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योगी सरकार के दूसरे कार्यकाल में बढ़ता दमन : उभरता जन-प्रतिरोध

विपक्ष के बिखराव और निकम्मेपन से भाजपा को UP में ध्रुवीकरण की अपनी राजनीति को बेरोकटोक आगे बढ़ाने के लिए बहुत ही उर्वर जमीन मिल गयी है। बहरहाल जनता अपने ढंग से लड़ रही है। जगह जगह नागरिक समाज के concerned citizens तथा जनसंगठन प्रदेश के बिगड़ते हालात के मद्देनजर हस्तक्षेप कर रहे हैं।
UP

योगी सरकार के दूसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरे हो गए। बहुत से विश्लेषकों को यह उम्मीद थी कि दो तिहाई बहुमत से पुनः वापसी के बाद Prime Ministerial ambition पालने वाले योगी अपने दूसरे कार्यकाल में मुख्यमंत्री के बतौर मोदी के दूसरे कार्यकाल की तर्ज पर विकास और गवर्नेंस पर जोर दे सकते हैं, क्योंकि पहले कार्यकाल में अपने कारनामों से वे मोदी की तरह ही अपनी हिन्दू हृदय सम्राट वाली छवि पहले ही स्थापित कर चुके हैं।

पर ऐसा नहीं हुआ, पहले 100 दिन उनके पिछले बुलडोजर राज के नई ऊंचाई पर पहुंचने के साक्षी रहे। मुसलमानों पर जुल्म बेइंतहा बढ़ गया है।

वह सहारनपुर में लॉक-अप में बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों पर बर्बरता हो, जिसका वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुआ था और जिन्हें बाद में कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया, या इलाहाबाद में सामाजिक कार्यकर्ता जावेद मोहम्मद की गिरफ्तारी और उनकी पत्नी के मकान पर बुलडोजर चलाना हो या फिर AltNews के पत्रकार मो. ज़ुबैर पर पहले सीतापुर में और जब वहां जमानत मिल गयी तो अब लखीमपुर में मुकदमा और जेल हो, या फिर सम्भल यूपी में एक होटल वाले को इसलिए जेल हो कि उसने रद्दी में खरीदे अखबार में जिस पर आरोप के अनुसार देवी-देवताओं की फोटो थी, सामिष भोजन पैक कर दिया था, आदि इसके चंद नमूने हैं। अल्पसंख्यकों के अंदर यह एहसास गहराता जा रहा है कि राज्य और कानून की निगाह में उनके साथ दोयम दर्जे के शहरी का व्यवहार हो रहा है।

इस अल्पसंख्यक विरोधी क्रूरता को, जिसका उद्देश्य समाज में ध्रुवीकरण को तीखा करना है, good governance और कानून-व्यवस्था के मॉडल के बतौर पेश किया जा रहा है। इसके द्वारा हमारे सामाजिक तानेबाने और राष्ट्रीय एकता को मरणांतक चोट पहुंचाई जा रही है।

2022 का UP अपने राजनीतिक वर्चस्व के शिखर पर खड़ी संघ-भाजपा के लिये हिंदुत्व की सबसे बड़ी प्रयोगशाला और प्रयोगस्थली बन चुका है। इसलिये उत्तर प्रदेश में अब जो कुछ हो रहा है, उसे महज उत्तर प्रदेश के संदर्भ में देखने की बजाय राष्ट्रीय राजनीति के आईने में ही समझा जा सकता है।

दरअसल, लगभग 19% की sizable मुस्लिम आबादी वाला उत्तर प्रदेश आज़ादी की लड़ाई के दौर से ही, communally sensitive प्रदेश रहा है। अयोध्या प्रकरण की राजनीतिक उपयोगिता का दोहन कर लेने के बाद ध्रुवीकरण के खेल को नया आवेग देने के लिए संघ-भाजपा के जो अगले target हैं, काशी ज्ञानवापी और मथुरा वे दोनों उत्तर प्रदेश में हैं। अनायास नहीं है कि मोदी ने भी बनारस को अपना चुनाव क्षेत्र बनाया हुआ है। संयोग से उत्तर प्रदेश में योगी जैसा आक्रामक हिंदुत्व का नेता आज उनके पास है।

इन हालात में UP में मुस्लिम विरोधी राजनीति की आंच 2024 तक मद्धिम पड़ने के आसार नहीं हैं।

जाहिर है प्रदेश में विकास और जनकल्याण का एजेंडा back burner पर जा चुका है। मोदी जी के चहेते पूर्व नौकरशाह के बिजली महकमा संभालने के बावजूद सरकार के दावे के विपरीत प्रदेश की जनता बिजली संकट से हलकान रही। लगातार बढ़ती असह्य महंगाई ने जनता का जीना मुहाल कर दिया है। प्रदेश में सूखे के हालात हैं, अभी तक 58% कम बारिश हुई है। खेती संकट में है। उधर गन्ना किसानों का करोड़ों रुपया मिलों पर बकाया है, जिसे लेकर किसान जगह-जगह धरना प्रदर्शन कर रहे हैं।

घनघोर आर्थिक संकट में फंसे लोगों की, कहीं कहीं तो पूरे परिवार की सामूहिक आत्महत्या की दिल दहला देने वाली खबरें आ रही हैं। युवाओं में बेरोजगारी और अग्निपथ योजना को लेकर जबरदस्त आक्रोश है। पिछले दिनों पश्चिम से लेकर पूर्वांचल तक तमाम जिलों में युवा इसके खिलाफ स्वतःस्फूर्त ढंग से सड़क पर उतरे।

अराजकता का आलम यह है कि बनारस में हुए शिक्षा समागम में जिसमें मोदी ने एक तरह से अपनी शिक्षानीति (NEP) को लांच किया, उसमें UGC चेयरमैन और UP के दो सर्वप्रमुख केंद्रीय विश्वविद्यालयों BHU और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति कई घण्टे कार्यक्रम स्थल के अंदर प्रवेश ही नहीं कर पाए। इसी तरह स्वास्थ्य विभाग में तमाम चिकित्सकों का तबादला स्वास्थ्य मंत्री व यूपी के डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक की जानकारी के बिना ही हो गया, जिस पर उन्होंने अपने ही विभाग के अपर मुख्य सचिव को पत्र लिखकर अपनी गैर मौजूदगी में हुए तबादलों पर जवाब तलब किया है।

बुलडोजर से बनाई जा रही आम धारणा के विपरीत प्रदेश में कानून व्यवस्था की हालत बेहद खराब है। दबंगों के हौसले बुलंद हैं। समाज के कमजोर तबकों, दलितों पर हमलों एवम महिलाओं के मर्यादा हनन की घटनाओं की बाढ़ आयी हुई है।

लेकिन जनता के जीवन के ये जलते हुए सवाल कोई मुद्दा नहीं बन पा रहे, इसके लिए योगी जी और संघ-भाजपा को प्रदेश के नाकारा विपक्ष का आभारी होना चाहिए। विपक्षी दल इन जनमुद्दों को लेकर तथा अल्पसंख्यकों पर जुल्म के खिलाफ आंदोलन के लिए सड़क पर उतरने को तैयार नहीं हैं।

हद तो यह हो गयी है कि वे चुनाव तक casually लड़ रहे हैं। हाल ही में हुए उपचुनावों में मुख्य विपक्षी दल सपा ने ऐसा लगा जैसे थाल में सजाकर अपनी पुरानी दोनों जीती हुई सीटें भाजपा की झोली में डाल दीं। महज 3 महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में आज़मगढ़ जिले की सभी 10 सीटों पर तथा रामपुर की 5 में से तीन पर सपा जीती थी और लोकसभा की ये दोनों सीटें सपा के दो सर्वोच्च नेताओं अखिलेश यादव और आज़म खां के इस्तीफे से खाली हुई थीं।

आज़मगढ़ उपचुनाव में जहां भाजपा ने सारी ताकत झोंक दी, वहीं सपा की चुनावी रणनीति लोगों के लिए रहस्य बन गयी। मुख्यमंत्री योगी से लेकर उनके उपमुख्यमंत्री तथा पूरी कैबिनेट जहां चुनाव में उतरी हुई थी, वहीं अखिलेश यादव जिनके इस्तीफे से आज़मगढ़ सीट खाली हुई थी, वे वहां गए ही नहीं।

रामपुर में 2019 के 63.19% से घटकर इस बार मात्र 41.39% मतदान हुआ। आरोप है कि कई जगहों पर मुस्लिम मुहल्लों और बस्तियों में भारी पुलिस बल लगाकर, डराकर मतदाताओं को निकलने ही नहीं दिया गया। इस सीट पर जहाँ 52% मुसलिम मतदाता हैं, सपा की हार का यह एक मुख्य कारण रहा। पर सरकारी मशीनरी के बेजा इस्तेमाल द्वारा लोगों को निर्भय मतदान के अधिकार से वंचित किये जाने के खिलाफ विपक्ष कोई प्रतिरोध नहीं खड़ा कर सका।

विपक्ष के बिखराव और निकम्मेपन से भाजपा को UP में ध्रुवीकरण की अपनी राजनीति को बेरोकटोक आगे बढ़ाने के लिए बहुत ही उर्वर जमीन मिल गयी है।

बहरहाल जनता अपने ढंग से लड़ रही है। इस दौरान एक स्वागतयोग्य विकास यह हुआ है कि प्रदेश में जगह जगह नागरिक समाज के concerned citizens तथा जनसंगठन प्रदेश के बिगड़ते हालात के मद्देनजर हस्तक्षेप कर रहे हैं। लखनऊ में पिछले दिनों तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी के खिलाफ शहीद स्मारक पर प्रतिवाद हुआ। पुलिस ने प्रोटेस्ट बहुत देर नहीं चलने दिया, लेकिन अच्छी तादाद में वहां जुटी नागरिक समाज की हस्तियों ने अपना विरोध दर्ज कराया और तीस्ता की रिहाई की मांग करते हुए ज्ञापन दिया।

हाल ही में लखनऊ में नागरिक समाज की पहल पर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कौमी एकता के महान मूल्यों को बुलंद करते हुए एक बेहतरीन कार्यक्रम हुआ। दरअसल 30 जून 1857, आज़ादी की पहली जंग का एक तारीखी दिन है, जिस दिन हेनरी लारेंस के नेतृत्व में निकली दुनिया की सबसे ताकतवर अंग्रेज फौज को लखनऊ की सरज़मीन पर इस्माइल गंज और चिनहट के क्षेत्र में हिंदू मुस्लिम सिपाहियों, किसानों ने अपनी एकता के दम पर सीधी लड़ाई में शिकस्त दे कर लखनऊ को आज़ाद करा लिया था।

जनता की इस फौलादी एकता ने "बजरंग बली - या अली - बजरंग बली " के नारे और आपसी भरोसे के बल पर न केवल यह जीत हासिल की, बल्कि आने वाले हिंदुस्तान का नक्शा भी खींच दिया।

उसके बाद 5 जुलाई को वीरांगना बेगम हज़रत महल के बेटे बिरजिस कद्र की ताजपोशी हुई थी। साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद की " साझी शहादत, साझी विरासत" की इसी गौरवशाली परम्परा को याद करने, उसे celebrate करने और आज की साम्प्रदायिक फासीवादी राष्ट्रवाद की चुनौती के मुकाबिले 1857 के महान मूल्यों को पुनर्जीवित करने के संकल्प के लिए 5 जुलाई को इस्माइलगंज-चिनहट के उसी ऐतिहासिक स्थल पर रंगारंग समारोह आयोजित किया गया।

इस कार्यक्रम में स्थानीय जनता की उत्साहपूर्ण भागेदारी हुई। लोगों ने इसके सन्देश का पुरजोर स्वागत किया और अभियान के इस मॉडल को और क्षेत्रों तक फैलाने की अपील किया। कार्यक्रम स्थल पर पर्चा बांटते लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रो. रूपरेखा वर्मा का वीडियो भी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ।

इस बीच प्रदेश के वामपंथी, जनवादी दलों ने जनमुद्दों के लिए, बुलडोजर राज के खिलाफ अभियान चलाने का निर्णय लिया है, जिसके तहत सबसे पहले जनता के ज्वलंत सवालों पर संयुक्त क्षेत्रीय सम्मेलन आयोजित किए जाएँगे। पहला सम्मेलन अगस्त माह में वाराणसी में होने जा रहा है।

आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश किसान-आंदोलन के अगले चरण के रण का भी प्रमुख केंद्र बनने जा रहा है। संयुक्त किसान मोर्चा ने 18, 19, 20 अगस्त को लखीमपुरखीरी में 75 घण्टे के पक्के मोर्चे का ऐलान किया है जिसमें गृहराज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी की बर्खास्तगी की मांग बुलंद की जायेगी। मोर्चे की ओर से विनाशकारी अग्निपथ योजना के खिलाफ 7 से 14 अगस्त तक राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत पूरे प्रदेश में " जय जवान, जय किसान " सम्मेलन आयोजित किये जायेंगे, जिसमें किसान, जवान और पूर्व सैनिक भाग लेंगे।

उम्मीद है योगी सरकार के दूसरे कार्यकाल में बढ़ते दमन और जनता की बदहाली के खिलाफ आने वाले दिनों में जनप्रतिरोध तेज होगा और विपक्षी दलों को भी ट्विटर स्पेस से बाहर निकलने तथा अपनी भूमिका में खड़ा होने के लिए बाध्य करेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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