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‘नमस्ते ट्रम्प’ में फेरबदल अभी भी संभव है

नवंबर में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में डेमोक्रेटिक दल के शीर्ष नेतृत्व की ओर से अग्रिम पंक्ति में शामिल जो लोग चुनावी रेस में हिस्सा ले रहे हैं, उन्होंने भारत की आलोचना को लेकर अपने सुरों को लगातार बढ़ाना शुरू कर दिया है। आंशिक तौर पर ही सही पर इस असंतोष की कुछ वजह अमेरिकी चुनाव में मोदी के हस्तक्षेप के चलते है।
Trump

म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन (फरवरी 14-16) में अपनी हिस्सेदारी के साथ-साथ विदेश मंत्री एस. जयशंकर की अमेरिकी सभापति नैन्सी पेलोसी के साथ होने वाली क्षणिक भेंट को सबसे उल्लेखनीय घटना कहा जा सकता है। और जैसा कि नमस्ते ट्रम्प अभियान की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है, इसे सिर्फ समय रहते नुकसान की भरपाई वाले कदम के रूप में देखा जाना चाहिए।

जयशंकर जो हाल-फिलहाल तक ट्रम्प के मुहावरे क्रेजी नैन्सी को समर्थन देते आये थे, संयोग से उन्हें कहना पड़ा है कि भारत-अमेरिकी रिश्तों में आपका “निरंतर सहयोग” हमारे लिए “बहुत बड़ा सहारा" रहा है।

यह जो अमेरिका में मरणासन्न “द्विदलीय सहमति” (रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स के बीच) के भरे-पूरे मंगलगान में नजर आया है, वह भारत के साथ साझेदारी के महत्व के संबंध में एक कूटनीतिक घटनाक्रम बनकर रह गया है।हाल के दिनों की कई घटनाओं की एक श्रृंखला ने इस बात के संकेत दिए हैं कि अमेरिका में भारत के समर्थन में जो जलाशय था, उसमें से कुछ क्षरण के संकेत मिलते हैं, खासकर पिछले सितम्बर के ह्यूस्टन की हौडी मोदी रैली के बाद से।नवम्बर में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव के सन्दर्भ में जो अग्रिम पंक्ति में डेमोक्रेटिक दल के नेता हैं, के बीच भारत को लेकर आलोचना के सुर बढ़ते जा रहे हैं। आंशिक तौर पर ही सही पर इस असंतोष की कुछ वजह अमेरिकी चुनाव में मोदी के हस्तक्षेप के चलते है।

और यह अपने निम्नतम बिंदु तक तब पहुँच गया जब जयशंकर ने वाशिंगटन में कुछ प्रभावशाली डेमोक्रेटिक सांसदों के साथ होने वाली एक निर्धारित बैठक को एक ही झटके में निरस्त कर दिया था।

इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिका की इस "द्विदलीय सहमति" को भंग करने के लिए दिल्ली पूरी तरह से जिम्मेदार रही है। और वह भी एक ऐसे समय में किया गया जब रूस और चीन जैसी बड़ी ताकतें अमेरिका में "द्विपक्षीय आम सहमति" के बोझ की खिल्ली उड़ा रही हैं, जो उन्हें अभी तक या तो संशोधनवादी शक्तियाँ या शिकारी के तौर पर बदनाम करने में एकजुट थीं। साफ़ शब्दों में कहें तो ऐसा एक भी कारण नजर नहीं आता कि प्रधानमंत्री मोदी को ह्यूस्टन में सार्वजनिक रूप से यह दर्शाने की जरूरत क्यों पड़ी कि जैसे वे ट्रम्प के चुनाव एजेंट के रूप में काम कर रहे हों, और जैसे वे अमेरिका में ट्रम्प के लिए भारतीय-अमेरिकी समुदाय से वोट की अपील कर रहे हों।

भारत और पेलोसी का सम्बन्ध बहुत पुराना है, यह ट्रम्प के राजनीतिक क्षितिज पर उभरने से बहुत पहले की बात है। समय-समय पर चीनियों पर चोट करने के लिए 'दलाई लामा कार्ड'  को खेलने में उनका योगदान रहा है। अमेरिका में इनके तार इजरायली लॉबी से जुड़े होने के बारे में कहा जाता है।अगर साफ़-साफ़ कहें तो कैपिटल हिल में एक दोस्त के रूप में पेलोसी की उपस्थिति अच्छी बात है। 1987 से कांग्रेस सांसद के रूप में उनकी एक शानदार उपस्थिति रही है, जिन्होंने 2003 से हाउस डेमोक्रेट्स का नेतृत्व किया और स्पीकर के रूप में वे दो बार अपनी सेवाएं दे चुकी हैं।

एक बात और, पेलोसी अभी भी एक किंगमेकर वाली भूमिका में बनी हुई हैं। सोमवार को सीएनएन के क्रिस्टियन अमनपॉर के साथ अपने एक साक्षात्कार के हवाले से उन्होंने कहा है कि वे आयोवा और न्यू हैम्पशायर डेमोक्रेटिक के आरंभिक चुनावों में पूर्व उप-राष्ट्रपति के निराशाजनक नतीजों के बाद भी "जो बिडेन को रेस से बाहर नहीं मानतीं"।और सबसे महत्वपूर्ण बात देखने को तब मिली जब पेलोसी ने 4 फरवरी को ट्रम्प के राज्यों के संघ को सम्बोधन के खत्म होते ही अपनी प्रति (ट्रम्प की मौजूदगी में ही) फाड़ डाली, क्योंकि इस भाषण की अंतर्वस्तु उन्हें एक “भयानक” झूठ का पुलिंदा लगीं।

पेलोसी की ओर से किये गये इस अंतिम हंगामाखेज कृत्य ने ही लगता है जयशंकर को पेलोसी से मुलाक़ात के लिए उत्सुक बना दिया है। ट्रम्प के बारे में मशहूर है कि वे प्रतिशोध जरुर लेते हैं। उत्सुकता इस बात को लेकर है कि क्या जयशंकर ने इसके लिए मोदी से पूर्व अनुमति ली थी?जबकि इस बीच किसी तरह ट्रम्प को कहीं से इस बात की खबर लगी है कि जैसे ही 24 फरवरी को उनका विमान अहमदाबाद एअरपोर्ट पर उतरेगा, मोदी ने उनके स्वागत का भव्य आयोजन किया होगा आंशिक तौर पर ही सही पर इस असंतोष की कुछ वजह अमेरिकी चुनाव में मोदी के हस्तक्षेप के चलते है। अहमदाबाद की सडकों पर कुछ नहीं तो 50 से लेकर 70 लाख लोग लाइन लगाकर उनके स्वागत में खड़े नजर आने वाले हैं।

जबकि फिलवक्त जयशंकर भारत के पुराने दोस्त पेलोसी से “अत्यंत आनंददायक क्षणिक भेंट” का आनंद ले रहे हैं।कभी-कभी तो बिलकुल ही समझ नहीं आता कि चल क्या रहा है इस अमेरिकी-भारतीय “रणनीतिक साझेदारी” में। लेकिन देखकर आश्चर्य होता है कि वास्तिविकता में ये और कुछ नहीं बस एक स्वांग रचा जा रहा है- शुद्ध नाट्य मनोरंजन है जिसे अतिशयोक्तिपूर्ण मीम के जरिये प्रस्तुत किया जा रहा है।

अब जैसे नमस्ते ट्रम्प थीम को ही लें। निश्चित तौर पर ट्रम्प के लिए मोदी एक उन्मादपूर्ण अनुभव का आनन्द दिलाने की तैयारी में जुटे पड़े हैं, जिसे सम्भवतः अगले के लिए इस धरती पर, जहाँ पर वे सार्वभौमिक तौर पर नापसंद किये जाने वाले व्यक्ति के रूप में ख्यातिप्राप्त हैं, और कहीं भी हासिल कर पाना संभव नहीं है।

अब बताइये भला दुनिया में कौन सा ऐसा अन्य शासक होगा जो मोदी की तरह अपने 50 से 70 लाख नागरिकों को अपने घरों से बाहर निकलकर सड़कों पर लाइन लगाकर एक ऐसे व्यक्ति के स्वागत में अपने राष्ट्रीय ध्वज को फहराने का आह्वान कर सकता है, जिसके बारे में इससे पहले न उन्होंने कभी सुना और बमुश्किल से पहचानते हों?

ट्रम्प के लिए तो यह पाग्लकर देने वाला उटपटांग कार्यक्रम उनके चुनावी अभियान में काफी काम का साबित होने जा रहा है, जिसमें वे दिखा सकते हैं कि देखो दुनिया के नेता के रूप में वे कितने अधिक लोकप्रिय हैं। उसी प्रकार मोदी के लिए भी शायद यह मौका दुनिया में सबसे शक्तिशाली आदमी के साथ कंधे से कन्धा रगड़ने के रूप में अपने घरेलू भीड़ के समक्ष एक क्षणभंगुर सुख वाला साबित होने जा रहा है, जिससे वे अपना मोह छोड़ नहीं पा रहे हैं। क्या यह दोनों के लिए एक “विन-विन” वाली स्थिति होने जा रही है?

लेकिन सोचिये यदि ट्रम्प व्हाइट हाउस में दूसरी बार काबिज नहीं हो पाते हैं, तो ऐसी स्थिति में क्या होने वाला है? राजनीति में नौ महीने का अंतराल एक बड़ा समय होता है, और अमेरिका में एक निकाय ऐसा भी है जिनकी चीजों के बारे में अपनी एक सुविचारित राय है, और जिसका मानना है कि नवंबर के चुनावों में “ट्रम्प को परास्त करना काफी हद तक संभव है"।

असलियत में अमेरिका में आज बहस इस बात को लेकर हो रही है कि डेमोक्रेटिक दावेदारों में से वो कौन है जिसके पास ट्रम्प को परास्त कर पाने की बेहतर संभावना है - जिसे अमेरिकी लोग "चुने जाने की योग्यता की बहस" के नाम से जानते हैं।हाल ही में एनबीसी/वॉल स्ट्रीट जर्नल के सर्वेक्षण में जो बिडेन 50-44 के साथ शीर्ष पर हैं, जबकि सैंडर्स ने ट्रम्प पर 49-45 की बढ़त बनाई हुई है, जिसे सांख्यिकीय के लिहाज से महत्वहीन अंतर कहा जा सकता है।

अब यहाँ पर जयशंकर प्रवेश करते हैं। एक उदार मानसिकता से भरे-पूरे, एक स्मार्ट हाव-भाव के साथ जो गहरी जड़ जमाये विश्वासों के बोझ से परे हो। इसमें कोई अचंभा नहीं कि बड़े ही स्वाभाविक रूप से जयशंकर को लगा हो कि चलो इसी बीच पेलोसी की टोकरी में एक भारतीय अंडा ही डाल दें, और इससे कुछ नहीं बिगड़ने जा रहा है।लेकिन ये भी सच है कि जयशंकर ने इस बात को लेकर काफी एहतियात बरता है, कि पेलोसी के साथ किसी प्रकार की औपचारिक भेंट न हो। उन्होंने तो इस खुशनुमा भेंट और कुशलक्षेम का वक्त भी खासतौर पर उस समय के लिए चुना जब म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में कॉफी ब्रेक के दौरान कॉन्फ्रेंस हॉल से सब लोग बाहर निकल रहे थे।

बहरहाल उनका जो मकसद था वो पूरा हो गया है। उन्होंने नमस्ते ट्रम्प अभियान को हल्के से मोड़ने का अभिनव प्रयोग किया है, जो मात्र इतना सा है कि भारतीय दर्शकों के बीच इसको लेकर जो अतिरंजित धारणा बन रही थी, उसे कुछ अनुपात में अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी से उस टूटे पुल के पुनर्निर्माण की अपनी कोशिश भर की है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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