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ट्रंप ने तालिबान डील को एक बार फिर पटरी पर ला दिया है

अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल के प्रयासों पर वास्तविक ख़तरा अगर किसी एक प्रमुख स्रोत से है तो वह उन हितधारक गुटों से है जिन्होंने राज्य की एजेंसियो पर अपना क़ब्ज़ा जमा रखा है। अपनी शक्तियों के छिन जाने की आशंका से उन्हें नफ़रत है। 
Taliban US peace talk
अफ़ग़ान सुलह मामलों के अमेरिकी विशेष प्रतिनिधि ज़ालमय खलीलज़ाद (बायें) ने 3 फरवरी 2020 को काबुल में अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह (दायें) और अन्य पूर्ववर्ती उत्तरी गठबंधन के नेताओं से मुलाकात की

अमेरिकी-तालिबान समझौते के ख़िलाफ़ काबुल में एक छोटी-मोटी बगावत की खुश्बू हवा में तैर रही है। ऐसा लगता है कि इस सम्बन्ध में वाशिंगटन में खतरे की घंटी बज चुकी है कि इस शांति बहाली को खतरे में डालने वाले प्रमुख स्रोत के रूप में वे हितधारक गुट हैं, जिनका राज्य की तमाम एजेंसियो पर क़ब्ज़ा है और सत्ता हस्तांतरण को लेकर वे गुस्से में हैं। देश में नाउम्मीदी की हद तक बिखरे समूहों के बीच यदि कोई इस काबुल पर क़ब्ज़ा जमाये गिरोह को अलग-थलग कर पाने में सक्षम है तो यह सिर्फ अमेरिका के वश में है। 

राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के शासनकाल में अफ़ग़ानिस्तान के विशेष राजदूत पीटर टॉमसन की ओर से अस्सी के दशक में सोवियत के ख़िलाफ़ जिहाद के दौरान जो शक्तिशाली रूपक का इस्तेमाल किया गया था, उसका ख्याल आज आ रहा है। राजदूत टॉमसन जब आपस में संघर्षरत मुजाहिदीन गुटों (पेशावर सेवेन) के बीच में सहमति के तमाम बेकार की कोशिशों को आजमा कर थक चुके थे, एक ऐसे समय में जब निकट भविष्य में सोवियतों के पीछे हटने की पूरी पूरी संभावना नजर आ रही थी। ऐसे में उनका कहना था कि ये सारी भाग दौड़ मानों मेढकों को एक ही तराजू पर रखने जैसी बेमतलब की कवायद साबित होने जा रही है- ये कुछ ऐसा ही था जैसे आप एक को डालते हो, तभी पता चलता है कि यहाँ पहले से ही कोई दूसरा कूदकर निकल चुका है, और यह क्रम बना रहता है। 

29 फरवरी को दोहा में जैसे ही अमेरिकी-तालिबान समझौते पर मुहर लगने की देर थी, तत्काल अफ़ग़ानी राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी तराजू के पलड़े से कूद गये, जिन्हें कई महीनों की मशक्कत के बाद किसी तरह से अफ़ग़ान सुलह मामलों के विशेष प्रतिनिधि ज़लमय खलीलजाद ने इसके लिए राजी किया था।  

ग़नी ने तालिबान कैदियों की रिहाई का चेहरा बनने से इंकार कर सबको चौंका दिया है, जबकि दोहा समझौते के दौरान तालिबान की ओर से यह एक अहम मुद्दा रहा था। जबकि 29 फरवरी को हुए समझौते के दस्तावेज़ों में यह साफ़-साफ़ लिखा हुआ था जिस पर दस्तख़त किये गए हैं और जिसको पहले से ही उनके संज्ञान ले जाया गया था और सहमति ले ली गई थी।

हक़ीक़त तो ये है कि ग़नी की ओर से जिन प्रतिनिधियों को काबुल से दोहा के लिए भेजा था, उन्होंने तालिबान प्रतिनिधियों से मिलकर बन्दियों की रिहाई से जुड़ी औपचारिकताओं के सम्बन्ध में बातचीत भी की थी। लेकिन इसके बाद उन्होंने अपना विचार बदल लिया है।

तालिबान बंदियों की रिहाई को लेकर अपने वायदे से पलटने को लेकर ग़नी का अनुमान है कि यह सौदे को तोड़ने वाला साबित होने जा रहा है, जिसके चलते 10 मार्च को निर्धारित अफ़ग़ानियों के मध्य की वार्ता के टूटकर बिखर जाने की संभावना है। 

अपने गिरोह में शामिल कट्टरपंथी धड़ों से प्रेरित ग़नी इस बीच विद्रोही मुद्रा में नजर आ रहे हैं, और इसमें वे करीब-करीब सफल भी होते नजर आये। हिंसा में कमी लाने के समझौते को खत्म करने में तालिबान की और इसका जवाब दिया गया है। और जैसा कि अनुमान था, संघर्ष एक बार फिर से छिड़ चुका है। तालिबानी हमले को झेल पाने में असमर्थ सरकार ने अमेरिका की ओर से हवाई सुरक्षा की गुहार लगाईं है, जिसके चलते विद्रोहियों पर अमेरिका की ओर से हवाई हमले हुए हैं। 

विदेशों में बैठे अमेरिका-तालिबान समझौते की नुक्ताचीनी करने वाले तत्वों ने तत्काल जश्न मनाना शुरू कर दिया है। यह कहते हुए कि दोहा समझौते पर हस्ताक्षर के तीन दिनों के भीतर ही इसकी असलियत सामने आ चुकी है और एक बार फिर से अमेरिका और तालिबान आपस में भिड़ चुके हैं।

हालाँकि 3 फरवरी को साहसिक पहलकदमी लेते हुए ट्रंप ने मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर से बातचीत की थी, जिन्हें वास्तविक अर्थों में तालिबान नेता कहा जा सकता है। बरादर ने आगे बढ़कर दोहा में खालिज़ाद के साथ वार्ता में हिस्सा लिया था और दोनों पक्षों के बीच में आपसी विश्वास के कई नाजुक मुद्दों को सुलझाने का काम किया है। अपनेआप में यह बेहद अहम प्रतीकात्मक कदम भी था जिसने काबुल को न सिर्फ एक मजबूत संदेश देने का काम किया था बल्कि उसी दौरान इसका वास्तविक असर भी देखने को मिला था। 

यह भी सच है कि दोहा समझौते के परे भी आपसी समझदारी का एक मैट्रिक्स तैयार हो चुका था, जिसे कई महीनों की कड़ी मेहनत से अमेरिका और तालिबान के बीच बनाया गया था। और इस सबके पीछे पाकिस्तान मजबूती से समर्थन हासिल था। ट्रंप ने इसी दिशा में कदम बढाए थे। (अधिक जानकारी के लिए मेरे ब्लॉग में जाएँ अफ़ग़ान पीस कम्स विद कैवेअट्स बट कांट बी स्नफ्फड आउट।)

जो भी उपलब्ध साधन हैं उनके ज़रिये ट्रंप ने तालिबान को भरोसा दिलाया है कि अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पेओ इस मुद्दे पर ग़नी से बात करेंगे। और जैसा कि अमेरिका ने वादा कर रखा है बंदियों की रिहाई को सुनिश्चित किया जाएगा और वाशिंगटन अपेक्षा रखता है कि वह ‘हिंसा में कमी’ लाने के अपने वायदे का पालन करना जारी रखेगा। 

इसके बाद ट्रंप ने सार्वजनिक तौर पर विश्वास दिलाया है कि हिंसा में कमी आयेगी।

पाकिस्तान की ओर से जो सकारात्मक भूमिका निभाई जा रही है, उस पर स्पष्ट तौर पर वाशिंगटन ने अपने विश्वास को कायम रखा है, जो इस शांति प्रक्रिया में एक धुरी की भूमिका निभा रहा है। 

पीछे मुड़कर देखते हैं तो स्पष्ट होता है कि इस युद्ध के तार इस बात से सीधे जुड़े हैं कि अफ़ग़ानियों के मध्य वार्ता से ग़नी बचने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें साफ़ तौर पर यह डर सता रहा है कि आगे चलकर निकट भविष्य में अंतरिम सरकार का बनना तय है जो उनकी सत्ता से बेदखली को अवश्यम्भावी बना देगा। धांधली से जीते गये हालिया राष्ट्रपति चुनावों की बधाई भी अभी तक अमेरिका की ओर से ग़नी को मिलनी बाकी है और जिसके चलते उन्होंने पदभार ग्रहण की औपचारिकताओं को भी टाल दिया है।

आज एक बेहद रोचक स्थिति सामने खड़ी हो चुकी है- ग़नी के ख़िलाफ़ जो (ग़ैर-तालिबान) अफ़ग़ान विपक्ष और अन्य गुट हैं वे अंतर-अफ़ग़ान वार्ता को लेकर उत्सुक हैं। इसके साथ ही तालिबान सहित अमेरिका-तालिबान समझौते के ज़रिये शांति प्रयासों को लेकर भी उन्होंने सहयोगात्मक रुख अपनाया हुआ है। जबकि ग़नी और उनका गुट ने खालिज़ाद की ओर से कष्टसाध्य प्रयासों से हासिल समझौते की इस पूरी प्रक्रिया को ही कमतर साबित करने पर तुली हुई है।

कुलमिलाकर ग़नी किसी तरह वक्त काटने की जुगत में दिख रहे हैं और उनकी उम्मीद इस बात पर टिकी है कि किसी तरह से अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव अभियान में अफ़ग़ान सुलह का मामला एक विवादास्पद मुद्दे के रूप में उछाल दिया जाये। उनकी उम्मीद डेमोक्रेट्स से इस मुद्दे पर समर्थन पर टिकी हुई है जो तालिबान के साथ इस प्रकार के किसी भी समझौते में मानवाधिकार के मुद्दों को केन्द्रीय सवाल के रूप में सामने रख सकते हैं। लेकिन लगता नहीं कि ग़नी की ओर से खेले जा रहे इस प्रकार के किसी भी धोखधड़ी को ट्रंप बर्दाश्त करने वाले हैं।

स्पष्ट तौर पर ग़नी अपनी हद से बाहर जा रहे हैं। कठोर सच तो ये है कि अफ़ग़ानों के बीच में उनके शासन को कोई लोकप्रिय समर्थन हासिल नहीं है और अभी भी वे अमेरिकियों की ईजाद ही समझे जाते हैं, और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय भी इसी वजह से उनका साथ देता चला आया है।

उनके गुर्गों का भी अपना कोई राजनैतिक आधार नहीं रहा है। पश्तुनियों के बीच भी ग़नी का कोई राजनैतिक आधार नहीं है। जहाँ तक उनके मुख्य सहयोगी अमरुल्लाह सालेह का प्रश्न है तो उन्हें शून्य से उठाकर सामने लाया गया था, और अमेरिकियों द्वारा एक ख़ुफ़िया अधिकारी के रूप में प्रशिक्षित और विकसित किया गया था। माना जाता है कि वे पंजशिरी हैं, लेकिन अहमद शाह मसौद का विकल्प किसी भी तौर पर उन्हें नहीं कहा जा सकता। ये वे कुछ कड़वी हक़ीक़त हैं, जिनके बारे में सभी लोग भली-भांति परिचित हैं। 

यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया के लिए मुख्य खतरा अगर कहीं से है तो वह ग़नी सरकार में इस प्रस्ताव को नकारने वाले मौकापरस्त गुटों से है। इंतज़ार इस बात का है कि कब अमेरिकी इन्हें लाइन में लाने के लिए कोड़े फटकारना शुरू करते हैं।

2 मार्च को ब्रेट बैएर के स्पेशल रिपोर्ट के लिए दिए गए अपने एक इंटरव्यू में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पेओ ने इशारा किया था कि वाशिंगटन ठीक कुछ ऐसा ही करने जा रहा है। इस बीच खलीलजाद वापस काबुल में हैं। 

अच्छी बात ये है कि अब्दुल्लाह के नेतृत्व में ग़नी के ख़िलाफ़ जो विपक्ष है, वह अमेरिका-तालिबान समझौते के साथ खड़ा नजर आ रहा है। इसी तरह पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई भी समर्थन में हैं। खालिज़ाद ने करज़ई, अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह और अन्य विपक्षी नेताओं (जो भी पूर्ववर्ती उत्तरी गठबंधन के प्रतिरोध में शामिल तत्व हैं) से 3 फरवरी को मुलाकात की थी, और उन्होंने अमेरिकी-तालिबान समझौते को अपना समर्थन दिया था। 

बैएर को दिए अपने इंटरव्यू में पोम्पेओ से हमें इस बात का आभास मिलता है कि ट्रंप के मुल्ला बरादर से फोन से बातचीत में क्या कुछ बातचीत हुई होगी। इसके बाद ही अमेरिकी रक्षा सचिव मार्क एस्पर ने सोमवार को कहा है कि 10 मार्च से पहले ही सेना की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी शुरू होने जा रही है। अभी के लिए तो यही कहा जा सकता है कि चीज़ें वापस ट्रैक पर आ चुकी हैं। और जैसा कि पोम्पेओ ने अपने बयान में कहा है, 

“जब मैं दोहा में था तो मैंने व्यक्तिगत तौर पर उनसे (मुल्ला बरादर) मुलाकात की थी। मैंने उनसे आँख में आँख डालकर बात की है। उन लोगों ने अपनी वचनबद्धता को दोहराया है (अल-क़ायदा का बहिष्कार और हिंसा में कमी की बात।) अब उन्हें इसे अमल में लाना है। अब जाकर हमें देखना है, सारी दुनिया को देखना है कि वे इस वचनबद्धता पर खरे उतरें। यह बेहद अहम है ब्रेट, क्योंकि इसी वजह से तो हम वहाँ शामिल हुए थे।”

ये हक़ीक़त है कि इस सुपर मंगलवार के शोर-गुल के बीच भी ट्रंप ने समय निकालकर तालिबान नेतृत्व के सर्वोच्च शिखर पर बैठे लोगों के साथ इस मुद्दे पर व्यक्तिगत तौर पर हस्तक्षेप करने का फैसला लिया। इसे वे अपने प्रशासन की उन विदेश-नीति की उपलब्धियों में रखना चाहते हैं जो उनके लिए सबसे ज्यादा मायने रखती है। और इसकी सफलता के लिए भी इसे उसकी सबसे बेहतर गारंटी के तौर पर देखा जाना चाहिए।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Trump Puts Taliban Deal Back on Track

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