हमारा तो दैनिक है। हफ़्ते भर पुरानी ख़बर पर लिखोगे तो कैसे चलेगा। वैसे तुम नया क्या लिखने जा रहे हो, हार के कारणों पर?”
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प्रतीकात्मक तस्वीर। कार्टून सतीश आचार्य के X हैंडल से साभार

इस बार तो संपादक महोदय का फोन आ ही गया। बोले, " यह क्या डाक्टर साहब, इस बार भी आपने अपना व्यंग्य नहीं भेजा। तबीयत तो ठीक है ना"।  मैंने कहा, "तबीयत खराब हो दुश्मनों की। अपनी तबीयत तो ठीक है"। फिर जरा सम्हल कर बोला, "दुश्मनों की तबीयत भी क्यों खराब हो, तबीयत तो सभी की ठीक रहनी चाहिए"।

"पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ था कि आप कोई भी नागा करें पर अब ऐसा क्या हो गया है कि जब मर्जी गोली मार जाते हैं। इस बार भी लिखा है या नहीं"? उधर से प्रश्न उठा।

"लिखा है, इस बार लिखा है। भारत के एक दिवसीय क्रिकेट विश्व कप में हारने पर लिखा है। उसके कारणों पर लिखा है"। मैंने भी जवाब दागा।

"अरे भई, हमारा तो दैनिक है। हफ्ते भर पुरानी खबर पर लिखोगे तो कैसे चलेगा। वैसे तुम नया क्या लिखने जा रहे हो, हार के कारणों पर? यहीं ना, कि टॉस हार गए तो मैच हार गए। वह तो हम सोमवार को ही लिख चुके"। संपादक महोदय ने जवाब दिया।

नहीं भई, नहीं," मैंने कहा, "अरे भई, अगर टॉस से ही गेम डिसाइड होता है तो बस टॉस कर लो और ट्रॉफी दे दो। क्यों पचास पचास ओवर तक खिलाड़ियों को खिलाते हो। एक लाख लोगों का स्टेडियम में छह आठ घंटे बर्बाद करवाते हो और करोड़ों का टीवी के सामने। और सरकार जी, जो अट्ठारह अट्ठारह घंटे काम करते हैं, देश में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी बढ़ाते हैं, उनका भी इतना समय खराब करवाते हो। वजह टॉस वॉस नहीं, असली वजह तो कुछ और ही है"।

"तो फिर तुम पिच को असली वजह बताओगे। कहोगे कि जब भारत बैटिंग कर रहा था तो पिच बॉलर को सपोर्ट करने लगी और जब आस्ट्रेलिया बैटिंग करने उतरी तो वही पिच बैटसमैन को सपोर्ट करने लगी। यहीं लिखोगे, बस जरा व्यंग्यात्मक लहजे में लिख दोगे"। संपादक महोदय हंसने लगे।

"नहीं, नहीं। यह भी नहीं, कुछ और ही कारण था भारत का फाइनल में हारने का", मैंने कहा। 

"तो फिर क्या तुम पनौती जैसा कुछ लिखने जा रहे हो? हमारा न्यूज़ पोर्टल इस तरह की बातों को नहीं मानता है। हम सिर्फ वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देते हैं। यह किसी को पनौती वनौती मानना निहायत ही दकियानूसी है, अवैज्ञानिक है। अगर ऐसा कुछ लिखना है तो लिखो ही मत।‌ हम छापेंगे ही नहीं"।

"अरे नहीं। मैं खुद भी इसको नहीं मानता। किसी को नसीब वाला मानना और दूसरे को बदनसीब, किसी को मनहूस या पनौती बता देना, ये सब समझदारों का काम नहीं है। भारत की टीम के हारने का तो कुछ और ही कारण था"।

"तो फिर बताओ जी, भारत के इतने सारे मैच जीतने के बाद हार जाने का क्या कारण था? तुम क्या नई गोटी खोज कर लाए हो"?

"हां! अब बताता हूं। तुम खुद बताओ", मैंने बात जारी रखी, "तुम संपादक हो। अगर कोई संवाददाता, कोई पत्रकार एक अच्छी सी, एक्सक्ल्यूसिव स्टोरी करे तो तुम क्रेडिट उस संवाददाता को, पत्रकार को दोगे या खुद ले लोगे। उसकी पीठ थपथपाओगे या फिर अपनी पीठ थपथपाओगे"?

"उसी की पीठ थपथपाएंगे। अपनी थपथपाने लगे तो उस पत्रकार ने आगे ढंग से काम कर लिया। वह तो बस काम की खानापूर्ति करेगा, अपनी तनख़ा से मतलब रखेगा"। 

"और अगर कोई बच्चा अपनी कक्षा में, अपने स्कूल में प्रथम आए और उसका श्रेय उसको, उसके शिक्षक-कोच को, उसके परिवार को देने के बजाय मोहल्ले का प्रधान लेने लगे तो बच्चे को कैसा महसूस होगा। क्या वह बच्चा आगे कभी मन‌ लगा कर कभी पढ़ेगा। बस इसीलिए हारी भारतीय टीम"। 

"देश में‌ यही तो हो रहा है। सैनिक बहादुरी दिखाएं, शहीद हो जाएं और कोई 'एक' अपनी पीठ थपथपाए। चुनाव हों तो उनके शवों के जलूस निकाले जाएं। उनके शवों को हवाई जहाज दिया जाए। लेकिन जीवित सैनिकों को हवाई जहाज न देने के प्रश्न पर चुप्पी साध ली जाए"। 

"चंद्रयान, मंगलयान की उपलब्धि वैज्ञानिकों से छीन कर उस 'एक' के नाम कर दी जाए। उस पर वोट मांगे जाएं। और अगर कोई अभियान असफल हो जाए तो उसका ठीकरा वैज्ञानिकों पर फोड़ दिया जाए। तब वह एक नहीं रोएगा, रोएंगे वैज्ञानिक ही। और वह 'एक' तो बस मुस्कुराते हुए, फोटो खिंचवाते हुए, अपना कंधा मुहैया करवाएगा"।

"क्रिकेटरों को पहलवानों की कहानी भी याद थी। जब वे पदक जीत कर आए, तो कैसे उनको अपने घर बुलाया। फोटुएं खिंचवाईं, रील बनवाईं, टीवी पर दिखाईं। और जब उन पर मुसीबत आई तो कैसे कन्नी काट ली। पुलिस से लाठी चलवाई। सब याद था क्रिकेटरों को"।

"तो क्रिकेट के खिलाड़ियों ने सोच लिया, अपने को प्रूव तो करना है पर चैंम्पियन नहीं बनना है। इतना अच्छा खेल दिखाना है कि चैंम्पियन न भी बनें तो कोई किसी को ट्रोल न कर सके। किसी की दूध पीती बच्ची के बलात्कार की बात न कर सके। किसी की देशभक्ति पर प्रश्न न‌ उठा सके। तो वे हमारे, पहले दस मैच जीते, एकतरफा जीते। टॉस हारे तो भी जीते। पिच जैसी भी मिली हो, उस पर जीते।दर्शक दीर्घा में कोई भी बैठा हो तो भी जीते"। 

"पर अन्तिम मैच में हारे। फाइनल में हारे। मैच फिक्सिंग के कारण नहीं हारे और न ही किसी सट्टा बाजार की वजह से हारे। बस इसलिए हारे क्योंकि अभी तक की सारी जीतों का श्रेय उन्हें, खिलाड़ियों को मिला है, पूरी टीम को मिला है। पर यह फाइनल जीत जाते तो, चैंपियन बन जाते तो वह 'एक' सारा श्रेय लूट लेता। चुनाव में खिलाड़ियों की जीत को भुनाता। बस खिलाड़ी यही नहीं चाहते थे। दस मैच जीतने तक सारा श्रेय, सारा यश खिलाड़ियों का था पर ग्यारहवां मैच जीतते ही सारा यश वह 'एक' ले लेता। बस खिलाड़ी इसीलिए फाइनल मैच नहीं जीते"।

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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