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UCC: पीएम मोदी को पसमांदा मुस्लिमों की चिंता, तो क्या हटा देंगे सन् 1950 का प्रेसीडेंशियल आर्डर

"आर्टिकल 341 के तहत आज भी क्यों मुसलमानों के साथ नाइंसाफ़ी हो रही है और आज जब मोदी जी समान नागरिक संहिता की बात कर रहे है तो इस आर्टिकल के तहत वर्णित उस 1950 वाले राष्ट्रपति अध्यादेश को भी ख़ारिज कर दिया जाए जो मुसलमानों को शिड्यूल कास्ट स्टेट्स देने से रोकता है। "
UCC

इस वक्त अद्भुत राजनीतिक विरोधाभासों का दौर जारी है। प्रधानमंत्री कुछ कहते हैं। उनकी सरकार सुप्रीम कोर्ट में कुछ कहती है। दूसरी तरफ, उनका कैबिनेट समान नागरिक संहिता लाने की बात करता है। अन्यथा, क्या वजह है कि अभी भोपाल में बोलते हुए जब प्रधानमंत्री पसमांदा मुस्लिमों के पिछड़ेपन और दुर्दशा के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहे थे उस समय वे भूल गए कि उन्हीं की सरकार बालाकृष्णन कमेटी बना कर सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम आरक्षण (शिड्यूल कास्ट स्टेट्स) के मुद्दे को उलझाने की कोशिश कर रही थी।

बहुसंख्यक तुष्टिकरण!

ऑल इंडिया पसमांदा अमुस्लिम महाज के संस्थापक और जद (यू) के पूर्व सांसद अली अनवर अंसारी वर्षों से पसमांदा मुस्लिम आरक्षण की लड़ाई लड़ते रहे हैं। न्यूज़क्लिक के लिए बात करते हुए अंसारी कहते हैं कि आर्टिकल 341 के तहत आज भी क्यों मुसलमानों के साथ नाइंसाफी हो रही है और आज जब मोदी जी समान नागरिक संहिता की बात कर रहे है तो इस आर्टिकल के तहत वर्णित उस 1950 वाले राष्ट्रपति अध्यादेश को भी खारिज कर दिया जाए जो मुसलमानों को शिड्यूल कास्ट स्टेट्स देने से रोकता है जबकि शुरुआत में सिर्फ हिन्दुओं और बाद में संशोधन के जरिये नव बौद्धों और सिखों को भी शिड्यूल कास्ट स्टेट्स का दर्जा दे दिया गया है।

अंसारी यह भी कहते हैं कि प्रधानमंत्री जी भोपाल में तो कहते है कि मुसलमानों के साथ उन्हीं की कम्युनिटी के भीतर जाति-पाती के आधार पर भेदभाव होता है, उनमें अशिक्षा हैं, बेरोजगारी है और इसके लिए वे विपक्ष को जिम्मेवार ठहराते हैं तो ऐसे में क्यों नहीं यूसीसी लाते समय इस चीज को करेक्ट कर देते हैं।

अंसारी अपनी नई पुस्तक “संपूर्ण दलित आन्दोलन: पसमांदा तस्सवुर” में इस मुद्दे को बहुत ही बारीकी से रखते हुए समझाते हैं कि इस वक्त देश में भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति क्या है, जिसे पहले भी सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट के जरिये बता दिया है।

बहरहाल, भोपाल में जब प्रधानमंत्री मोदी पसमांदा मुसलमानों की सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिक सच्चाई को स्वीकार कर रहे थे तब क्या वे भूल गए थे कि रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने 2007 में (यूपीए सरकार द्वारा बनाया गया कमीशन) ही अपनी रिपोर्ट के जरिये मुस्लिमों की हालत हिन्दू दलितों के बराबर बता दी थी और इसके लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था करने की बात कही थी। इसे 2009 में सदन के पटल पर रखा गया। क्या प्रधानमंत्री को पता है कि उक्त कमीशन की रिपोर्ट संसद के किस गलियारे में पिछले 14 सालों से धूल फांक रही है। तो सवाल यही है कि जब प्रधानमंत्री मुस्लिमों की दुर्दशा के लिए विपक्ष की वोट बैंक पॉलिटिक्स को जिम्मेदार ठहरा रहे थे तो वे असल में क्या कर रहे हैं? क्या वे वोट बैंक पॉलिटिक्स और बहुसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति नहीं कर रहे हैं?

सन् 1950 का राष्ट्रपति अध्यादेश?

राष्ट्रपति अध्यादेश, 1950 का उल्लेख भारतीय संविधान में है। यह अध्यादेश कहता है कि सिर्फ हिन्दू धर्म के दलितों को ही एससी स्टेट्स दिया जा सकता है। लेकिन जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने इस सूची में बौद्ध दलितों को भी शामिल किया जिन्हें नव बौद्ध कहा गया। इससे पहले सिख दलितों को भी इस सूची में शामिल कर लिया गया था। इसके बाद इस लिस्ट से बाहर रह गए थे मुस्लिम, ईसाई, जैन और पारसी। मनमोहन सिंह सरकार ने जब सच्चर कमेटी बनाई थी तब इस कमेटी ने जो रिपोर्ट दी, वह मुस्लिम समुदाय की बदतर सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति को बताती थी। इसके बाद, मनमोहन सिंह सरकार ने ही रंगनाथ मिश्रा कमीशन का गठन किया, जिसने 2007 में अपनी रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में साफ़ कहा गया है कि मुसलमानों के बीच भारी जातिगत भेदभाव है और मुस्लिम समुदाय के भीतर जो अतिपिछड़ी जातियां हैं, उनकी हालत हिन्दू दलितों से भी बदतर है और इसी आलोक में इस कमीशन ने उनके लिए 10 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की।

साथ ही, इस कमीशन ने 1950 प्रेशिडेशियल आर्डर को हटाने की भी सिफारिश की क्योंकि कमीशन का मानना था कि यह अध्यादेश धार्मिक आधार पर लोगों की सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिक स्थिति की सच्चाई को देखे बिना भेदभाव करता है। इस रिपोर्ट को लोकसभा के पटल पर रखे हुए 14 साल बीत चुके हैं। लेकिन इस पर अब तक कोई एक्शन टेकेन रिपोर्ट नहीं आई है। तो सवाल है कि प्रधानमंत्री मोदी के संज्ञान में यह रिपोर्ट है भी या नहीं। या जब वे भोपाल में पसमांदा मुस्लिमों की बात करते हैं तो क्यों नहीं सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमीशन की सिफारिशों की बात करते हैं। जाहिर है, वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि पसमांदा मुस्लिमों की बेहतरी से उनका कोई लेनादेना नहीं है। वे बस इस बहाने बहुसंख्यक तुष्टिकरण कर अपना वोट बैंक मजबूत बनाए रखना चाहते हैं।

यूसीसी: संपत्ति, विवाह, तलाक़ तक ही क्यों?

सन् 1980 में मिनरवा मिल्स केस, 1985 में शाहबानो केस और 1995 में सरला मुद्गल केस में सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया था कि आखिर सरकार कब समान नागरिक संहिता लाएगी? अब प्रधानमंत्री सुप्रीम कोर्ट के ऐसे ही आदेशों का हवाला दे कर समान नागरिक संहिता लाने की बात कर रहे हैं। लेकिन जब संविधान के आर्टिकल 44 की आत्मा को मजबूत करने के लिए एक देश एक नागरिक एक क़ानून की जरूरत है तो यह सिर्फ शादी-तलाक-संपत्ति जैसे मुद्दों तक ही क्यों सीमित रहे।

सतीश देशपांडे और गीतिका बापना ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के लिए एक रिपोर्ट बनाई थी, जिसमें कहा गया था कि शहरी क्षेत्रों में 47 फ़ीसद दलित मुस्लिम ग़रीबी रेखा से नीचे हैं, जबकि ग्रामीण इलाक़ों में 40 फ़ीसद दलित मुस्लिम और 30 फ़ीसद दलित ईसाई ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। इस बात की ताकीद रंगनाथ मिश्र कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में साफ़ तौर पर की है।

ऐसे में, जब एक बार फिर समान नागरिक संहिता की बात हो रही है तो सबसे पहले संविधान से 1950 का राष्ट्रपति अध्यादेश हटाया जाना चाहिए जो धार्मिक आधार पर आज भी मुस्लिम, पारसी और जैन को उस सूची से बाहर रखता है, जिसके तहत आर्थिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े किसी समुदाय को शिड्यूल कास्ट स्टेट्स का दर्जा दिया जाता है। क्या प्रधानमंत्री ऐसा कुछ करने की हिम्मत दिखा पाएंगे या यह मान लिया जाना चाहिए कि वे सिर्फ और सिर्फ बहुसंख्यक तुष्टिकरण कर रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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