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प्रधानमंत्री की कानपुर यात्रा: “बुढ़ापा हमका चापर किहिस!”

कानपुर रैली में उनके भाषण को देख कर लगा कि जैसे उन्हें कानपुर से चिढ़ हो। शायद इसलिए कि कानपुर शहर का मिज़ाज थोड़ा भिन्न है। कानपुर लम्बे समय तक कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ रहा है।
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अभी 28 दिसंबर को प्रधानमंत्री कानपुर गए। वहाँ उन्होंने मेट्रो रेल सेवा का उद्घाटन किया और एक पब्लिक रैली भी की। लेकिन पहली बार किसी पब्लिक रैली में प्रधानमंत्री के चेहरे पर ताज़गी नहीं थी। जबकि इसके 15 रोज़ पहले वाराणसी की रैली में उनके चेहरे पर उत्साह था और भाषण देते समय उनका यह उत्साह चेहरे पर झलक भी रहा था। कुछ ऐसा ही उत्साह गोरखपुर में भी था, झांसी में था और महोबा में भी। किंतु कानपुर रैली में उनके भाषण को देख कर लगा कि जैसे उन्हें कानपुर से चिढ़ हो। शायद इसलिए कि कानपुर शहर का मिज़ाज थोड़ा भिन्न है। कानपुर लम्बे समय तक कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ रहा है। आख़िर 26 दिसंबर 1925 को कानपुर में ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) का गठन हुआ था। किंतु पिछले तीस वर्षों में यहाँ भाजपा ने जड़ें जमा ली हैं। इस दौरान सिर्फ़ 1999, 2004 और 2009 में ही यहाँ कांग्रेस लोकसभा चुनाव जीती। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री को कनपुरिया लटकों-झटकों का इस्तेमाल करना था पर वे चूक गए।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है- “दिल्ली हमका चापर किहिस, दिल-दिमाग़ भूसा भर दिहिस!” कुछ तो दिल्ली का असर और कुछ उमर का कि प्रधानमंत्री में पहले जैसा उत्साह नहीं दिखा। उन्होंने कानपुर आकर अपना सारा भाषण कन्नौज के इत्र व्यापारी पीयूष जैन पर केंद्रित रखा। वे पीयूष जैन के यहाँ मिले अरबों की नगदी को विपक्षी दलों का काला धन बताते रहे। पर जब काला धन रोकने के लिए पांच वर्ष पहले नोटबंदी उन्होंने स्वयं की थी तो यह धन आया कहाँ से?

उन्होंने कानपुर की किसी विशिष्टता को याद नहीं किया। यहाँ तक कि कानपुर में हुई 1857 की उस महान क्रांति को भी नहीं, जिसने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। न उन्होंने नाना धोंडोराव पेशवा को याद किया न अज़ीमुल्ला ख़ाँ को न रानी लक्ष्मीबाई को। याद करने की बात कि जिस आईआईटी से उन्होंने मेट्रो का टिकट ख़रीद कर सवारी की, उससे कुछ ही दूर बिठूर है, जहां रानी लक्ष्मीबाई पली-बढ़ी थीं। 

वे कानपुर गए और वाराणसी की तरह वहाँ गंगा स्नान नहीं किया। उस अटल घाट को देखने भी नहीं गए, जिसे उन्होंने स्वयं बनवाया था। उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी, मौलाना हसरत मोहानी का स्मरण भी नहीं किया। मालूम हो कि कानपुर में ही विद्यार्थी जी के अख़बार “प्रताप” में शहीद भगत सिंह ने काम किया था। वहीं पर चंद्रशेखर आज़ाद से उनकी भेंट हुई थी।

उन्होंने बस पनकी के हनुमान मंदिर का ज़िक्र किया और कहा, कि सुना है यह शहर कहता है- “कोई ऐसा सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं!”

यह कह कर वे क्या साबित करना चाहते थे? असली बात यह है, कि प्रधानमंत्री भले सदैव चुनावी मोड में रहते हों और सदैव खूब सक्रिय किंतु शरीर का भी एक धर्म होता है। वे अब 70 पार कर चुके हैं। अब उनको अपनी भाग-दौड़ में लगाम लगानी चाहिए। इसके लिए उनके शुभचिंतकों और अधिकारियों को भी ध्यान देना चाहिए। उनका भाषण लिखने वालों को चाहिए, कि वे उन्हें उस शहर की हर बारीकी बताएँ, जहां वे जा रहे हैं।

यह देश बहुत बड़ा है। इसमें कई सौ ज़िले होंगे और तमाम ऐसे स्थान हैं, जिनका अपना एक विशिष्ट इतिहास है, जिनकी अलग पहचान है। कोई भी प्रधानमंत्री या वीवीआईपी इन सब चीजों को याद नहीं रख सकता। ज़ाहिर ऐसे में उसे याद दिलाने या संकेत करने का काम उसकी कोर टीम का होना चाहिए। अब या तो प्रधानमंत्री की कोर टीम को स्वयं कानपुर के बारे में कुछ नहीं पता अथवा प्रधानमंत्री की खुद की दिलचस्पी इस शहर के बारे में नहीं रही होगी। अन्यथा वे हर शहर के बारे में काफ़ी कुछ पता रखते हैं और दिलचस्पी ले कर बोलते भी हैं। राजनेता के लिए यह ज़रूरी भी है, इससे उसका उस शहर से जुड़ाव दिखता है, जो भविष्य में उसके लिए बहुत उपयोगी होता है।

कानपुर की पहचान आज भले ही एक “डेड सिटी” के रूप में हो, लेकिन 20वीं सदी के पाँचवें दशक तक यह एक ऐसा औद्योगिक शहर था, जिसकी गति इंग्लैंड तक थी। यूरोप में इसे पूरब का मानचेस्टर कहा जाता था और दिल्ली से कलकत्ता के बीच का यह सबसे बड़ा शहर था। किंतु आज़ादी के बाद से इसका पतन शुरू हुआ। यहाँ से ऐसी कोई राजनीतिक शख़्सियत नहीं निकली जिसने प्रदेश अथवा देश के स्तर पर इसकी बदहाली की आवाज़ उठाई हो। यहाँ की राजनीतिक और बौद्धिक प्रतिभाओं का पलायन शुरू हुआ क्योंकि यहाँ से उद्योग और व्यापार उठने लगा। किसी भी शहर से अगर उद्योग समाप्त होगा तो वहाँ पहले तो रोज़गार ख़त्म होंगे और फिर पलायन शुरू होगा। क्योंकि बिना उद्योग व व्यापार के धन नहीं आता और जब धन नहीं तो लोग वहाँ क्यों रहेंगे?

यह सही है कि पहले कानपुर में मिलें, कारख़ाने और यहाँ के कुटीर उद्योग भयानक प्रदूषण फैलाते थे लेकिन तब इस शहर में स्पंदन था। मिलों के भोंपुओं के शोर और धुआँ उगलती चिमनियों से यहाँ भले प्रदूषण फैलता हो लेकिन इसी शोर और धुएँ से यह शहर सोता-जागता था। और चहल-पहल शुरू हो जाती थी। लेकिन उद्योगपतियों की जो मिलें कभी शहर के बाहर हुआ करती थीं, वे आबादी बढ़ने और शहर का फैलाव होने से शहर के बीच में आ गईं, इससे उनकी ज़मीन की क़ीमत कई गुना बढ़ गई। दूसरे आधुनिक तकनीक की नई मशीनों के आ जाने से अधिक वर्क फ़ोर्स की ज़रूरत नहीं रही, इसलिए मिल मालिकों ने अपनी मिलें बंद करनी शुरू कीं।

इसके लिए अधिकारियों से मिलीभगत हुई और कभी बिजली की कमी तो कभी कोई अन्य बाधा बता कर मज़दूरों को प्ले ऑफ़ (आंशिक छुट्टी) देना शुरू हुआ। वेतन कम होने लगे। ठेका पद्धति शुरू हुई। और इससे संगठित मज़दूर आंदोलन बिखरने लगे। धीरे-धीरे मिलों में तालाबंदी शुरू हुई और देखते-देखते कानपुर की सारी मिलें बंद हो गईं। मिलें बंद तो रोज़गार बंद। दूर ज़िलों के मज़दूर अपने गांव लौट गए या कुछ दिहाड़ी के मज़दूर बन गए। इस तरह शहर की रौनक़ ख़त्म हो गई और शहर में मुर्दनी-सी आ गई। इसीलिए इसे डेड सिटी कहा जाना लगा।

चूँकि यहाँ उद्योगपति थे, व्यापार था और एक अच्छा-ख़ास मिडिल क्लास था, इसलिए शहर का औद्योगिक स्पंदन तो समाप्त हुआ लेकिन शहर नहीं। यहाँ के लोगों ने इसे ट्रेडिंग हब बनाना शुरू किया। और यह शहर बुंदेलखंड तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए एक स्टॉक मार्केट बना। मगर अब सड़कों के विस्तार ने इसका वह स्वरूप भी छीन लिया। सच तो यह है, कि आज का कानपुर हवाला कारोबार और ज़रायम का एक अड्डा बन गया है। ऐसे में प्रधानमंत्री के आगमन से इस शहर को कुछ उम्मीदें थीं, लेकिन उन पर पानी फिर गया।

बेहतर रहता प्रधानमंत्री इस शहर की धड़कन वापस लाने का प्रयास करते। यहाँ के बौने राजनीतिक नेतृत्त्व को ऊपर उठने के लिए घोषणाएँ करते। सिर्फ़ मेट्रो चल जाने से इस शहर का कोई भला नहीं होगा। कुछ नहीं तो शहर में बिजली-पानी और सड़क की व्यवस्था दुरुस्त करवा देने का वचन देते।

आज भी यह शहर एक तरफ़ तो पान-मसाला की सड़न से बेहाल है, दूसरी तरफ़ ज़ाम से। यह वह शहर है, जहां अभी कुछ महीने पहले ज़ाम में फँस कर एक महिला उद्यमी की मृत्यु हो गई। दरअसल राष्ट्रपति को लेकर आ रही स्पेशल ट्रेन गुज़र रही थी और इस वज़ह से रेलवे ओवर ब्रिज बंद कर दिया गया था। इस वज़ह से कोरोना ग्रस्त उस महिला उद्यमी को लेकर अस्पताल जा रही गाड़ी निकल नहीं सकी और उस महिला की मृत्यु हो गई। ऐसी स्थिति से कानपुर को उबारने के लिए प्रधानमंत्री कई नई योजनाएँ घोषित कर सकते थे। किंतु जब सरकार के पास कोई प्लानिंग न हो तो प्रधानमंत्री से भला क्या उम्मीद की जाए?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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