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कोरोना वायरस जैसी वैश्विक महामारी से मिलने वाले दो सबक

यह महामारी हमें सीख देती है कि नवउदारवाद ने हमें जिस दिशा में धकेल दिया है, हमें उससे वापस लौटना होगा और समग्र सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे और यूनिवर्सल पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम को खड़ा करना होगा। वरना क़ीमती ज़िंदगियाँ बेवजह ख़त्म होती जाएंगी।
कोरोना वायरस
Image Courtesy: New York Post

एक सदी पहले आए स्पेनिश फ़्लू की तुलना में अब तक कोरोना वायरस का असर उतना ख़तरनाक नहीं है। स्पेनिश फ़्लू से 50 करोड़ लोग संक्रमित हुए थे, यह उस वक़्त दुनिया की आबादी का 27 फ़ीसदी हिस्सा था। उस फ़्लू में मृत्यु दर भी क़रीब दस फ़ीसदी थी (मौत का आंकड़ा अलग-अलग है, पर यह एक किस्म का औसत है)। कुछ लोग दावा करते हैं कि अकेले भारत में ही क़रीब एक करोड़ सत्तर लाख लोग मारे गए थे। इसके उलट कोरोना वायरस ने अब तक दुनिया के महज़ दो लाख लोगों को ही संक्रमित किया है। इसकी मृत्यु दर भी क़रीब तीन फ़ीसदी है।

कोरोना वायरस आगे क्या कहर ढाएगा, यह अब तक यह साफ़ नहीं है। वैश्विक महामारियां अनियमित प्रवृत्तियां दर्शाती हैं। 1918 में एक बार गिरावट के बाद स्पेनिश फ़्लू उसी साल अक्टूबर में दोबारा उठ खड़ा हुआ था। हांलाकि इसके कुछ वक़्त बाद ही यह ख़त्म हो गया। कोरोना वायरस का हाल भी भविष्य में क्या हाल होने वाला है, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है।

लेकिन यह महामारी हमें कुछ सीखें भी देती हैं। अगर यह वैश्विक महामारी जल्द ख़त्म हो जाती है और इन सीखों पर ध्यान नहीं दिया जाता, तो हमें कम क़ीमत चुकानी होगी। लेकिन, अगर कोरोना वायरस का संक्रमण लंबा चलता है तो यह क़ीमत बहुत ऊंची होगी। क्योंकि हमने अपने अतीत से कुछ नहीं सीखा। यह दो सीखें बेहद अहम हैं।

सबसे पहले हमें एक ऐसे स्वास्थ्य ढांचे की ज़रूरत है, जिससे पूरी आबादी को लाभ दिया जा सके। अब तक भारत में 160 से ज़्यादा मामले सामने आ चुके हैं, उनका सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में विशेष प्रबंध के साथ इलाज किया जा सकता है। तुलनात्मक रूप से फिलहाल कम संख्या में वायरस के मामलों की जांच हुई है, इन्हें सार्वजनिक सुविधा केंद्रों में बिना दिक़्क़त के रखा जा सकता है।

लेकिन अगर ज़्यादा लोगों को जांच की ज़रूरत पड़ी और बड़ी संख्या में लोग संक्रमित हुए, तो सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा केंद्र इसके लिए पर्याप्त साबित नहीं होंगे। उनकी हालत पहले ही ख़राब है। चूंकि निजी संस्थान बिना भारी-भरकम पैसा लिए इलाज नहीं करेंगे, तो बड़ी संख्या में मरीज़ों को संसाधनों की कमी के चलते दिक़्क़तों का सामना करना पड़ेगा। इस संक्रमण द्वारा वर्ग आधारित जो संकट खड़ा किया गया है, तब वो असली क़ीमत वसूल करेगा।

इस आपात स्थिति में अगर सरकार निजी अस्पतालों को मरीज़ों को मुफ़्त में इलाज करने का निर्देश दे, तो ज़रूर कुछ अलग हो सकता है। लेकिन शायद ही ऐसा किया जाए। एक्सीडेंट, सीज़र या अचानक आए हार्ट अटैक जैसे आपात मामले, जहां अस्पताल में भर्ती किया जाना ही एकमात्र विकल्प होता है, वैसी परिस्थितियों में भी निजी अस्पतालों पर बाध्यता लादने वाले कोई प्रावधान भारत में नहीं है।

यहां तक कि सबसे ज़्यादा पूंजी से चलने वाले देश अमेरिका के भी कई राज्यों में इस तरीक़े के प्रावधान हैं। आपात स्थिति में जब तक मरीज़ डिस्चार्ज नहीं हो जाता, तब तक अस्पताल उससे किसी भी तरह का पैसा नहीं ले सकते। भले ही उसके पास बीमा तक न हो। इस तरह की आपात स्थिति में बड़ी सर्जरी और सर्जरी के बाद की प्रक्रियाएं भी शामिल हैं। लेकिन भारत में निजी अस्पतालों पर आपात स्थितियों वाले मरीज़ों को मुफ़्त सेवाएं देने की कोई बाध्यता नहीं है। जबकि यह निजी अस्पताल सरकार से सस्ती ज़मीन और दूसरी छूट भी प्राप्त करते हैं।

हमारे स्वास्थ्य ढांचे की वक़्त के साथ निजी क्षेत्र पर निर्भरता काफ़ी बढ़ गई है। ऐसे में अगर महामारी बड़ा रूप लेती है, तो हमारा स्वास्थ्य ढांचा उससे निपटने के लिए सक्षम नहीं है। वैश्वीकरण के नतीज़ों से ऐसी महामारियां तेजी से बढ़ रही हैं। हांलाकि इनमें से कोई भी 1918 के स्पेनिश फ़्लू जैसी भयावह नहीं हो पाई। लेकिन कोरोना का अनुभव हमें एक ज़रूरी सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे की ज़रूरत महसूस कराता है।

दूसरी सीख है कि हमें मूलभूत ज़रूरी चीजों के लिए एक ''यूनिवर्सल पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम'' की ज़रूरत है। वैश्विक मंदी पर महामारी के प्रभाव के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। कोरोना वायरस का केंद्र बिंदु चीन है, जो हाल तक दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था था। अब उसके आउटपुट में कमी आएगी। इससे वैश्विक मांग कम होगी। मांग पूर्ति की चीनी क्षमता भी कमज़ोर होगी। इससे वैश्विक आउटपुट भी सिकुड़ेगा।

ऊपर से पर्यटक और आंतरिक यात्रियों के यातायात में बड़ी गिरावट आई है। इससे एयरलाइन और होटल इंडस्ट्री समेत दूसरे उद्योगों को बड़ा घाटा होगा। मतलब हमारी दिक़्क़त में और इज़ाफ़ा होगा। इसलिए वैश्विक अर्थव्यवस्था आने वाले समय में सिकुड़ेगी।

लेकिन एक दूसरा पहलू भी है, जिस पर ध्यान कम गया है। ख़ुद को अपने घरों में क़ैद करने से ज़रूरी सामान की मांग कई गुना बढ़ जाएगी। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि महामारी के दौर में खपत के लिए सामान को इकट्ठा किया जा रहा है। ऐसा इसलिए भी है कि दूसरों द्वारा सामान को बड़ी मात्रा में इकट्ठा किए जाने का डर बैठ रहा है, जिससे उपलब्धता के कम होने का अंदेशा है।

जब लोगों से लंबे वक़्त के लिए घर में रहने की अपेक्षा की जाती है, तो रसद को इकट्ठा करना, वो भी ज़रूरत से ज़्यादा, कोई चौंकाने वाली बात नहीं है। ऊपर से इस तरह की बढ़ती मांग के अनुमान से धंधेबाज आपूर्ति को रोकने की कोशिश कर दाम को बढ़ाने के चक्कर में रहेंगे। कुल मिलाकर इस महामारी से ज़रूरी चीज़ों की कमी हो जाएगी।

कोरोना वायरस के कम मामलों के बावजूद भारत में यह सब होना शुरू भी हो गया है। आने वाले दिनों में यह स्थिति और भी विकट हो जाएगी। इससे कामगार लोगों पर भयावह असर पड़ेगा। कोई कह सकता है कि उन्हें पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम के तहत कवर किया जाएगा, इसलिए किसी को चिंतित होने की ज़रूरत नहीं है।

लेकिन यह तर्क दो वजहों से ग़लत है। पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम के तहत सभी तरह के ज़रूरी सामान नहीं दिए जाते। दूसरी बात, पी़डीएस में सभी कर्मचारियों को शामिल नहीं किया जाता। जब से APL(ग़रीबी रेखा से ऊपर) और BPL (ग़रीबी रेखा से नीचे) का प्रावधान लाया गया है, तबसे सब्सिडीयुक्त क़ीमतें सिर्फ BPL वर्ग के लोगों को ही दी जा रही हैं। इससे बड़ी संख्या में लोग इस ढांचे के बाहर हैं। एक बड़े वर्ग द्वारा ज़रूरत से ज़्यादा सामान इकट्ठा किए जाने और जमाखोरों की बेईमान गतिविधियों का सबसे ज़्यादा असर इन्हीं लोगों पर पड़ेगा। इसलिए एक समग्र सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की ज़रूरत हो जाती है, जिसके तहत सिर्फ़ अनाज ही नहीं, बल्कि सभी तरह की ज़रूरी चीज़ों की आपूर्ति की जाए।

इस तरह की व्यवस्था की आज के वक़्त में बहुत ज़रूरत है। चू्ंकि इस तरह का बुरा वक़्त आजकल कई बार आता है, इसलिए एक यूनिवर्सल पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम का आज की अर्थव्यवस्था का हिस्सा होना ज़रूरी हो जाता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो आज हम जिस तरह की वैश्विक महामारी का सामना कर रहे हैं, वह बिलकुल युद्ध की स्थिति है। जैसा युद्ध में होता है, आपूर्ति सिर्फ प्राकृतिक तौर पर बाधित नहीं होती, बल्कि इसको जमाखोरों द्वारा ठप्प किया जाता है, इसलिए सार्वजनिक वितरण ज़रूरी हो जाता है। इस तरह की वैश्विक महामारी की बढ़ती बारम्बारता को देखते हुए पीडीएस अर्थव्यवस्था की एक स्थायी विशेषता होनी चाहिए।

''डिरिजिस्टे रेजीम'' के दौरान ''पब्लिक हेल्थकेयर सिस्टम'' और ''यूनिवर्सल पीडीएस'' को ज़रूरी विशेषता माना जाता था। लेकिन नवउदारवादी व्यवस्था ने दोनों को ख़त्म कर दिया। नवउदारवाद ने शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी ज़रूरी सेवाओं के निजीकरण को बढ़ावा दिया। इस व्यवस्था ने इन क्षेत्रों में बड़े निजी व्यापारियों को शामिल करवाने पर ज़ोर दिया। इसमें खाद्यान्न बाज़ार में बहुराष्ट्रीय औद्योगिक संस्थानों को पहुंच देने की वकालत की गई।

बल्कि WTO में दुनिया के विकसित देश ख़रीदी व्यवस्था को ठप्प करवाकर भारत को अपने पीडीएस को सिस्टम को बंद करने के लिए कहते आ रहे हैं। लेकिन कोई भी भारत सरकार ऐसा नहीं कर सकती। इसलिए हमारे पास अब भी एक छोटा पीडीएस है, जो केवल ग़रीबों के लिए काम करता है। कम शब्दों में कहें तो नवउदारवादी व्यवस्था से आए बदलावों ने देश को वैश्विक महामारियों के प्रति असुरक्षित छोड़ दिया है। अब ज़रूरत इन बदलावों को ख़त्म करने की है।

यह महामारी हमें सीख देती है कि नवउदारवाद ने हमें जिस दिशा में धकेल दिया है, हमें उससे वापस लौटना होगा और समग्र सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे और यूनिवर्सल पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम को खड़ा करना होगा। वरना क़ीमती ज़िंदगियाँ बेवजह ख़त्म होती जाएंगी।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Two Basic Lessons from the Coronavirus Pandemic

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