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यूपी निकाय चुनाव : बदलाव और आरक्षण के बाद चुनाव का पूरा ख़ाका!

कई सारे बदलावों के बाद आख़िरकार उत्तर प्रदेश में अब निकाय चुनाव होने जा रहे हैं। जिसके लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने कमर कस ली है।
UP Municipal Elections

लंबे वक्त से जिन चुनावों का इंतज़ार उत्तर प्रदेश की जनता को था, आखिरकार उनकी तारीखों का ऐलान हो गया है। हम बात कर रहे हैं निकाय चुनाव की। जिसे राजनीतिक पार्टियां 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले सेमीफाइनल की तरह भी देख रही हैं।

हालांकि राजनीतिक पार्टियों की सियासी नज़र को इसलिए ग़लत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि लोकसभा से पहले यही एकमात्र चुनाव होने हैं, वो भी 760 नगरीय निकाय के लिए।

आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश में 762 नगरीय निकाय हैं। जिनमें से 760 निकायों पर चुनाव होंगे। इन चुनाव के लिए मतदान दो चरणों में 4 मई और 11 मई को होंगे, जबकि नतीजे 13 मई को आएँगे।

इस चुनाव में जहां सत्ताधारी भाजपा की साख दांव पर होगी, तो समाजवादी पार्टी की रणनीति में कितनी धार बची है, इसका अंदाज़ा भी लग जाएगा। वहीं बसपा प्रमुख मायावती भी अपनी सियासी चाल चलने के लिए चौकन्नी हो चुकी हैं, तो दबे पांव ही सही लेकिन कांग्रेस भी चुपके से वापसी की राह देख रही है।

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि जिन 760 निकायों में चुनाव होने हैं, उसमें

  • 17 नगर निगम
  • 199 नगर पालिका
  • 544 नगर पंचायत अध्यक्ष

की सीटें शामिल हैं, इसके अलावा करीब 13 हज़ार वार्ड पार्षद पद के लिए भी चुनाव हो रहे हैं। वहीं अगर वर्गों के हिसाब से आरक्षण की बात करें तो:

  • ओबीसी- 205
  • एससी- 110
  • एसटी- 02
  • महिला- 288
  • अनारक्षित- 155

इन चुनाव में कुल 4.32 करोड़ वोटर्स वोट करेंगे, जिनमें पहली बार वोट करने वाले वोटर्स की संख्या 4.33 लाख के करीब है।

अब इन आंकड़ों पर ज़ोर दिखाने के लिए राजनीतिक दल कितना तैयार हैं, ये जान लेते हैं। सबसे पहले बात भाजपा की।

ज़्यादा दबाव में भाजपा

भाजपा पर ज़्यादा दबाव का सीधा सा अर्थ ये है कि हर बार नगर निकाय चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करती है, लेकिन पिछले चुनाव की बात करें तो नगर निगम में बेहतर लेकिन नगर पालिका और नगर पंचायत में पिछड़ गई थी। जिसका कारण ये था कि भाजपा को सपा और निर्दलीय ने ज़ोरदार टक्कर दी थी।

आंकड़ों को देखें तो साल 2017 में 16 नगर निगम की सीटों में भाजपा ने 14 नगर निगम जीतकर अपने मेयर बना लिए थे। महज़ दो सीटें अलीगढ़ और मेरठ में बसपा के प्रत्याशी जीते थे और उन्होंने अपना मेयर बनाया था। अब इस बार शाहजहांपुर नया नगर निगम बन गया है, जिसकी वजह से नगर निगमों की संख्या बढ़कर 17 हो गई है।

बहुत हद तक इस बार भी भाजपा को नगर निगम जीतने में तकलीफ नहीं होनी चाहिए, हालांकि नगर पालिका और नगर पंचायत की सीटों पर अब भी मामला जस का तस है। खासकर भाजपा के लिए अब भी चुनौती के रूप में मुस्लिम बाहुल्य सीटें ही हैं, लेकिन इसके लिए भी भाजपा ने अलग सा प्लान तैयार किया है, जिसमें भाजपा की महिला मोर्चा टीम ज़िला स्तर पर महिलाओं के लिए ‘सहभोज’ का आयोजन शुरु कर चुकी है। इस आयोजन के तहत खासकर दलित और मुस्लिम महिलाओं को आमंत्रित किया जा रहा है। इसकी एक खास वजह ये भी है कि कुल निकायों में करीब 37 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

निकाय चुनाव के लिए सपा ने कौन सी राह पकड़ी?

पिछले निकाय चुनाव में सपा एक भी मेयर बनाने में कामयाब नहीं हो सकी थी, हालांकि उसने नगर पालिका और नगर पंचायत के चेयरमैन ज़रूर बना लिए थे।

ख़ैर... 2022 में लगातार दोबारा हारने के बाद सपा का मनोबल ज़रूर टूटा था, लेकिन अब जब शिवपाल यादव भी आकर अखिलेश यादव के साथ डट गए हैं, तब ये कहा जा सकता है कि समाजवादी पार्टी टक्कर देने के लिए तैयार है। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि इसकी रणनीति सपा ने बहुत दिनों पहले शुरु कर दी थी, कैसे?

अभी कुछ ही दिन बीते हैं, अखिलेश यादव ने दलितों के बड़े नेता कांशीराम की मूर्ति का अनावरण कर अपने मुस्लिम-यादव के समीकरण में दलितों को भी जोड़ लिया है। और सीधे तौर पर बसपा और मायावती के वोटरों को समेटने के लिए एक कदम बढ़ा दिया है। इतना ही नहीं निकाय चुनाव के लिए सपा ने बहुत पहले ही अपने पर्यवेक्षक नियुक्त कर दिए थे। हालांकि ये भी कहा जा सकता है कि सपा के पास इस चुनाव में खोने के लिए कुछ नहीं है, लेकिन भाजपा का विकल्प बनने का मौका ज़रूर है।

बसपा वापसी कर पाएगी?

उत्तर प्रदेश में अगर पिछले कुछ सालों में बसपा का प्रदर्शन देखें, तो काफी निराशाजनक रहा है, इसके दो पहलू हैं- एक तो ये कि बसपा के राजनीतिक भविष्य पर सवालिया निशान तो हैं ही, दूसरा ये कि दलितों को मुख्यधारा में रखने वाली राजनीतिक पार्टी का जनाधार खतरे में पड़ना।

ख़ैर... बसपा और इसकी प्रमुख मायावती, कम से कम पिछले निकाय चुनाव के प्रदर्शन को दोहराने की कोशिश ज़रूर करेंगी। पिछले चुनाव में बसपा ने अलीगढ़ और मेरठ जीतकर अपने दो मेयर बना लिए थे। इसके लिए उसने मुस्लिम और दलित कार्ड खेलकर सफलता हासिल की थी। बसपा वैसे तो इसी फ़ॉर्मूले पर उतरने की कोशिश करेगी, लेकिन ये कहा जा सकता है, कि सीटें के लिए आरक्षण में हुए फेरबदल के कारण बसपा का पूरा खेल बिगड़ सकता है। दूसरी ओर इन चुनौतियों से लड़ना बसपा के लिए इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए भी मायावती खुद को और अपनी पार्टी को मज़बूत करना चाहती हैं।

कांग्रेस के लिए क्या बचा है?

उत्तर प्रदेश में अगर किसी पार्टी की हालत सबसे ज़्यादा ख़राब है, तो वो है कांग्रेस। पिछले निकाय चुनाव में पार्टी अपना खाता तक नहीं खोल सकी थी, नगर पंचायत और नगर पालिका में भी कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत खास नहीं रहा था। हालांकि ये कहना ग़लत नहीं होगा कि पिछले यानी 2017 के चुनाव से पहले कांग्रेस अपने मेयर बनाती रही है, लेकिन इस बार चुनौती कई गुना ज़्यादा बड़ी है। इस चुनौती को पार करने के लिए कांग्रेस शहरी क्षेत्रों में ख़ुद को मज़बूत करने पर ज़ोर दे रही है।

जातीय समीकरण    

प्रदेश के शहरी इलाकों में सवर्ण और पंजाबी समुदाय के साथ दलित और मुस्लिम मतदाता अहम भूमिका में हैं, इसके अलावा ब्राह्मण, कायस्थ, वैश्य,  समुदाय के साथ दलितों में खटिक और बाल्मिकी जैसी जातियां अहम भूमिका अदा करती हैं।

पिछले चुनावों पर नज़र डालेंगे तो भाजपा ब्राह्मण, कायस्थ, वैश्य-पंजाबी और दलित समीकरण के जरिए शहरी इलाकों में जीत दर्ज करती आ रही है। वहीं सपा और बसपा मुस्लिम वोटों के भरोसे जीत की कोशिश करती है। अगर दलित समुदाय की बात करें तो शहरी इलाकों में इनकी संख्या कम है, जबकि ओबीसी में यादव, कुर्मी, जाट जैसी नौकरी पेशा वाली जातियां है। इन्हीं जातियों के इर्द-गिर्द राजनीतिक दांव पेच खेले जा रहे हैं।

अब देखना दिलचस्प ये हो गया है कि इन जातियों को कितना अच्छा समीकरण कौन सी राजनीतिक पार्टी बना पाती है।

पिछले चुनाव के आंकड़े क्या कहते हैं?

नगर निकाय के पिछले चुनाव साल 2017 में हुए थे, भाजपा ने 16 नगर निगमों में से 14 पर जबकि बसपा ने 2 पर जीत हासिल की थी। वहीं नगर पालिका के नतीजे देखें तो 198 शहरों में भाजपा ने 67, सपा ने 45, बसपा ने 28 और निर्दलीय ने 58 पर जीत दर्ज की थी। ऐसे ही नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनाव थे, जिसमें 538 कस्बों में भाजपा ने 100, सपा ने 83, बसपा ने 74 और 181 निर्दलीयों ने जीते थे। वहीं इस बार की बात करें तो नगर निकाय की सीटें बढ़कर 760 हो गई हैं, जिसमें 545 नगर पंचायत, 200 नगर पालिका परिषद और 17 नगर निगम की सीटें हैं।

अब बात उस मसले की कर लेते हैं जिसके कारण इन चुनावों में देरी हुई। दरअसल प्रदेश की निकायों का कार्यकाल 12 दिसंबर से 19 जनवरी के बीच खत्म हो चुका है। लेकिन मामल ओबीसी आरक्षण को लेकर अटका हुआ था। हालांकि 30 मार्च को उत्तर प्रदेश सरकार ने ओबीसी आरक्षण ड्राफ्ट जारी कर दिया, जिसके बाद ये फैसला हुआ कि 762 में से 760 निकायों पर चुनाव कराए जाएंगे, इनमें 205 सीटें ओबीसी के लिए रिज़र्व कर दी गई हैं।

कहां किसे मिला आरक्षण?

नगर निगम की 17 में से 9 सीटों को आरक्षण मिला है। जिसमें आगरा सीट एससी(महिला), झांसी(एससी), शाहजहांपुर, और फिरोज़ाबाद ओबीसी, सहारनपुर और मेरठ ओबीसी के अलावा लखनऊ, कानपुर और गाज़ियाबाद को महिला के लिए आरक्षित किया गया है।

वहीं वाराणसी, प्रयागराज, अलीगढ़, बरेली, मुरादाबाद, गोरखपुर, अयोध्या ओर मथुरा-वृंदावन अनारक्षित सीटें हैं।

क्या और कितना बदला?

राज्य चुनाव आयुक्त मनोज कुमार के मुताबिक, नगर निगमों और नगर पालिका परिषद के सीमा विस्तार के कारण वोटर्स की संख्या बढ़ गई है। यही वजह है कि इस बार चुनाव में 4.32 करोड़ वोटर्स वोट डालेंगे, जबकि पिछले चुनाव में 3.35 करोड़ वोटर्स थे। यानी पांच साल में 96.36 लाख से ज़्यादा वोटर्स बढ़ गए हैं। इस में 4.33 लाख ऐसे भी वोटर्स हैं जो पहली बार वोट डालने वाले हैं। क्योंकि ये वोटर्स 1 जनवरी 2023 को 18 साल के पूरे हो चुके हैं।

अब सवाल ये है कि नगर पालिका, नगर निगम और नगर पंचायत की संख्या क्यों बढ़ीं? तो इसका साधारण सा जवाब यही है कि इसपर सीमा विस्तार का असर देखा गया है। यानी कई ग्रामीण इलाके शहरी क्षेत्र में आ गए, जिसके कारण सीधे तौर पर 21.23 लाख से ज़्यादा वोटर्स शहरी क्षेत्र में आ गए।

वहीं इस विस्तार से अब कुल मिलाकर 17 नगर निगम, 200 नगर पालिकाएं, और 545 नगर पंचायत हैं। लेकिन चुनाव सिर्फ 760 निकायों पर ही होगा।

पिछली बार की बात करें, यानी 2017 में 16 नगर निगम, 198 नगर पालिका, और 438 नगर पंचायत थीं, यानी इस बार एक नगर निगम, दो नगर पालिका और 107 नगर पंचायतें बढ़ गई हैं। 

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