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“चाहूँ ऐसा राज मैं जहाँ मिले सबन को अन्न”

आज संत रैदास की जयंती है। उनका चिंतन आज के संदर्भ में भी क्रांतिकारी है। आइए इस मौके पर पढ़ते हैं राज वाल्मीकि का विशेष आलेख।
संत रैदास
फोटो साभार: गूगल

दलित समाज की संत परम्परा बहुत प्राचीन रही है। पंद्रहवी सदी में कबीर और रैदास (रविदास) जैसे संत और महापुरुष हमारे गर्व और गौरव हैं। कबीर दास जी ने उस समय में जिस निर्भयता का परिचय देते हुए हिन्दुत्ववादी ताकतों को उनकी कुरीतियों के लिए फटकारा था उसी तरह संत रैदास ने उन सामाजिक विषमताओं, विसंगतियों के खिलाफ आईना दिखाया था।

संत रविदास के मंदिर को तोड़ा जाता है तो हम अपनी एकता का प्रदर्शन करते हैं। हम विरोध में उतर आते हैं। तब हमें लगता है ये हमारे संत का अपमान है। हमारी आस्था को ठेस पहुंचाई जा रही है। यह हिंदुत्ववादी सोच की तरह ही है। पर आज आवश्यकता इस बात की है कि हम उनके विचारों को अपनाएं।

रैदास जी बारे में संक्षेप में कहा जा सकता है आज भी हमारे समाज में जातिवाद है। भेदभाव है। छुआछूत है। अत्याचार है। उत्पीड़न है। शोषण है, पर हम हमारे संत से प्रेरणा लेकर इनके खिलाफ आवाज उठाएं। हमारे  समाज में आज भी अनेक विसंगतियां हैं। कुरीतियाँ हैं। अंधविश्वास हैं। क्यों नहीं हम अपने संत से प्रेरित होकर इनके खिलाफ आवाज उठाएं।

रैदास का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1433 को चर्मकार कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम रग्घु और माता का नाम घुरविनिया था। उनकी पत्नी का नाम लोना बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। 

वे जूते बनाने का काम किया करते थे और ये उनका व्यवसाय था और अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। संत रामानंद के शिष्य बनकर उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया। संत रविदास जी ने स्वामी रामानंद जी को कबीर साहेब जी के कहने पर गुरु बनाया था, जबकि उनके वास्तविक आध्यात्मिक गुरु कबीर साहेब ही थे। उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे। प्रारम्भ से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से निकाल दिया। रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग इमारत बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।

उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा।

रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।

वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।

कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।

वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।

 

चारो वेद के करे खंडौती। जन रैदास करे दंडौती।।

उन्होंने जाति की बजाय गुणों को महत्व दिया -

ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन

पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीण

या फिर –

रैदास जन्म के करने होत न कोई नीच।

नर को नीच करि डारि है ओछ करम की कीच।।

उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ उठाई, छुआछूत आदि का विरोध किया। और पूरे जीवन ही इन कुरीतियों के खिलाफ काम करते रहे। उन्होंने लोगों को सन्देश दिया कि ईश्वर ने इंसान को बनाया है न कि इंसान ने ईश्वर को। वे कहना चाहते थे कि इस धरती पर सभी को भगवान ने बनाया है और सभी के अधिकार समान हैं। इन सामाजिक परिस्तिथियों के सन्दर्भ में संत रैदास जी ने लोगों को भाईचारा और मानवीयता का ज्ञान दिया। वे इस दुनिया के हर इंसान को सुखी और प्रसन्न देखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने कहा –

चाहूँ ऐसा राज मैं जहाँ मिले सबन को अन्न।

छोटे-बड़े सब सम बसें रैदास रहे प्रसन्न।।

इसे आज के किसान आंदोलन के संदर्भ में देखा-पढ़ा जा सकता है। किसान जो आज लड़ाई लड़ रहे हैं वो उनकी खेती-किसानी के साथ-साथ सबके लिए अन्न की भी लड़ाई है। उनका सोचना है कि खेत-किसानी अगर कॉरपोरेट के हाथों में गई तो अन्न पर भी अधिकार चंद लोगों का हो जाएगा। संत रैदास भी सबके लिए अन्न यानी भोजन की गारंटी चाहते हैं- चाहूँ ऐसा राज मैं जहाँ मिले सबन को अन्न।

यही नहीं आज भी हमारे समाज में छोटा-बड़ा है, जातिवाद है, भेदभाव है। छुआछूत है, अत्याचार है। उत्पीड़न है, शोषण है। पर हम हमारे संत से प्रेरणा लेकर इनके खिलाफ आवाज उठाएं। हमारे समाज में आज भी अनेक विसंगतियां हैं। कुरीतियाँ हैं। अंधविश्वास हैं। क्यों नहीं हम अपने संत से प्रेरित होकर इनके खिलाफ आवाज उठाएं।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन के सदस्य हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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