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तिरछी नज़र: बेशर्म होते रंग और नव वर्ष की शुभकामनाएं

नया वर्ष छुट्टी के दिन ही शुरू हो रहा है और छुट्टी के दिन ही समाप्त होगा। वैसे सरकार जी की कृपा से बहुत सारे लोगों के लिए पूरा वर्ष रविवार ही रविवार है, छुट्टी ही छुट्टी है। सरकार जी ने लोगों को छुट्टी का सुख देने के लिए ही बेरोज़गारी उच्चतम स्तर पर पहुंचाई हुई है।
New year

सभी मित्रों को, फेसबुक फ्रेंड्स को और न्यूज़क्लिक के सभी पाठकों को नववर्ष की शुभकामनाएं। आप सभी का नया वर्ष मंगलमय बीते। आप ऐसी परिस्थितियों में भी स्वस्थ रहें, यही शुभकामना है।

नया वर्ष रविवार को शुरू हो रहा है और रविवार को ही समाप्त होगा। एक जनवरी 2023 को भी रविवार है और 31 दिसंबर 2023 को भी। मतलब वर्ष छुट्टी के दिन ही शुरू होगा और छुट्टी के दिन ही समाप्त होगा। वैसे सरकार जी की कृपा से बहुत सारे लोगों के लिए पूरा वर्ष रविवार ही रविवार है, छुट्टी ही छुट्टी है। सरकार जी ने लोगों को छुट्टी का सुख देने के लिए ही बेरोजगारी उच्चतम स्तर पर पहुंचाई हुई है। उम्मीद की किरण तो अब 2024 में ही नजर आती है जब नया वर्ष सोमवार से शुरू होगा और मंगलवार को समाप्त होगा।

पिछला वर्ष, 2022 ठीक ही बीता है। सरकार जी ने अहसान किया कि पेट्रोल और रसोई गैस की कीमतें इतनी नहीं बढ़ाई जितनी वे बढ़ा सकते थे। दूध के दाम भी पूरे वर्ष में सिर्फ चार-पांच बार ही बढ़े। और अधिक बार भी बढ़ सकते थे, पर नहीं बढ़े। यह अच्छा ही हुआ। पकाने के तेल के दाम, अनाज और दालों के दाम भी बढ़ते घटते रहे। वे बढ़े अधिक और घटे कम और इसलिए गरीबों की पहुंच से बाहर ही रहे। सरकार जी की समझ को समझें तो यह अच्छा ही हुआ।

सरकार जी गरीबों की पहुंच अन्न इत्यादि के नजदीक न पहुंच पाने के कारण अपना फोटो लगा झोला इस साल भी बंटवाते रहे। कम नहीं, अस्सी करोड़ लोगों को बंटवाते रहे। ये लोग अत्यंत निर्धन हैं। इनके पास खाने तक के पैसे नहीं हैं। सरकार जी ने इनकी संख्या कम करने की कोई कोशिश नहीं की। जान बूझ कर नहीं की। सरकार जी की इस तरह की कोई इच्छा भी नहीं है। अगर इनकी संख्या कम हो जाए तो सरकार जी के फोटो लगे झोले बेकार हो जाएं। सरकार जी इतना बड़ा नुकसान सहने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं क्योंकि सरकार जी को झोला बहुत पसंद है। यह वही झोला है जिसे लेकर सरकार जी कभी निकल पड़ेंगे।

आदिवासियों और दलितों पर अत्याचार, अल्पसंख्यकों से भेदभाव भी इस वर्ष अन्य वर्षों की तरह से ही चलता रहा। ज्यादा भले ही हुआ हो लेकिन कम या खत्म तो नहीं ही हुआ। सरकार जी ने इन्हें कम करने कोई मंशा भी नहीं दिखाई। हां यह जरूर हुआ है कि अब इन सभी के यहां कानून से पहले बुलडोजर पहुंचने लगा है। यह बुलडोजर पिछले एक वर्ष की नहीं, दो तीन वर्षों की उपलब्धि है। इस वर्ष की उपलब्धि तो यह रही कि न्याय करने वाला यह बुलडोजर देश की राजधानी दिल्ली में भी पहुंच गया है। 

इस वर्ष एक बात और हुई। हमें जी ट्वेंटी की अध्यक्षता मिली। हम इतने महान हैं कि यह रोटेशन से मिलने वाली अध्यक्षता हमें इंडोनेशिया के बाद मिली है। यह तो विश्व गुरु का अपमान ही हुआ ना कि चेले को अध्यक्षता पहले मिल गई और गुरु को बाद में मिल रही है। और सऊदी अरब को तो और भी पहले ही मिल गई थी। वैसे यह अध्यक्षता 2024 में मिलती तो चुनाव में लाभ भी उठाया जाता।‌‌ खैर इस वर्ष भी बहुत सारे राज्यों में चुनाव हैं, उनमें ही लाभ उठा लिया जाएगा। 

वैसे तो महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, जैसी चीजें पिछले सभी वर्षों में रही हैं और आगे भी रहती रहेंगी पर परन्तु एक चीज है जो इस वर्ष ही हुई है, पहले कभी भी नहीं हुई थी। और ऐसा पहली बार हुआ है पिछले सत्तर सालों में। और वह चीज है कि इस वर्ष रंग भी बेशरम हो गए हैं। रंग पहले चाहे जो मर्जी हो जाएं, बेशरम तो हरगिज ही नहीं होते थे। अधिक से अधिक खराब हुए तो बदरंग हो जाते थे। पर बेशरम, बिल्कुल भी नहीं, कभी नहीं। इस वर्ष से पहले कभी नहीं।

जब तक रंग केवल रंग थे, बच्चों के हाथों कागजों पर रंगे जाते थे, चित्रकारों द्वारा कैनवास पर बिखेरे जाते थे, कलाकारों के हाथों खेले जाते थे, तब तक रंग सबरंगी होते थे, बहुरंगी होते थे। फिर रंग धर्मों ने सम्हाल लिए। केसरिया मेरा तो हरा तेरा, सफेद उसका तो काला किसी और का। और अब तो धर्म ही राजनेताओं ने सम्हाल लिया है। तो रंग भी राजनेताओं के हो गए हैं। अब रंगों को चित्रकारों से अधिक नेता इस्तेमाल करते हैं। देश को बहुरंगी बनाने के लिए नहीं, बदरंग करने के लिए।

रंग बेशर्म हुए हैं औरों की बेशर्मी देख कर। जब से रंग धर्म और राजनेताओं के संपर्क में आने लगे है, उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने लगे हैं, तब से रंग धीरे धीरे बेशर्म होते जा रहे हैं। बेशर्मी की सारी हदें पार करने लगे हैं। जैसे खरबूजा खरबूजे को देख कर रंग बदलता है वैसे ही रंग भी राजनैतिक और धार्मिक नेताओं को देख कर बेशर्म होने लगे हैं। गिरगिट की तरह नेताओं को बार बार, बात बात पर रंग बदलते देख रंग भी रंग बदलने लगा है। नेताओं जितना ही बेशर्म हो गया है।

अब रंग बेशर्म हो गया है। नया वर्ष है। हमें डर है कि यह नया नया बेशर्म हुआ रंग नये वर्ष में न जाने क्या क्या गुल खिलाएगा। बस यही प्रार्थना है कि चाहे जो मर्जी रंग बेशर्म हो जाए पर खून का रंग बेशर्म न हो। और नववर्ष सबके लिए मंगलकारी हो। 

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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